कै बसंत पदमावति गई । राजहि तब बसंत सुधिा भई॥
जो जागा न बसंत न बारी । ना वह खेल, न खेलनहारी॥
ना वह ओहि कर रूप सुहाई । गै हेराइ, पुनि दिस्टि न आई॥
फूल झरे, सूखी फुलवारी । दीठि परी उकठी सब बारी॥
केइ यह बसत बसंत उजारा? । गा सो चाँद अथवा लेइ तारा॥
अब तेहि बिनु जग भा ऍंधाकूपा । वह सुख छाँह, जरौं दुख धाूपा॥
विरह दवा को जरत सिरावा? । को पीतम सौं करै मेरावा?॥
हिये देख तब चंदन खेवरा, मिलि कै लिखा बिछाव।
हाथ मींजि सिर धाुनि कै, रोवै जो निचित अस सोव॥1॥
जस बिछोह जल मीन दुहेला । जल हुँत काढ़ि अगिनि महँ मेला॥
चंदन ऑंक दाग हिय परे । बुझहिं न ते आखर परजरे॥
जनु सर आगि होइ हिय लागे । सब तन दागि सिंघ बन दागे॥
जरहिं मिरिंग बनख्रड तेहि ज्वाला । औ ते जरहिं बैठ तेहि छाला॥
कित तें ऑंक लिखे जो सोवा । मकु ऑंकन्ह तेह करत बिछोवा॥
जैस दुसंतहि साकुंतला । मधावानलहि कामकंदला॥
भा बिछोह जस नलहिं दमावति । नैना मूँदि छपी पदमावति॥
आइ बसंत जो छपि रहा, होइ फूलन्ह के भेस।
केहि बिधिा पावौं भौंर होइ, कौन गुरु उपदेस॥2॥
रोवै रतनमाल जनु चूरा । जहँ होइ ठाढ़, होइ तहँ कूरा॥
कहाँ बसंत औ कोकिल बैना । कहाँ कुसुम अति बेधाा नैना॥
कहाँ सो मूरति परी जो डोठी । काढि लिहेसि जिउ हिये पईठी॥
कहाँ सो देस दरस जेहि लाहा । जौं सुबसंत करीलहि काहा?॥
पात बिछोह रूख जो फूला । सो महुआ रोवै अस भूला॥
टपकै महुअ ऑंसु तस परहीं । हाइ महुआ बसंत ज्यों झरहीं॥
मोर बसंत सो पदमिनि बारी । जेहि बिनु भएउ बसंत उजारी॥
पावा नवल बसंत पुनि, बहु आरति बहु चोप।
ऐस न जाना अंत ही, पात झरहिं होइ कोप॥3॥
अरे मलिछ बिसवासी देवा । कित मैं आइ कीन्ह तेरि सेवा॥
आपनि नाव चढ़ै जो देई । सो तौ पार उतारै खेई॥
सुफल लागि पग टेकेउँ तोरा । सुआ क सेंवर तू भा मोरा॥
पाहन चढ़ि जो चहै भा पारा । सो ऐसे बूड़ै मझधाारा॥
पाहन सेवा कहाँ पसीजा? । जनम न ओद होइ जो भीजा॥
बाउर सोइ जो पाहन पूजा । सकत को भार लेइ सिर दूजा॥
काहे नहिं जिय सोइ निरासा । मुए जियत मन जाकरि आसा॥
सिंघ तरेदा जेइ गहा, पार भए तेहि साथ।
ते पै बूड़े बाउरे, भेंड़ पूँछि जिन्ह हाथ॥4॥
देव कहा सुनु, बउरे राजा । देवहि अगुमन मारा गाजा॥
जौं पहिलेहि अपने सिर परई । सो का काहुक धारहरि करई1॥
पदमावति राजा कै बारी । आइ सखिन्ह सब बदन उघारी॥
जैस चाँद गोहने सब तारा । परेउँ भुलाइ देखि उजियारा॥
चमकहिं दसन बीजु कै नाई । नैन चक्र जमकात भवाँई॥
हौं तेहि दीप पतँग होइ परा । जिउ जम काढ़ि सरग लेइ धारा॥
बहुरि न जानौं दहुँ का भई । दहुँ कविलास कि कहुँ अपसई॥
अब हौं मरौं निसाँसी, हिये न आवै साँस।
रोगिया की को चालै, बैदहि जहाँ उपास?॥5॥
आनहिं दोस देहुँ का काहू । संगी कया, मया नहिं ताहू॥
हता पियारा मीत बिछोई । साथ न लाग आपु गै सोई॥
का मैं कीन्ह जो काया पोषी । दूषन मोहिं, आप निरदोषी॥
फागु बसंत खेलि गई गोरी । मोहिं तन लाइ बिरह कैं होरी॥
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अब अस कहाँ छार सिर मेलौं? । छार जो होहुँ फाग तब खेलौं॥
कित तप कीन्ह छाँड़ि कै राजू । गएउ अहार न भा सिधा काजू॥
पाएउ नहिं होइ जोगी जती । अब सर चढ़ौं जरौं जस सती॥
आइ जो पीतम फिरि गा, मिला न आइ बसंत।
अब तन होरी घालि कै, जारि करौं भसमंत॥6॥
ककनू पंखि जैस पर साजा । तस सर साजि जरा चह राजा॥
सकल देवता आइ तुलाने । दहुँ का होइ देव असथाने॥
बिरह अगिनि बज्रागि असूझा । जरै सूर न बुझाए बूझा॥
तेहि के जरत जो उठै बजागी । तीनहुँ लोक जरै तेहि लागी॥
अबहिं की घरी सो चिनगी छूठै । जरहि पहार पहन सब फूटै॥
देवता सबै भसम होइ जाहीं । छार समेटे पाउब नाहीं॥
धारती सरग होइ सब ताता । है कोई एहि राख विधााता॥
मुहमद चिनगी पेम कै, सुनि महि गगन डेराइ।
धानि बिरही औ धानि हिया, तहँ अस अगिनि समाइ॥7॥
हनुवँत बीर लंक जेइ जारी । परबत उहै अहा रखवारी॥
बैठि तहाँ होइ लंका ताका । छठएँ मास देइ उठि हाँका॥
तेहि कै आगि उहौ पुनि जरा । लंका छाँड़ि पलंका परा॥
जाइ तहाँ वै कहा सँदेसू । पारबती औ जहाँ महेसू॥
जोगी आहि बियोगी कोई । तुम्हरे मँडप आगि तेइ बोई॥
जरा लँगूर सु राता उहाँ । निकसि जो भागि भएउँ करमुहाँ॥
तेहि बज्रागि जरै हौं लागा । बजरअंग जरतहि उठि भागा॥
रावन लंका हौं दही, वह हौं दाहे आव।
गए पहार सब औटि कै, को राखै गहि पाव?॥8॥
(1) उकठी=सूखकर ऐंठी हुई। अथवा=अस्त हुआ। खेवरा=खौरा हुआ, विचित्रा किया या लगाया हुआ।
(2) हुँत=से। परजरे=जलते रहे। सर आगि=अग्निबाण। सब...दागे=मानो उन्हीं अग्निबाणों से झुलसकर सिंह के शरीर में दाग बन गए हैं और बन में आग लगा करती है। कितते ऑंक‑‑‑सोवा=जब सोया था तब वे अंक क्यों लिखे गए; दूसरे पक्ष में जब जीव अज्ञान दशा में गर्भ में रहता है तब भाग्य का लेख क्यों लिखा जाता है। दमावति=दमयंती।
(3) कहाँ सो देस...लाहा?=बसंत के दर्शन से लाभ उठानेवाला अच्छा देश चाहिए, सो कहाँ है? करील के बन में बसंत के जाने ही से क्या? आरति=दु:ख। चोप=चाह।
(4) ओद=गीला, आर्द्र। तरेदा=तैरनेवाला काठ, बेड़ा।
(5) गाजा=गाज, बज्र। धारहरि=धार पकड़, बचाव। गोहने=साथ या सेवा में। अपसई=गायब हो गई। निसाँसी=बेदम। को चालै=कौन चलावै।
1. कुछ प्रतियों में यह पाठ है-'जबहिं आगि अपने सिर लागी। आन बुझावै कहाँ सो आगी।
(6) हता=था, आया था। सर=चिता।
(7) ककनू (फा. ककनूस)=एक पक्षी जिसके संबंधा में प्रसिध्द है कि आयु पूरी होने पर वह घोंसले में बैठकर गाने लगता है जिससे आग लग जाती है और वह जल जाता है। पहन=पाषाण, पत्थर।
(8) पलंका=पलंग, चारपाई अथवा लंका के भी आगे 'पलंका' नामक कल्पित द्वीप।