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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम पदमावती-रत्नसेन-भेंट खंड पीछे     आगे

सात खंड ऊपर कबिलासू । तहवाँ नारिसेज सुखबासू॥

चारि खंभ चारिहु दिसि खरे । हीरा रतन पदारथ जरे॥

मानिक दिया जरावा मोती । होइ उजियार रहा तेहि जोती॥

ऊपर राता चँदवा छावा । औ भुइँ सुरँग बिछाव बिछावा॥

तेहि महँ पालक सेज सो डासी । कीन्ह बिछावन फूलन्ह बासी॥

चहुँ दिसि गेंडुवा औ गलसूई । काँची पाट भरी धाुनि रूई॥

विधिा सो सेज रची केहि जोगू । को तहँ पौढ़ि मान रस भोगू?॥

अति सुकुवाँरि सेज सो डासी, छुवै न पारै कोइ।

देखत नवै खिनहिं खिन, पाँव धारत कसि होइ।1॥

राजै तपत सेज जो पाई । गाँठि छोरि धानि सखिन्ह छपाई॥

कहै कुँवर! हमरे अस चारू । आज कुँवरि कर करब सिंगारू॥

हरदि उतारि चढ़ाउब रंगू । तब निसि चाँद सुरुज सौं संगू॥

जस चातक मुख बूँद सेवाती । राजा चख जोहत तेहि भाँती॥

जोगि छरा जनु अछरी साथा । जोग हाथ कर भएउ बेहाथा॥

वै चातुरि कर लै अपसईं । मंत्रा अमोल छीनि लेइ गईं॥

बैठेउ खोइ जरी औ बूटी । लाभ न पाव, मूरि भइ टूटी॥

खाइ रहा ठगलाडू, तंत मंत बुधिा खोइ।

भा धाौराहर बनख्रड, ना हँसि आव, न रोइ॥2॥

अस तप करत गएउ दिन भारी । चारि पहर बीते जुग चारी॥

परी साँझ, पुनि सखी सो आईं । चाँद रहा, उपनी जो तराईं॥

पूँछहि गुरु कहाँ, रे चेला ! बिनु ससि रे कस सूर अकेला?॥

धाातु कमाय सिखे तैं जोगी । अब कस भा निरधाातु बियोगी?॥

कहाँ सो खोएहु बिरवा लोना । जेहि तें होइ रूप औ सोना॥

का हरतार पार नहिं पावा । गंधाक काहे कुरकुटा खावा॥

कहाँ छपाए चाँद हमारा? । जेहि बिनु रैनि जगत ऍंधिायारा॥

नैन कौड़िया, हिय समुद, गुरु सो तेहि महँ जोति।

मन मरजिया न होइ परे, हाथ न आवै मोति॥3॥

का पूछहु तुम धाातु, निछोही! । जो गुरु कीन्ह ऍंतरपट ओही॥

सिधिा गुटिका अब मो सँग कहा । भएउँ राँग, सत हिये न रहा॥

सो न रूप जासौं, मुख खोलौं । गएउ भरोस तहाँ का बोलौं॥

जहँ लोना बिरवा कै जाती । कहि कैं सँदेस आन को पाती?॥

कै जो पार हरतार करीजै । गंधाक देखि अबहिं जिउ दीजै॥

तुम्ह जोरा कै सूर मयंकू । पुनि बिछोहि सो लीन्ह कलंकू॥

जो एहि घरी मिलावै मोहीं । सीस देउँ बलिहारी ओही॥

होइ अबरक ईंगुर भया, फेरि अगिनि महँ दीन्ह।

काया पीतर होइ कनक, जौ तुम्ह चाहहु कीन्ह॥4॥

का बसाइ जौ गुरु अस बूझा । चकाबूह अभिमनु ज्यौं जूझा॥

विष जो दीन्ह अमृत देखराई । तेहि रे निछोही को पतियाई?॥

मरै सोइ जो होइ निगूना । पीर न जानै बिरह बिहूना॥

पार न पाव जो गंधाक पीया । सो हत्यार1 कहौ किमि जीया॥

सिध्दि गुटीका जा पहँ नाहीं । कौन धाातु पूछहु तेहि पाहीं॥

अब तेहि बाज राँग भा डोलौं । होइ सार तौ बर कै बोलौं॥

अबरक कै पुनि ईंगुर कीन्हा । सो तन फेरि अगिनि महँ दीन्हा॥

मिलि जो पीतम बिछुरही, काया अगिनि जराइ।

की तेहि मिले तन तप बुझै, की अब मुए बुझाइ॥5॥

सुनि कै बात सखी सब हँसीं । जनहुँ रैनि तरई परगसीं॥

अब सो चाँद गगन महँ छपा । लालच कै कित पावसि तपा?॥

हमहुँ न जानहिं दहुँ सो कहाँ । करब खोज औ बिनउब तहाँ॥

1. पाठांतर-हरतार।

औ अस कहब आहि परदेसी । करहि मया; हत्या जनि लेसी॥

पीर तुम्हारि सुनत भा छोहू । दैउ मनाउ, होइ अस ओहू॥

तू जोगी फिरि तपि करु जोगू । तो कहँ कौन राजसुख भोगू॥

वह रानी जहवाँ सुख राजू । बारह अभरन करै सो साजू॥

जोगी दिढ़ आसन करै, अहथिर धारि मन ठाँव।

जो न सुना तौ अब सुनहि, बारह अभरन नाँव1 ॥6॥

प्रथमै मज्जन होइ सरीरू । पुनि पहिरै तन चंदन चीरू॥

साजि माँग सिर सेंदुर सारै । पुनि लिलाट रचि तिलक सँवारै॥

पुनि अंजन दुहुँ नैनन्ह करै । औ कुंडल कानन्ह महँ पहिरै॥

पुनि नासिक भल फूल अमोला । पुनि राता मुख खाइ तमोला॥

गिउ अभरन पहिरै जहँ ताईं । औ पहिरै कर कँगन कलाई॥

कटि छुद्रावलि अभरन पूरा । पायन्ह पहिरै पायल चूरा॥

बारह अभरन अहैं बखाने । ते पहिरै बरहौ अस्थाने॥

पुनि सोरहौ सिंगार जस, चारिहु चौक कुलीन।

दीरघ चारि, चारि लघु, चारि सुभर चौ खीन॥7॥

पदमावति जो सँवारै लीन्हा । पूनिउँ राति दैउ ससि कीन्हा॥

करि मज्जन तहँ कीन्ह नहानू । पहिरे चीर, गएउ छपि भानू॥

रचि पत्राावलि, माँग सदूरू । भरे मोति औ मानिक चूरू॥

चंदन चीर पहिर बहु भाँती । मेघघटा जानहु बगपाँती॥

गूँथि जो रतन माँग बैसारा । जानहुँ गगन टूटि निसि तारा॥

तिलक लिलाट धारा तस दीठा । जनहुँ दुइज पर सुहल बईठा॥

कानन्ह कुंडल खूँट औ खूँटी । जानहुँ परी कचपची टूटी॥

पहिरि जराऊ ठाढ़ि भइ, कहि न जाइ तस भाव।

मानहुँ दरपन गगन भा, तेहि ससि तार देखाव॥8॥

बाँक नैन औ अंजनरेखा । खंजन मनहुँ सरद ऋतु देखा॥

जस जस हेर, फेर चख मोरी । लरै सरद महँ खंजन जोरी॥

भौहैं धानुक धानुक पै हारा । नैनन्ह साधिा बान विष मारा॥

करनफूल कानन्ह अति सोभा । ससिमुख आइ सूर जनु लोभा॥

सुरँग अधार औ मिला तमोरा । सोहै पान फूल कर जोरा॥

कुसुमगंधा, अति सुरँग कपोला । तेहि पर अलक भुअंगिनि डोला॥

तिल कपोल अलि कवँल बईठा । बेधाा सोइ जेइ वह तिल दीठा॥

देखि सिंगार अनूप विधिा, बिरह चला तब भागि।

काल कस्ट इमि ओनवा, सब मोरे जिउ लागि॥9॥

का बरनौं अभरन औ हारा । ससि पहिरे नखतन्ह कै मारा॥

चीर चारु औ चंदन चोला । हीर हार नग लाग अमोला॥

तेहि झाँपी रोमावलि कारी । नागिनि रूप डसै हत्यारी॥

कुच कंचूकी सिरीफल उभे । हुलसहिं चहहिं कंत हिय चुभे॥

बाहँन्ह वहुँटा टाँड़ सलोनी । डोलत बाँह भाव गति लोनी॥

तरवन्ह कवँल करी जनु बाँधाी । बसा लंक जानहु दुइ आधाी॥

छुद्रघंट कटि कंचन तागा । चलतै उठहिं छतीसौ रागा॥

चूरा पायल अनवट, पायन्ह परहिं बियोग।

हिये लाइ टुक हम कहँ, समदहु मानहुँ भोग॥10॥

अस बारह सोरह धानि साजै । छाह न और; ओहि पै छाजै॥

बिनवहिं सुखी गहरु का कीजै । जेइ जिउ दीन्ह ताहि जिउ दीजै॥

सँवरि सेज धानि मन भइ संका । ठाढ़ि तेवानि टेकि कर लंका॥

अनचिन्ह पिउ, कापौं मन माहाँ । का मैं कहब गहब जौ बाहाँ॥

बारि बैस गइ प्रीति न जानी । तरुनि भई मैमंत भुलानी॥

जोबन गरब न मैं किछु चेता । नेह न जानौं सावँ कि सेता॥

अब सो कंत जो पूछिहिं बाता । कस मुख होइहि पीत की राता॥

हौं बारी औ दुलहिनि, पीउ तरुन सह तेज।

ना जानौं कस होइहि, चढ़त कंत के सेज॥11॥

सुनु धानि! डर हिरदय तब ताईं । जौ लगि रहसि मिलै नहिं साईं॥

कौन कली जो भौंर न राई । डार न टूट पुहुप गरुआई॥

मातु पिता जौ बियाहै सोई । जनम निबाह कंत सँग सोई॥

भरि जीवन राखै जहँ चहा । जाइ न मेंटा ताकर कहा॥

ताकहँ बिलँब न कीजै बारी । जो पिउ आयसु सोइ पियारी॥

चलहु बेगि आय सु भा जैसे । कंत बोलाबै रहिए कैसे॥

मान न करसि पोढ़ कर लाडू । मान करत रिस मानै चाडू॥

साजन लेइ पठावा, आयसु जाइ न मेट।

तन मन जोबन, साजि के, देह चली लेइ भेंट॥12॥

पदमिनि गवन हंस गए दूरी । कुंजर लाज मेल सिर धाूरी॥

बदन देखि घटि चंद छपाना । दसन देखि कँ बीजु लजाना॥

खंजन छपे देखि कै नैना । कोकिल छपी सुनत मधाु बैना॥

गीव देखि कै छपा मयूरू । लंक देखि कै छपा सदूरू॥

भौंहन्ह धानुक छपा आकारा । बेनी बासुकि छपा पतारा॥

खड़ग छपा नासिका बिसेखी । अमृत छपा अधार रस देखी॥

पहुँचहिं छपी कवँल पौनारी । जंघ छपा कदली होइ बारी॥

अछरी रूप छपानी, जबहिं चली धानि साजि।

जावत गरब गहेली, सबै छपीं मन रागि॥13॥

मिलीं गोहने सखी तराईं । लेइ चाँद सूरज पहँ आईं॥

पारस रूप चाँद देखराई । देखत सूरुज गा मुरछाई॥

सोरह कला दिस्टि ससि कीन्ही । सहसौ कला सुरुज कै लीन्ही॥

भा रबि अस्त, तराई हँसी । सूर न रहा, चाँद परगसी॥

जोगी आहि न भोगी होई । खाइ कुरकुटा गा पै सोई॥

पदमावति जसि निरमल गंगा । तू जो कंत जोगी भिखमंगा॥

आइ जगावहिं 'चेला जागै । आवा गुरु, पायँ उठि लागै'॥

बोलहिं सबद सहेली, कान लागि गहि माथ।

गोरख आइ ठाढ़ भा, उठु रे चेला नाथ॥14॥

सुनि यह सबद अमिय अस लागा । निद्रा टूटि, सोइ अस जागा1॥

गही बाँह धानि सेजबाँ आनी । अंचल ओट रही छपि रानी॥

सकुचै डरै मनहि मन बारी । गहु न बाँह, रे जोगि भिखारी?॥

ओहट होसि, जोगि! तोरि चेरी । आवै बास कुरकुटा केरी॥

देखि भभूति छूति मोहिं लागै । काँपै चाँद सूर सौं भागै॥

जोगि तोरि तपसी कै काया । लागि चहै मोरे ऍंग छाया॥

बार भिखारि न माँगसि भीखा । माँगै आइ सरग पर सीखा॥

जोगि भिखारी कोई, मँदिर न पैठै पार।

माँगि लेहु किछु भिच्छा, जाइ ठाढ़ होइ बार॥15॥

मैं तुम्ह कारन पेम पियारी । राज छाँड़ि कै भएउँ भिखारी॥

नेह तुम्हारा जो हिये समाना । चितउर सौं निसरेउँ होइ आना॥

जस मालति कहँ भौंर बियोगी । चढ़ा बियोग, चलेउँ होइ जोगी॥

भौंर खोजि जस पावै केवा । तुम्ह कारन मैं जिउ पर छेवा॥

भएउँ भिखारि नारि तुम्ह लागी । दीप पतंग होइ ऍंगएउँ आगी॥

एक बार मरि मिलै जो आई । दूसरि बार मरै कित जाई।

कित तेहि मीचु जो मरि कै जीया ? भा सो अमर, अमृत मधाुपीया॥

भौंर जो पावै कँवल कहँ, बहु आरति बहु आस।

भौंर होइ नेवछावरि, कँवल देइ हँसि बास॥16॥

अपने मुँह न बड़ाई छाजा । जोगी कतहुँ होहिं नाहि राजा॥

हौं रानी, तू जोगि भिखारी । जोगिहि भोगहि कौन चिन्हारी?॥

जोगी सबै छंद अस खेला । तू भिखारि तेहि माहिं अकेला॥

पौन बाँधिा अपसवहिं अकासा । मनसहिं जाहिं ताहि के पासा॥

एही भाँति सिस्टि सब छरी । एही भेखे रावन सिय हरी।

भौंरहिं मीचु नियर जब आवा । चंपा बास लेइ कहँ धाावा॥

दीपक जोति देखि उजियारी । आइ पाँखि होइ परा भिखारी॥

रैन सो देखै चँदमुख, ससि तन होइ अलोप।

तुहँ जोगी तस भूला, करि राजा कर ओप॥17॥

अनु, धानि तू निसिअर निसि माहाँ । हौं दिनिअर जेहि कै तूछाहाँ॥

चाँदहि कहाँ जोति औ करा । सुरुज के जोति चाँद निरमरा॥

भौंर बास चंपा नहिं लेई । मालति जहाँ तहाँ जिउ देई॥

तुम्ह हुँत भएउँ पतँग कै करा । सिंघलदीप आइ उड़ि परा॥

सेएऊँ महादेव कर बारू । तजा अन्न भा पवन अहारू॥

अस मैं प्रीति गाँठि हिय जोरी । कटै न काटे, छुटै न छोरी॥

सीतै भीखि रावनहिं दीन्हीं । तूँ असि निठुर ऍंतरपट कीन्ही॥

रंग तुम्हारेहि रातेऊँ, चढ़ेउँ गगन होइ सूर।

जहँ ससि सीतल तहँ तपौं, मन हींछा, धानि! पूर ॥18॥

जोगि भिखारि!करसिबहुबाता । कहसि रंग देखौं नहिं राता॥

कापर रँगे रंग नहिं होई । उपजै औटि रंग भल सोई॥

चाँद के रंग सुरुज जस राता । देखै जगत साँझ परभाता॥

दगधिा बिरह निति होइ ऍंगारा । ओही ऑंच धिाकै संसारा॥

जो मजीठ औटै बहु ऑंचा । सो रँग जनम न डोलै राँचा॥

जरै बिरह जस दीपक बाती । भीतर जरै उपर होइ राती॥

जरि परास होइ कोइल भेसू । तब फलै राता होइ टेसू॥

पान, सुपारी, खैर जिमि, मेरइ करै चकचून।

तौ लगि रंग न राँचै, जौ लगि होइ न चून॥19॥

का धानि! पान रंग, का चूना । जेहि तन नेह दाधा तेहि दूना॥

हौं तुम्ह नेह पियर भा पानू । पेड़ी हुँत सोनरास बखानू॥

सुनि तुम्हार संसार बड़ौना । जोगि लीन्ह, तन कीन्ह गड़ौना॥

करहिं जो किंगरी लेइ बैरागी । नौती होइ बिरह कै आगी॥

फेरि फेरि तन कीन्ह भुँजौना । औटि रकत रँग हिरदय औना॥

सूखि सोपारी भा मन मारा । सिरहिं सरौता करवत सारा॥

हाड़ चून भा बिरहहि दहा । जानै सोइ जो दाधा इमि सहा॥

सोई जान वह पीरा, जेहि दुख ऐस सरीर।

रकत पियासा होइ जो, का जानै पर पीर?॥20॥

जोगिन्ह बहुत छंद न ओराहीं । बूँद सेवाती जैस पराहीं॥

परहिं भूमि पर होइ कचूरू । परहिं कदलि पर होइ कपूरू॥

परहिं समुद्र खार जल ओहीं । परहिं सीप तो मोती होहीं॥

परहिं मेरु पर अमृत होई । परहिं नागमुख बिष होइ सोई॥

जोगी भौंर निठुर ए दोऊ । केहि आपन भए? कहै जी कोऊ॥

एक ठाँव ए थिर न रहाहीं । रस लेइ खेलि अनत कहुँ जाहीं॥

होइ गृही पुनि होइ उदासी । अंत काल दूबौ बिसवासी॥

तेहि सौं नेह का दिढ़ करै? रहहिं न एकौ देस।

जोगी, भौंर, भिखारी, इन्ह सौं दूरि अदेस॥21॥

थल थल नग न होहिं जेहि जोती । जल जल सीप न उपनहिंमोती॥

बन बन बिरिछ न चंदन होई । तन तन बिरह न उपनै सोई॥

जेहि उपना सो औटि मरि गयऊ । जनम निनार न कबहूँ भयेऊ॥

जल अंबुज, रवि रहै अकासा । जौं इन्ह प्रीति जानु एक पासा॥

जोगी भौंर जो थिर न रहाहीं । जेहि खोजहिं तेहि पावहिं नाहीं॥

मैं तोहि पायउँ आपन जीऊ । छाँड़ि सेवाति न आनहिं पीऊ॥

भौंर मालती मिलै जौ आई । सो तजि आन फूल कित जाई?॥

चंपा प्रीति न भौंरहि, दिन दिन आगरि बास।

भौंर जो पावै मालती, मुएहु न छाँड़ै पास॥22॥

ऐसे राजकुँवर नहीं मानौं । खेलु सारि पाँसा तब जानौं।

काँचे बारह परा जो पाँसा । पाके पैंत परी तनु रासा1॥

रहै न आठ अठारह भाखा । सोरह सतरह रहैं त राखा॥

सत जो धारै सो खेलनहारा । ढारि इगारह जाइ न मारा॥

तूँ लीन्हे आछसि मन दूवा । ओ जुग सारि चहसि पुनि छूवा॥

हौं नव नेह रचौं तोहि पाहाँ । दसवँ दाँव तोरे हिय माहाँ॥

तौ चौपर खेलौं करि हिया । जौ तरहेल होइ सौतिया॥

जेहि मिलि बिछुरन औ तपनि, अंत होइ जौ निंत।

तेहि मिलि गंजन को सहैे? बरु बिनु मिलै निचिंत॥23॥

बौलौं रानि! बचन सुनु साँचा । पुरुष क बोल सपथ औ बाचा॥

यह मन लाएउँ तोहिं अस नारी । दिन तुइ पासा औ निसि सारी॥

पौ परि बारहि बार मनाएउँ । सिर सौं खेलि पैंत जिउ लाएउँ॥

हौं अब चौक पँज तें बाँची । तुम्ह बिचगोट न आवहि काँची॥

पाकि उठाएउँ आस करीता । हौं जिउ तोहि हारा, तुम जीता॥

मिलि कै जुग नहिं होहु निनारी । कहाँ बीच दूती देनिहारी॥

अब जिउ जनम जनम तोहि पासा । चढ़ेउँ जोग, आएउँ कविलासा॥

जाकर जीव बसै जेहि, तेहि पुनि ताकरि टेक।

कनक सोहाग न बिछुरै, औटि मिलै होइ एक॥24॥

बिहँसी धानि सुनि कै सत बाता । निहचय तू मोरे रँग राता॥

निहचय भौंर कँवल रस रसा । जो जेहि मन सो तेहि मन बसा॥

जब हीरामन भएउ सँदेसी । तुम्ह हुँत मँडप गइउँ परदेसी॥

तोर रूप तस देखेउँ लोना । जनु, जोगी! तू मेलेसि टोना॥

सिधिा गुटिका जो दिस्टि कमाई । पारहिं मेलि रूप बैसाई॥

भुगुति देइ कहँ मैं तोहि दीठा । कँवल नैन होइ भौंर बईठा॥

नैन पुहुप, तू अलि भा सोभी । रहा बेधिा अस, उड़ा न लोभी॥

जाकरि आस होइ जेहि, तेहि पुगि ताकरि आस।

भौंर जो दाधाा कँवल कहँ, कस न पाव सो बास?॥25॥

कौन मोहनी दहुँ हुति तोही । जो तोहि बिथा सो उपनो मोही॥

बिनु जल मीन तलफ जस जीऊ । चातकि भयउँ कहत 'पिउपीऊ'॥

जरिऊँ बिरह जस दीपक बाती । पंथ जोहत भइ सीप सेवाती॥

डाढ़ि डाढ़ि जिमि कोयल भई । भइउँ चकोरि, नींद निसि गई॥

तोरे पेम पेम मोहिं भयऊ । राता हेम अगिनि जिम तयऊ॥

हीरा दिपै जौ सूर उदोती । नाहिं त कित पाहन कहँ जोती!॥

रवि परगासे कँवल बिगासा । नाहिं तकितमधाुकर,कित बासा॥

तासौं कौन ऍंतरपट, जो अस पीतम पीउ।

नेवछावरि अब सारौं तन, मन जोबन, जीउ॥26॥

हँसि पदमावति मानी बाता । निहचय तू मोरे रँगराता॥

तू राजा दुहुँ कुल उजियारा । अस कै चरचिउँ मरम तुम्हारा॥

पै तूँ जंबूदीप बसेरा । किमि जानेसि कस सिंघल मोरा?॥

किमि जानेसि सो मानसर केवा । सुनि सो भौंर भा, जिउ परछेवा॥

ना तुइ सुनी, न कबहूँ दीठी । कैस चित्रा होइ चितहि पईठी?॥

जौ लहि अगिनि करै नहिं भेदू । तौ लहि औटि चुवै नहिं मेदू॥

कहँ संकर तोहि ऐस लखावा? । मिला अलख अस पेम चखावा॥

जैहि कर सत्य सँघाती, तेहि कर डर सोइ मेट।

सो सत कहु कैसे भा, दुवौ भाँति जो भेंट॥27॥

सत्य कहौं सुनु पदमावती । जहँ सत पुरुष तहाँ सुरसती॥

पायउँ सुवा, कही वह बाता । भा निहचय देखत मुख राता॥

रूप तुम्हार सुनेउँ अस नीका । ना जेहि चढ़ा काहु कहँ टीका॥

चित्रा किएउँ पुनि लेइ लेइ नाऊँ । नैनहि लागि हिये भा ठाऊँ॥

हौं भा साँच सुनत ओहि घड़ी । तुम होइ रूप आइ चित चढ़ी॥

हौं भा काठ मूर्ति मन मारे । चहै जो कर सब हाथ तुम्हारे॥

तुम्ह जौ डोलाइहु तबहीं डोला । मौन सांस जौ दोन्ह तौ बोला॥

को सोवै को जागै? अस हौं गएउँ बिमोहि।

परगट गुपुत न दूसर, जहँ देखौं तहँ तोहि॥28॥

बिहँसी धानि सुनि कै सत भाऊ । हौं रामा तू राबन राऊ॥

रहा जो भौंर कँवल के आसा । कस न भोग मानै रस बासा?॥

जस सत कहा कुँवर! तू मोही । तस मन मोर लाग पुनि तोही॥

जव हुँत कहि गा पंखि सँदेसी । सुनिउँ कि आवा है परदेसी॥

तब हुँत तुम बिनु रहै न जीऊ । चातक भइउँ कहत 'पिउ पीऊ'॥

भइउँ चकोरि सो पंथ निहारी । समुद सीप जस नैन पसारी॥

भइउँ बिरह दहि कोइल कारी । डार डार जिमि कूकि पुकारी॥

कौन सो दिन जब पिउ मिलै, यह मन राता तासु।

वह दुख देखै मोर सब, हौं दुख देखौं तासु॥29॥

कहि सत भाव भई कँठलागू । जनु कंचन औ मिला सोहागू॥

चौरासी आसन पर जोगी । खट रस, बंधाक चतुर सो भोगी॥

कुसुममाल असि मालति पाई । जनु चंपा गहि डार ओनाई॥

कली बेधिा जनु भँवर भुलाना । हना राहु अरजुन के बाना॥

कंचन करी जरी नग जोती । बरमा सौं बेधाा जनु मोती॥

नारँग जाति कीर नख दिए । अधार आमरस जानहुँ लिए॥

कौतुक केलि करहिं दुख नंसा । खूँदहिं कुरलहिं जनु सर हंसा॥

रही बसाइ बासना, चोवा चंदन मेद।

जेहि अस पदमिनि रानी, सो जानै यह भेद॥30॥

रतनसेन सो कंत सुजानू । खटरस पंडित सोरह बानू॥

तस होइ मिले पुरुष औ गोरी । जैसी बिछुरी सारस जोरी॥

रची सारि दूनौ एक पासा । होइ जुग जुग आवहिं कविलासा॥

पिय धानि गही, दीन्हि गलबाहीं । धानि बिछुरी लागी उर माहीं॥

ते छकि रस नव केलि करेहीं । चोका लाइ अधार रस लेहीं?॥

धानि नौ सात, सात औ पाँचा । पूरुष दस ते रह किमि बाँचा?॥

लीन्ह बिधाांसि बिरह धानि साजा । औ सब रचन जीत हुत राजा॥

जनहुँ औटि कै मिलि गए, तस दूनौ भए एक।

कंचन कसत कसौटी, हाथ न कोऊ टेक॥31॥

चतुर नारि चित अधिाक चिहुँटी । जहाँ पेम बाढ़ै किमि छूटी॥

कुरला काम केरि मनुहारी । कुरला जेहिं नहिं सो न सुनारी॥

कुरलहि होइ कंत कर तोखू । कुरलहि किए पाव धानि मोखू॥

जेहि कुरला सो सोहाग सुभागी । चंदन जैस साम कँठ लागी॥

गेंद गोद कै जानहु लई । गेंद चाहि धानि कोमल भई॥

दारिउँ, दाख, बेल रस चाखा । पिय के खेल धानि जीवन राखा॥

भएउ बसंत कली मुख खोली । बैन सोहावन कोकिल बोली॥

पिउ पिउ करत जो सूखि रहि, धानि चातक की भाँति।

परी सो बूँद सीप जनु, मोती होइ सुख साँति॥32॥

भएउ जूझ जस रावन रामा । सेज बिधााँसि बिरह संग्रामा॥

लीन्हि लंक, कंचन गढ़ टूटा । कीन्ह सिंगार अहा सब लूटा॥

औ जोबन मैमंत बिधााँसा । बिचला बिरह जीउ जो नासा॥

टूटे अंग अंग सब भेसा । छूटी माँग, भंग भए केसा॥

कंचुकि चूर, चूर भइ तानी । टूटे हार, मोति छहरानी॥

बारी, टाँण सलोनी टूटी । बाँहू कंगन कलाई फूटी॥

चंदन अंग छूट अस भेंटी । बेसरि टूटि, तिलक गा मेटी॥

पुहुप सिंगार सँवार सब, जोबन नवल बसंत।

अरगज जिमि हिय लाइ कै, मरगज कीन्हेउ कंत॥33॥

बिनय करै पदमावति वाला । सुधिा न, सुराही पिएउ पियाला॥

पिउ आयसु माथे पर लेऊँ । जो माँगै नइ नइ सिर देऊँ॥

पै, पिय! बचन एक सुनु मोरा । चाखु पिया! मधाु थोरै थोरा॥

पेम सुरा सोई पै पिया । लखै न कोइ कि काहू दिया॥

चुवा दाख मधाु जो एक बारा । दूसरि बार लेत बेसँभारा॥

एक बार जो पी कै रहा । सुख जीवन, सुख भोजन लहा॥

पान फूल रस रंग करीजै । अधार अधार सौं चाखा कीजै॥

जो तुम चाहौ सो करौं, ना जानौं भल मंद।

जो भालै सो होइ मोहिं, तुम्ह पिउ! चहौं अनंद॥34॥

सुनु, धानि! पेम सुरा के पिए । मरन जियन डर रहै न हिए॥

जेहि मद तेहि कहाँ संसारा । की सो धाूमि रह, की मतवारा॥

सो पै जान पिये जो कोई । पी न अघाइ, जाइ परि सोई॥

जा कहँ होइ बार एक लाहा । रहै न ओहि बिनु, ओही चाहा॥

अरथ दरब सो देह बहाई । की सब जाहु, न जाइ पियाई॥

रातिहु दिवस रहै रस भीजा । लाभ न देख, न देखै छीजा॥

भोर होत तब पलुह सरीरू । पाव खुमारी सीतल नीरू॥

एक बार भरि देहु पियाला, बार बार को माँग?।

मुहमद किमि न पुकारै, ऐसे दाँव जो खाँग?॥35॥

भा बिहान ऊठा रवि साईं । चहुँ दिसि आईं नखत तराईं॥

सब निसि सेज मिला ससि सूरू । हार चीर बलया भए चूरू॥

सो धानि पान, चून भइ चोली । रंग रंगीली निरंग भइ भोली॥

जागत रैनि भएउ भिनसारा । भई अलस सोवत बेकरारा॥

अलक सुरंगिनि हिरदय परी । नारँग छुव नागिनि बिष भरी॥

लरी मुरी हिय हार लपेटी । सुरसरि जनु कालिंदी भेंटी॥

जनु पयाग अरइल बिच मिली । सोभित बेनी रोमावली॥

नाभी लाभु पुन्नि कैं, कासीकुंड कहाव।

देवता करहिं कलप सिर, आपुहि दोष न लाव॥36॥

बिहँसि जगावहिं सखी सयानी । सूर उठा, उठु पदमावति रानी॥

सुनत सूर जनु कँवल बिगासा । मधाुकर आइ लीन्ह मधाु बासा॥

जनहुँ माति निसयानी बसी । अति बेसँमार फूलि जनु अरसी॥

नैन कँवल जानहुँ दुइ फूले । चितवनि मोहि मिरिग जनु भूले॥

तन न सँभार कस औ चोली । चित अचेत जनु बाउरि भोली॥

भइ ससि हीन गहन अस गही । बिथुरे नखत, सेज भरि रही॥

कँवल माँह जनु केसरि दीठी । जोबन हुत सो गँवाइ बईठी॥

बेलि जो राखी इंद्र कहँ, पवन बास नहिं दीन्ह।

लागेउ आइ भौंर तेहि, कली बेधिा रस लीन्ह॥37॥

हँसि हँसि पूछहिं सखी सरेखी । मानहुँ कुमुद चंद्रमुख देखी॥

रानी! तुम ऐसी सुकुमारा । फूल बास तन जीव तुम्हारा॥

सहि नहिं सकहु हिये पर हारू । कैसे सहिउ कंत कर भारू?॥

मुख अंबुज बिगसै दिन राती । सो कुँभिलान कहहु केहि भाँती?॥

अधर कँवल जो सहा न पानू । कैसे सहा लाग मुख भानू?॥

लंक जो पैग देत मुरि जाई । कैसे रही जो रावन राई?॥

चंदन चोव पवन अस पीऊ । भइउ चित्रा सम, कस भा जीऊ?॥

सब अरगज मरगज भयउ, लोचन बिंब सरोज।

'सत्य कहहु पदमावति' सखी परीं सब खोज॥38॥

कहौं सखी! आपन सतभाऊ । हैं जो कहति कस रावन राऊ॥

काँपी भौंर पुहुप पर देखे । जनु ससि गहन तैस मोहिं लेखे॥

आजु मरम मैं जाना सोई । जस पियार पिउ और न कोई॥

डर तौ लगि हिय मिला न पीऊ । भानु के दिस्टि छूटि गा सीऊ॥

जत खन भानु कीन्ह परगासू । कँवल कली मन कीन्ह बिगासू॥

हिये छोह उपना औ सीऊ । पिउ न रिसाउ लेउ बरु जीऊ॥

हुत जो अपार बिरह दुख दूखा । जनहुँ अगस्त उदय जल सूखा॥

हौं रँग बहुतै आनति, लहरैं जैस समुंद।

पै पिउ कै चतुराई, खसेउ न एकौ बुँद॥39॥

करि सिंगार तापहँ का जाऊँ । ओही देखहुँ ठाँवहिं ठाँऊँ॥

जौ जिउ मँह तौ उहै पियारा । तन मन सौं नहिं होइ निनारा॥

नैन माँह है उहै समाना । देखौ तहाँ नाहिं कोउ आना॥

आपन रस आपुहि पै लेई । अधार सोइ लागे रस देई॥

हिया थार कुच कंचन लाडू । अगमन भेंट दीन्ह कै चाँड़ू॥

हुलसी लंक लंक सौं लसी । रावन रहसि कसौटी कसी॥

जोबन सबै मिला ओहि जाई । हौं रे बीच हुँत गइउँ हेराई॥

जस किछु देह धारै कहँ, आपन लेइ सँभारि॥

रहसि गारि तस लीन्हेसि, कीन्हेसि मोहि ठँठारि॥40॥

अनु रे छबीली! तोहि छबि लागी । नैन गुलाल कंत सँग जागी॥

चंप सुदरसन अस भा सोई । सोनजरद जस केसर होई॥

बैठ भौंर कुच नारँग बारी । लागे नख, उछरीं रँग धाारी॥

अधार अधार सों भीज तमोरा । अलकाउर मुरि मुरि गा तोरा॥

रायमुनी तुम औ रतमुहीं । अलिमुख लागि भई फुलचुहीं॥

जैस सिंगार हार सौं मिली । मालति ऐसि सदा रहु खिलीं॥

पुनि सिंगार करु कला नेवारी । कदम सेवती बैठु पियारी॥

कुंद कली सम बिगसी, ऋतु बसंत औ फाग।

फूलहु फरहु सदा सुख, औ सुख सुफल सोहाग॥41॥

कहि यह बात सखी सब धााईं । चंपावति पहँ जाइ सुनाईं॥

आजु निरँग पदमावति बारी । जीवन जानहुँ पवन अधाारी॥

तरकि तरकि गइ चंदन चोली । धारकि धारकि हिय उठै न बोली॥

अही जो कली कँवल रसपूरी । चूर चूर होइ गईं सो चूरी॥

देखहु जाइ जैसि कुँभिलानी । सुनि सोहाग रानी बिहँसानी॥

सेइ सँग सबही पदमावति नारी । आई जहँ पदमावति बारी॥

आइ रूप सो सबही देखा । सोनबरन होइ रही सो रेखा॥

कुसुम फूल जस मरदै, निरंग देख सब अंग।

चंपावति भइ बारी, चूम केस औ मंग॥42॥

सब रनिवास बैठ चहुँ पासा । ससि मंडल जनु बैठ अकासा॥

बोलीं सबै बारि कुँभिलानी । करहु सँभार, देहु खड़वानी॥

कँवल कली कोमल रँग भीनी । अति सुकुमारि, लंक कै छीनी॥

चाँद जैस धानि हुत परगासा । सहस करा होइ सूर बिगासा॥

तेहिके झार गहन अस गही । भई निरंग, मुख जोति न रही॥

दरब वारि किछु पुन्नि करेहू । औ तेहि लेइ संन्यासिहि देहू॥

भरि कै थार नखत गजमोती । वारा कीन्ह चंद कै जोती॥

कीन्ह अरगजा मरदन, औ सखि कीन्ह नहानु।

पुनि भइ चौदस चाँद सो, रूप गएउ ठपि भानु॥43॥

पुनि बहु चीर आन सब छोरी । सारी कंचुकि लहर पटोरी॥

फुँदिया और कसनिया राती । छायल बँद लाए गुजराती॥

चिकवा चीर मघौना लोने । मोति लाग औ छापे सोने॥

सुरँग चीर भल सिंघलदीपी । कीन्ह जो छापा धानि वह छीपी॥

पेमचा डरिया औ चौधाारी । साम, सेत, पीयर, हरियारी॥

सात रंग औ चित्रा चितेरे । भरि कै दीठि जाहिं नहिं हेरे॥

चँदनौता औ खरदुक भारी । बाँसपूर झिलमिल कै सारी॥

पुनि अभरन बहु काढ़ा, अनबन भाँति जराव।

हेरि फेरि नित पहिरै, जब जैसे मन भाव॥44॥

(1) पालक=पलँग। डासी=बिछाई। गेंडुआ=तकिया। गलसूई=गाल के नीचे रखने का छोटा तकिया। काँची=गोटा पट्टा। पौढ़ि=लेटकर। सुकुवाँरि=कोमल।

(2) तपत=तप करते हुए। चारू चार=रीति, चाल। हरदि उतारि=ब्याह के लग्न में शरीर में जो हल्दी लगती है उसे छुड़ाकर। रंगू=अंगराग। छरा=ठगा गया, खोया। कर=हाथ से। टूटि भइ=घाटा हुआ, हानि हुई। ठगलाडू=विष या नशा मिला हुआ लड्डू जिसे पथिकों को खिलाकर ठग लोग बेहोश करते थे।

(3) चाँद रहा...तराईं=पिर्निंी तो रह गई, केवल उसकी सखियाँ ही दिखाई पड़ीं। निरधाातु=निस्सार। बिरवा लोना=(क) अमलोनी नाम की घास जिसे रसायनी धाातु सिध्द करने के काम में लाते हैं। (ख) सुंदर वल्ली, पदमावती। रूप=(क) रूपा। (ख) चाँदी। कौड़िया=कौड़िल्ला पक्षी जो मछली पकड़ने के लिए पानी के ऊपर मँडराता है।

(4) निछोही=निष्ठुर। जो...ओही=जो उस गुरु (पदमावती) को तुमने छिपा दिया है। राँग=राँगा। जोरा कै=(क) एक बार जोड़ी मिलाकर? (ख) तोले भर राँगे और तोले भर चाँदी का दो तोले चाँदी बनाना रसायनियों की बोली में जोड़ा करना कहलाता है।

(5) का बसाइ=क्या वश चल सकता है? बाज=बिना। वर=बल।

(6) तपा=तपस्वी। जनि लेसी=न ले। दैउ मनाउ....ओहु=ईश्वर को मना कि उसे (पदमावती को) भी वैसी ही दया हो जैसी हम लोगों को तुझपर आ रही है।

(7) फूल=नाक में पहनने की लौंग। छुद्रावलि=क्षुद्रघंटिका, करधानी। चूरा=कड़ा। चौक चार=चार का समूह। कुलीन=उत्ताम। सुभर=शुभ्र।

(8) सँवारै=शृंगार को। पत्राावली=पत्राभंग रचना। दुइज=दूज का चंद्रमा। सुहल=सुहेल (अगत्स्य) तारा जो दूज के चंद्रमा के साथ दिखाई पड़ता है और अरबी फारसी काव्य में प्रसिध्द है। खूँट=कान का एक चक्राकार गहना। मानहुँ दरपन...देखाव=मानो आकाश रूपी दर्पण में जो चंद्रमा और तारे दिखाई पड़ते हैं वे इसी पदमावती के प्रतिबिंब हैं।

1. ग्रंथों में जो बारह आभरण गिनाए गए हैं वे ये हैं-नूपुर, किंकिणी, वलय, ऍंगूठी, कंकण, अंगद, हार, कंठश्री, बेसर, खूँट या बिरिया, टीका, सीसफूल। आभरणों के चार भेद कहे गए हैं-आबेधय, बंधानीय, क्षेप्य (जैसे कड़ा, ऍंगूठी) और आरोप्य (जैसे, हार)। जायसी ने सोलह शृंगार और बारह आभरण की बातें लेकर एक में गड़बड़ कर दिया है।

(9) खंजन....देखा=पदमावती का मुख चंद्र शरद के पूर्ण चंद्र के समान होकर शरद ऋतु का आभास देता है। हेर=ताकती है। धानुक=इंद्रधानुष। ओनवा=झुका, पड़ा। काल कस्ट...लागि=विरह कहता है कि यह कालकष्ट आ पड़ा सब मेरे ही जी के लिए।

(10) मारा=माला। झाँपी=ढाँक दिया। उभे=उठे हुए। बहुँटा और टाँड़=बाँह पर पहनने के गहने। पायल=पैर का एक गहना। अनवट=ऍंगूठे का एक गहना। समदहु मिलो=आलिंगन करो।

(11) गहरु=देर, विलंब। सँवरि=स्मरण करके। तेवानि=सोच या चिंता में पड़ गई। अनचिन्ह=अपरिचित। साँव=श्याम। पूछिहि=पूछेगा।

(12) राई=अनुरक्त हुई। डार न टूट...गरुआई=कौन फूल अपने बोझ से ही डाल से टूटकर न गिरा। पोढ़=पुष्ट। लाडू=लाड़, प्यार, प्रेम। चाड़ू=गहरी चाहवाला। साजन=पति।

(13) मेल=डालता है। सदूरू=शार्दूल, सिंह। पहुँचा=कलाई। पौनारी=पनर्िांल। खड़ग छपा=तलवार छिपी (म्यान में)। बारी होइ=बगीचे में जाकर। गरब गहेली=गर्व धाारण करनेवाली।

1. पाठांतर-गोरख सबद सिध्द भा राजा। राजा सुनि रावन होइ गाजा॥

(14) गोहने=साथ में। कुरकुटा=अन्न का टुकड़ा; मोटा रूखा अन्न। पै=निश्चयवाचक, ही। नाथ=जोगी (गोरखपंथी साधाु नाथ कहलाते हैं।)

(15) बार=द्वार। पैठे पार=घुसने पाता है।

(16) होइ आना=अन्य अर्थात् योगी होकर। केवा=कमल। छेवा=फेंका, डाला (सं. क्षेपण), या खेला। ऍंगएउँ=ऍंगेजा, शरीर पर सहा।

(17) चिन्हारी=जान-पहचान। छंद=कपट, धाूर्तता। तेहि माहिं अकेला=उनमें एक ही धाूर्त है। अपसवहिं=जाते हैं। मनसहिं=मन में धयान या कामना करते हैं।

(18) निसिअर=निशाकर, चंद्रमा। अनु=(अव्य.) फिर, आगे। करा=कला। तुम्ह हुँत=तुम्हारे लिए। पतँग कै करा=पतंग के रूप का। बारू=द्वार।

(19) देखैं जगत...परभाता=संध्या सवेरे जो ललाई दिखाई पड़ती है। धिाकै=तपता है। मजीठ=साहित्य में पक्के राग या प्रेम को मंजिष्ठा राग कहते हैं। जनम न डोलै=जन्म भर नहीं दूर होता। चकचून करै=चूर्ण करे। चून=चूना पत्थर या कंकड़ जलाकर बनाया जाता है।

(20) पेड़ी हुँत=पेड़ी ही से, जो पान डाल या पेड़ी में ही पुराना होता है, उसे भी पेड़ी ही कहते हैं। सोनरास=पका हुआ सफेद या पीला पान। बड़ौना=(क) बड़ाई। (ख) एक जाति का पान। गड़ौना=एक प्रकार का पान जो जमीन में गाड़कर पकाया जाता है। नौती=नूतन, ताजा। भुँजौना कीन्ह=भूना। औना=आता है, आ सकता है।

(21) ओराहीं=चुकते हैं। छंद=छल, चाल। कचूर=हलदी की तरह का एक पौधाा। दूरि अदेस=दूर ही से प्रणाम।

(22) न आनहिं पीऊ=दूसरा जल नहीं पीता। आगरि=अधिाक।

(23) सारी=गोटी।पैंत=दाँव। रास=ठीक। (ख) ग्यारह का दाँव। दूबा=(क) दुविधाा, (ख) दो कादावँ। जुग सारि=(क) दो गोटियाँ, (ख) कुच। दसबँ दाँव=(क) दसवाँ दाँव। (ख) अंत तक पहुँचाने वाली चाल। तरहेल=अधाीन, नीचे पड़ा हुआ। सौतिया=(क) तिया, एक दाँव। (ख) सपत्नी। गंजन=नाश, दु:ख।

1. पाठांतर-काँचै बारहि बार फिरासी। पाँके पौ फिर थिर न रहासी॥ सत=(क) सात का दाँव।
(ख) सत्य। इगारह=(क) दस इंद्रियाँ और मन।

(24) बाचा=प्रतिज्ञा।पैंत लाएउँ=दाँव पर लगाया। चौक पंज=(क) चौका पंजा दाँव। (ख) छल कपट, छक्का पंजा। तुम्ह बिच...काँची=कच्ची गोटी तुम्हारे बीच नहीं पड़ सकती। पाकि=पक्की गोटी। जुग निनारा होना=(क) चौसर में जुग फूटना। (ख) जोड़ा अलग होना। कहाँ बीच...देनिहारी=मधयस्थ होने वाली दूती की कहाँ आवश्यकता रह जाती है।

(25) सँदेसी=संदेसा ले जाने वाला। तुम्ह हुँत=तुम्हारे लिए। रूप=(क) रूपा, चाँदी। (ख) स्वरूप। बैसाई=बैठाया, जमाया। कँवल नैन...बईठा= मेरे नेत्रा कमल में तू भौंरा (पुतली के समान) होकर बैठ गया। कँवल कहँ=कमल के लिए।

(27) चरचिउँ=मैंने भाँपा (स्त्राी. क्रिया)। बसेरा=निवासी। केवा=कमल। छेवा=डाला या खेला।

(28) नैनहिं लागि=ऑंखों से लेकर। साँच=(क) सत्य स्वरूप (ख) साँचा। रूप=(क) रूप, (ख) चाँदी।

(29) रावन=(क) रमण करने वाला। (ख) रावण। जब हुँत=जब से। सुनिउँ=मैंने सुना (स्त्राी. क्रिया)। तब हुँत=तब से।

(30) चौरासी आसन=योग के और कामशास्त्रा के। बंधाक=कामशास्त्रा के बंधा। औनाई=झुकाई। राहु=रोहू मछली। बरमा=छेद करने का औजार। नंसा करहिं=नष्ट करते हैं। खूंदहि=कूदते हैं। कुरलहिं=हंस आदि के बोलने को कुरलना कहते हैं।

(31) बानू=वर्ण, दीप्ति, कला। गोरी=स्त्राी। सारि=चौपड़। चोका=चुहका, चूसने की क्रिया या भाव। चोका लाइ=चूसकर। नौ सात=सोलह शृंगार। सात औ पाँचा=बारह आभरण। पूरुष...बाँचा=वे शृंगार और आभरण पुरुष की दस उँगलियों से कैसे बचे रह सकते हैं।

(32) चिहूँटी=चिमटी। कुरला=क्रीड़ा। मनुहारी=शांति, तृप्ति। मोखू=मोक्ष, छुटकारा। चाहि=अपेक्षा, बनिस्बत।

(33) बिधााँसि=विधवंस की गई, बिगड़ गई। जीउ जो नासा=जिसने जीव की दशा बिगाड़ रखी थी। तानी=तनी, बँद। बारी=बालियाँ। अरगज=अरगजा नामक सुगंधा द्रव्य जिसका लेप किया जाता है। मरगज=मला, दला हुआ।

(34) नइ=नवाकर।

(35) जाइ परि सोई=पड़कर सो जाता है। छीजा=क्षति, हानि। पलुह=पनपता है। खाँग=कमी हुई।

(36) रवि=सूर्य और रत्नसेन। साईं=स्वामी। नखत तराई=सखियाँ। बलया=चूड़ी। पान=पके पान सी सफेद या पीली। चून=चूर्ण। निरँग=विवर्ण, बदरंग। अलस=आलस्ययुक्त। छुव=छूती है। लरी मुरी=बाल की काली लटें मोतियों के हार से लिपटकर उलझीं। नाभी लाभु...लाव=नाभि पुण्यलाभ करके काशी कुंड कहलाती है इसी से देवता लोग उस पर सिर काटकर मरते हैं पर उसे दोष नहीं लगता।

(37) सुनत सूर...मधाु बासा=कमल खिला अर्थात् नेत्रा खुले और भौंरे मधाु और सुगंधा लेने बैठे अर्थात् काली पुतलियाँ दिखाई पड़ीं। निसयानी=सुधा-बुधा खोए हुए। बिथुरे नखत=आभूषण इधार-उधार बिखरे हैं।

(38) सरेखी=सयानी, चतुर। फूल बास...तुम्हारा=फूल शरीर और बास जीव। रावन=(क) रमण करनेवाला। (ख) रावण। खोज परीं=पीछे पड़ीं।

(39) मोहिं लेखे=मेरे हिसाब से, मेरी समझ में। दूखा=नष्ट हुआ। खसेउ=गिरा।

(40) चाँडू=चाह। जस किछु देह धारै कहँ=जैसे कोई वस्तु धारोहर रखे और फिर उसे सहेजकर ले ले। ठँठारि=खुक्ख। (41) चंप सुदरसन...होई=तेरा वह सुंदर चंपा का रंग जर्द चमेली सा पीला हो गया है। उछरीं=पड़ी हुई दिखाई पड़ीं। धाारी=रेखा। तमोरा=तांबूल। अलकाउर=अलकावलि। तोरा=तेरा। रायमुनी=एक छोटी सुंदर चिड़िया। रतमुहीं=लाल मुँहवाली। फुलचुहीं=फुलसुँघनी नाम की छोटी चिड़िया। सिंगार हार=(क) सिंगार को अस्तव्यस्त करनेवाला, नायक। (ख) परजाता फूल।

(41) कला=नकलबाजी, बहाना (अवधी)। नेवारी=(क) दूर कर। (ख एक फूल। कदम सेवती=क) चरणों की सेवा करती हुई। (ख) कदंब और सेवती फूल। (मुदा अलंकार)।

(42) निरंग=विवर्ण, बदरंग।पवन अधाारी=इतनी सुकुमार है कि पवन ही के आधाार पर मानो जीवन है। अही=थी। सोनाबरन...रेखा=ऊपर कह आए हैं कि 'रावन रहसि कसौटी कसी'। बारी भइ=निछावर हुई। मंग=माँग।

(43) झार=ज्वाला, तेज। वारि=निछावर करके। वारा कीन्ह=चारों ओर घुमाकर उत्सर्ग किया।

(44) लहर पटोरी=पुरानी चाल का रेशमी लहरिया कपड़ा। फुँदिया=नीवी या इजारबंद के फुलरे। कसनिया=कसनी, एक प्रकार की ऍंगिया। छायल=एक प्रकार की कुरती। चिकवा=चिकट नाम का रेशमी कपड़ा। मघौना=मेघवर्ण अर्थात् नील का रँगा कपड़ा। पेमचा=किसी प्रकार का कपड़ा (?) चौधाारी=चारखाना। हरियारी=हरी। चितेरे=चित्रिात। चँदनौता=एक प्रकार का लहँगा। खरदुक=कोई पहनावा (?)। बाँसपूर=ढाके की बहुत महीन तंजेब जिसका थान बाँस की पतली नली में आ जाता था। झिलमिल=एक बारीक कपड़ा। अनबन=अनेक।



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