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कविता

रंग-बिरंगे सपने

मृत्युंजय


मैं रंग-बिरंगे सपनों के
नीले दर्पण में
लाल-हरे मस्तूलों वाली
मटमैली सी नाव सँभाले
याद तुम्हारी झिलमिल करती श्याम देह
केसर की आभा से
गीला है घर बार
मार कर मन बैठा हूँ
खाली मन की खाली बातें
रातें हैं बिलकुल खामोश
डर लगता है।

 


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