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जब मैं छोटा था
अक्सर चलते हुए थक जाता था
दादा मुझे कंधे पर बैठाकर घुमाते थे
एक दिन कंधे पर बिठाकर
नदी पुल जंगल पार करते हुए
मेले में ले गए
उनके सुरक्षित कंधे पर
मैं चिड़िया की तरह फुदकता था
सीवान में आते जाते मेलहा को देखता था
मेले में पहुँचते ही शुरू हो गई थी
हज-हज
खिलौनें और मिठाइयों की दुकानों पर
टूट पड़े थे बच्चे
मैंनें एक पिपहिरी खरीदी
उसे दादा के कान में चुपके से बजाया
चौक उठे थे दादा
उन्होंने ने प्यार से उमेठ दिए थे कान
चारों ओर सजी हुई थीं दुकानें
रंग बिरंगे नए कपड़े पहन कर
मेले में घूम रहे थे लोग
कुछ पेड़ की छाँह में गुमटियाँ कर बैठे हुए
गाँव गढ़ी का बतकही कर रहे थे
औरतें अपने संबंधियों से कर रही थीं
भेंट अँकवार
भीड़ के एक गोले की तरफ इशारा करते हुए
मैंने दादा से कहा - मैं वहाँ देखूँगा तमाशा जहाँ
लड़ रही हैं भेंड़ें
मैं दादा के कंधे पर खड़ा हो गया
मैं उनसे बड़ा हो गया
मैं मेले की भीड़ से बड़ा हो गया
मैंने सोचा - क्या मैं वृक्ष से भी ऊँचा हो सकता हूँ
क्या मैं छू सकता हूँ आसमान
मैं यही सोचता रहा
धीरे धीरे खत्म होता गया मेला
सुनसान होती गई जगह
कहाँ पंख लगाकर उड़ गए इतने लोग
घर पहुँचते दादा ने कहा - अब डाल से
उतर जा चिड़िया पेड़ को करने दे बिश्राम
और दादा भी गुम हो गए।
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