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कविता

याद की राहगुजर

मृत्युंजय


धीरे-धीरे, फिर तेज
न जाने कब से बारिश हो रही है
जहाँ मैं हूँ
सूझता नहीं है साफ रास्ता
कहीं किसी ओर

यह सावन की रात है
काली, गहरी और कीचड़ से भरी हुई,
इतिहास में ऐसी रातों का कोई खास जिक्र नहीं
नेहरू की डिस्कवरी से भी बाहर रही यह
और बिनोवा के संत हृदय नवनीत का कीचड़
तो इससे बिल्कुल जुदा ही था
फाइव स्टार झोपड़ियों,
जिनमें आजकल राजकुमार रात बिताते हैं
बताते हैं, यह रात वहाँ भी नहीं है

अगस्त के महीने में जमी
घुप्प अँधेरी रातों की चर्चा
बाबा किया करते थे, ठेठ देशी ठाट में
कि ऐसी रातों में दिशा-मैदान के लिए भी
दो फुट जमीन नहीं मिलती
गंधाते रहते हैं रास्ते
कीचड़-कादो से

वे पूरे नब्बे साल जिए
फगुआ गाते हुए रुँधे गले से
दमा की बीमारी की गोद में सर रखे
दादी के गुजरने के बाद
रह गए चटकल बंगाल के किस्से-कारनामे
जिनमें हाँड़ी सिर और बित्ते बराबर कान वाले
सरदार पटेल आते थे
जादू करते थे जिंदा और मुर्दा सबपर,
हल्ला मचाते लोग चुप हो जाते थे।

पर सावन की बेशऊर चिपचिपी कीचड़ का जिक्र
उनके बयान के पीछे हिलकोरता था
ताकता था उचककर
हालाँकि वे इस किस्से को
पूरी सफाई से कहने की कोशिश करते थे

पैरों की उँगलियों में
बदबूदार कीचड़ से बने घाव को
गरम तेल से सींचते पिता
खासे परेशान रहते थे
खेतों से धन रातोंरात गायब हो जाते, बह जाते
कीचड़ व अगस्त के राज में
मनमाने तौर से टूट जाती मेंड़
आधी रात में, भिनसारे
पिता फावड़े के साथ
खड़े होते थे ठीक फावड़े की तरह
गहरा मारना है फावड़ा
कीचड़ और सावन और अगस्त और अँधेरा,
फावड़ा गहरा मारना है
धान के लिए हमें यह सब करना पड़ेगा।

चौहत्तर से अब तलक
उनके साथ खेत नहीं जा पाई बहन
ले भी नहीं गए कभी
उसके लिए सावन की बदबूदार रातें
झूले की तरह थीं
हालाँकि कई बार
सरककर वह झूले के पटरे से नीचे
गोबर और कीचड़ में गर्क होती रही

माँ अपनी ठठरी समेटे
दलान से कीचड़ बाहर ढकेलती
जतन करती
अगस्त, सावन और कीचड़ के खिलाफ
उसकी जंग का दस्तावेज कहीं नहीं लिखा गया
इतिहास में तो बिल्कुल नहीं

पिता बार-बार सुनाते
जवानी में घर छोड़ने का किस्सा
फिर लौटना
बहुगुणा की सरकार में सरकारी मास्टरी
जेल जाने के किस्से
'आधी रोटी खाएँगे, सेंट्रल जेल को जाएँगे'

तो सावन था, अगस्त था और
अँधेरा बदस्तूर था
पर चोर दरवाजे कहाँ नहीं होते
सबसे कातर आवाज में माँ गाती
'गज और ग्राह लड़त जल भीतर
नाथ हो गज के पिंड छुड़ावा'
माँ खड़ी है उसी समय से
अगस्त और सावन और अँधेरे और कीचड़ के बीच

अब लगभग छोड़ चुके हैं खेत जाना पिता
अधिया पर हैं कुल बारह बीघे
जो मालिक नहीं हैं
दक्खिन से आते हैं
उनके घर वैसे ही है
पश्चिम के खि़लाफ
डंकल के बीज
डाई, यूरिया, पोटास की कीमत
और रोज-रोज का अपमान
पूँजी है
जिससे एक छटांक तिलहन भी नहीं खरीदा जा सकता।

हम तब से डरते हैं
अगस्त और सावन और अँधेरे से
साँप, बिच्छू और कीड़ों से
मस्ज़िद टूटने पर माँ उदास थी
पिता निर्लिप्त ढंग से खुश थे
हम अगस्त के सूखे कुएँ में साँप खोज रहे थे
दिसंबर तक चली हमारी खोज
रोज-रोज

मुझे पुलिस की वर्दी
और कीचड़ सने साँप
एक जैसे लगते हैं तभी से
जिस घर में छिपा करते थे हम
बारिश, कीचड़, रात और अँधेरे से बचने के लिए
मुंडेरों पर साँप रहने लगे हैं वहाँ
निगरानी रखते हैं हरकतों पर
बरकतों पर ऐसी नजर टाँकते हैं कि
हरा पेड़ पलभर में ठूँठ हो जाए

उस वक्त भी
माँ कीचड़ से बचाने के लिए
गाढ़े लाल आलते में
डुबो देती थी हमारे पैर
और हम बेखटके
रौंदते हुए बढ़ लेते थे कीचड़ में।

इतिहास की किसी किताब में नहीं है तो क्या
बचने का रास्ता मान के बिना नहीं मिलेगा
यह हम बहुत पहले से जानते हैं।

 


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