hindisamay head


अ+ अ-

कविता

खेल में

मृत्युंजय


यूँ सरकशी के खेल में, दब कर घिसट रहा है मन,
टूट कर भारी सतह के बीच ही, छुप जाएगा तन,
रन से आएगा, एकाएक नाचता इतिहास का कन,
जन के भीतर का भरम, सब छूट जाएगा,
रहम कर, भर रही है आग की प्याली,
अधूरी राग की गगरी, छलकती तर रही है
दुख के कालिय दह के भीतर,
मर रही है दर पे आके, सुख के होने थे शजर पर
बजर छाती अरज की टूटी नहीं, अब भी कहर
बरसा रही है वह सहर,
कि जिसकी आरजू लेकर चले थे आप।

 


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में मृत्युंजय की रचनाएँ