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कविता

कि तब भी

मृत्युंजय


का करूँ, का भरूँ
शोर की शराब में ही, डूब गया बीस साल
समय बना काल
हीं हीं हीं हिन् हिन् हिन्
दुलकी थी चाल
आजम-गढ़ की मट्टी
रीढ़ के सवाल

सुनते हैं देश ये बिराना हुआ नहीं
कहते हैं होंगें यहीं बिखरे
गुणसूत्र
यहीं जहाँ पसरा है दिव्य लवण मूत्र

सत्रह से तेईस, चौवालीस-तिहत्तर
बढ़ती जाती हुई
चौडाई टीवी की
मायापति अमरीका
लीला की भूमि हुआ भरत खंड
अंड बंड संड

तो लघु से महत् महत्तम तक
माया जी महाठगिनी बैठीं
कौन भेद ले आएगा
सिद्ध, मुनी, बैरागी सब तो चले गए है फारेन-वारेन

दीवालों पर लटक रहे हैं रंग अनंत आभासी
शुरू हुए काले-सफेद से
लाल-हरे-काले से बढ़ते-बढ़ते
हुए मैजेंटा, स्यान, पीत और काले
नाले प्रवहित चारो ओर
दूर दूर तक ओर न छोर

गणित में लिखे गए हैं रंग
नोट चले हैं तिरछी चाल
हरे हरे टेढ़े से ब्याल

पर मुआफ करिए साहेबान!
दुई है इन सब के भी बीच
पक्की टुच्चई है
और पक्का है बवेला
लंबा चौड़ा सा झमेला

यहाँ अभी तक प्रेम कर रहे लोग
हाड़-मांस के साथ
हाथ हैं जिनसे छूना होता है प्यारी माटी को
अलग अलग भी प्यारी को माटी को

गणित रंग को मार दरेरा, एच वन एन वन को रंदा दे
बादल को रँगने निकले हैं
आठ भुजाओं वाले श्री अठभुजा शुक्ल

मुद्राओं से हो सकता है सबकुछ भाई
पर अब भी, हाँ यहीं कहीं पर
देना-लेना-पाना-खोना-रोना-सोना-हँसना सबकुछ
बिन मुद्रा के भी करते हैं लोग
ऐसा इनका रोग

अच्छे दागों वाली दुनिया में
चौंक रहे श्रीमंत-संत-घोंघाबसंत
सफाई पर हैं भौंक रहे
नाक की टेढ़ी चितवन
वाह रे श्रीमान

पर नहीं
बसेरा इधर नहीं है
कि फेरा पूरा करके लौट चलो खलिहान
कि माँ तो अब भी उपले थाप रही है
कि अब भी उसके अंतरमन से झलक रही है नफरत
कि अब भी हर संभव हथियार बनाते लोग
कि अब भी भर देती है धान-पान की खूशबू
कि अब भी बदल सकेगी दुनिया
अब भी रकत के आँसू, मांस की लेई
से ही बनता घर।

 


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