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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम राजा रत्नसेन सती खंड पीछे     आगे

कै बसंत पदमावति गई । राजहि तब बसंत सुधिा भई॥

जो जागा न बसंत न बारी । ना वह खेल, न खेलनहारी॥

ना वह ओहि कर रूप सुहाई । गै हेराइ, पुनि दिस्टि न आई॥

फूल झरे, सूखी फुलवारी । दीठि परी उकठी सब बारी॥

केइ यह बसत बसंत उजारा? । गा सो चाँद अथवा लेइ तारा॥

अब तेहि बिनु जग भा ऍंधाकूपा । वह सुख छाँह, जरौं दुख धाूपा॥

विरह दवा को जरत सिरावा? । को पीतम सौं करै मेरावा?॥

हिये देख तब चंदन खेवरा, मिलि कै लिखा बिछाव।

हाथ मींजि सिर धाुनि कै, रोवै जो निचित अस सोव॥1॥

जस बिछोह जल मीन दुहेला । जल हुँत काढ़ि अगिनि महँ मेला॥

चंदन ऑंक दाग हिय परे । बुझहिं न ते आखर परजरे॥

जनु सर आगि होइ हिय लागे । सब तन दागि सिंघ बन दागे॥

जरहिं मिरिंग बनख्रड तेहि ज्वाला । औ ते जरहिं बैठ तेहि छाला॥

कित तें ऑंक लिखे जो सोवा । मकु ऑंकन्ह तेह करत बिछोवा॥

जैस दुसंतहि साकुंतला । मधावानलहि कामकंदला॥

भा बिछोह जस नलहिं दमावति । नैना मूँदि छपी पदमावति॥

आइ बसंत जो छपि रहा, होइ फूलन्ह के भेस।

केहि बिधिा पावौं भौंर होइ, कौन गुरु उपदेस॥2॥

रोवै रतनमाल जनु चूरा । जहँ होइ ठाढ़, होइ तहँ कूरा॥

कहाँ बसंत औ कोकिल बैना । कहाँ कुसुम अति बेधाा नैना॥

कहाँ सो मूरति परी जो डोठी । काढि लिहेसि जिउ हिये पईठी॥

कहाँ सो देस दरस जेहि लाहा । जौं सुबसंत करीलहि काहा?॥

पात बिछोह रूख जो फूला । सो महुआ रोवै अस भूला॥

टपकै महुअ ऑंसु तस परहीं । हाइ महुआ बसंत ज्यों झरहीं॥

मोर बसंत सो पदमिनि बारी । जेहि बिनु भएउ बसंत उजारी॥

पावा नवल बसंत पुनि, बहु आरति बहु चोप।

ऐस न जाना अंत ही, पात झरहिं होइ कोप॥3॥

अरे मलिछ बिसवासी देवा । कित मैं आइ कीन्ह तेरि सेवा॥

आपनि नाव चढ़ै जो देई । सो तौ पार उतारै खेई॥

सुफल लागि पग टेकेउँ तोरा । सुआ क सेंवर तू भा मोरा॥

पाहन चढ़ि जो चहै भा पारा । सो ऐसे बूड़ै मझधाारा॥

पाहन सेवा कहाँ पसीजा? । जनम न ओद होइ जो भीजा॥

बाउर सोइ जो पाहन पूजा । सकत को भार लेइ सिर दूजा॥

काहे नहिं जिय सोइ निरासा । मुए जियत मन जाकरि आसा॥

सिंघ तरेदा जेइ गहा, पार भए तेहि साथ।

ते पै बूड़े बाउरे, भेंड़ पूँछि जिन्ह हाथ॥4॥

देव कहा सुनु, बउरे राजा । देवहि अगुमन मारा गाजा॥

जौं पहिलेहि अपने सिर परई । सो का काहुक धारहरि करई1॥

पदमावति राजा कै बारी । आइ सखिन्ह सब बदन उघारी॥

जैस चाँद गोहने सब तारा । परेउँ भुलाइ देखि उजियारा॥

चमकहिं दसन बीजु कै नाई । नैन चक्र जमकात भवाँई॥

हौं तेहि दीप पतँग होइ परा । जिउ जम काढ़ि सरग लेइ धारा॥

बहुरि न जानौं दहुँ का भई । दहुँ कविलास कि कहुँ अपसई॥

अब हौं मरौं निसाँसी, हिये न आवै साँस।

रोगिया की को चालै, बैदहि जहाँ उपास?॥5॥

आनहिं दोस देहुँ का काहू । संगी कया, मया नहिं ताहू॥

हता पियारा मीत बिछोई । साथ न लाग आपु गै सोई॥

का मैं कीन्ह जो काया पोषी । दूषन मोहिं, आप निरदोषी॥

फागु बसंत खेलि गई गोरी । मोहिं तन लाइ बिरह कैं होरी॥

'

अब अस कहाँ छार सिर मेलौं? । छार जो होहुँ फाग तब खेलौं॥

कित तप कीन्ह छाँड़ि कै राजू । गएउ अहार न भा सिधा काजू॥

पाएउ नहिं होइ जोगी जती । अब सर चढ़ौं जरौं जस सती॥

आइ जो पीतम फिरि गा, मिला न आइ बसंत।

अब तन होरी घालि कै, जारि करौं भसमंत॥6॥

ककनू पंखि जैस पर साजा । तस सर साजि जरा चह राजा॥

सकल देवता आइ तुलाने । दहुँ का होइ देव असथाने॥

बिरह अगिनि बज्रागि असूझा । जरै सूर न बुझाए बूझा॥

तेहि के जरत जो उठै बजागी । तीनहुँ लोक जरै तेहि लागी॥

अबहिं की घरी सो चिनगी छूठै । जरहि पहार पहन सब फूटै॥

देवता सबै भसम होइ जाहीं । छार समेटे पाउब नाहीं॥

धारती सरग होइ सब ताता । है कोई एहि राख विधााता॥

मुहमद चिनगी पेम कै, सुनि महि गगन डेराइ।

धानि बिरही औ धानि हिया, तहँ अस अगिनि समाइ॥7॥

हनुवँत बीर लंक जेइ जारी । परबत उहै अहा रखवारी॥

बैठि तहाँ होइ लंका ताका । छठएँ मास देइ उठि हाँका॥

तेहि कै आगि उहौ पुनि जरा । लंका छाँड़ि पलंका परा॥

जाइ तहाँ वै कहा सँदेसू । पारबती औ जहाँ महेसू॥

जोगी आहि बियोगी कोई । तुम्हरे मँडप आगि तेइ बोई॥

जरा लँगूर सु राता उहाँ । निकसि जो भागि भएउँ करमुहाँ॥

तेहि बज्रागि जरै हौं लागा । बजरअंग जरतहि उठि भागा॥

रावन लंका हौं दही, वह हौं दाहे आव।

गए पहार सब औटि कै, को राखै गहि पाव?॥8॥

(1) उकठी=सूखकर ऐंठी हुई। अथवा=अस्त हुआ। खेवरा=खौरा हुआ, विचित्रा किया या लगाया हुआ।

(2) हुँत=से। परजरे=जलते रहे। सर आगि=अग्निबाण। सब...दागे=मानो उन्हीं अग्निबाणों से झुलसकर सिंह के शरीर में दाग बन गए हैं और बन में आग लगा करती है। कितते ऑंक‑‑‑सोवा=जब सोया था तब वे अंक क्यों लिखे गए; दूसरे पक्ष में जब जीव अज्ञान दशा में गर्भ में रहता है तब भाग्य का लेख क्यों लिखा जाता है। दमावति=दमयंती।

(3) कहाँ सो देस...लाहा?=बसंत के दर्शन से लाभ उठानेवाला अच्छा देश चाहिए, सो कहाँ है? करील के बन में बसंत के जाने ही से क्या? आरति=दु:ख। चोप=चाह।

(4) ओद=गीला, आर्द्र। तरेदा=तैरनेवाला काठ, बेड़ा।

(5) गाजा=गाज, बज्र। धारहरि=धार पकड़, बचाव। गोहने=साथ या सेवा में। अपसई=गायब हो गई। निसाँसी=बेदम। को चालै=कौन चलावै।

1. कुछ प्रतियों में यह पाठ है-'जबहिं आगि अपने सिर लागी। आन बुझावै कहाँ सो आगी।

(6) हता=था, आया था। सर=चिता।

(7) ककनू (फा. ककनूस)=एक पक्षी जिसके संबंधा में प्रसिध्द है कि आयु पूरी होने पर वह घोंसले में बैठकर गाने लगता है जिससे आग लग जाती है और वह जल जाता है। पहन=पाषाण, पत्थर।

(8) पलंका=पलंग, चारपाई अथवा लंका के भी आगे 'पलंका' नामक कल्पित द्वीप।


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