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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम राघवचेतन देशनिकाला खंड पीछे     आगे

राघवचेतन चेतन महा । आऊ सरि राजा पहँ रहा॥

चित चेता जानै बहु भेऊ । कवि बियास पंडित सहदेऊ॥

बरनी आइ राज कै कथा । पिंगल महँ सब सिंघल मथा॥

जो कबि सुनै सीस जो धाुना । सरवन नाद बेद सो सुना॥

दिस्टि सो धारम पंथ जेहि सूझा । ज्ञान सो जो परमारथ बूझा॥

जोगि, जो रहै समाधिा समाना । भोगि सो, गुनी केर गुन जाना॥

बीर जो रिस मारै, मन गहा । सोइ सिंगार कंत जो चहा॥

बेद भेद जस बररुचि, चित चेता तस चेत।

राजा भोज चतुरदस, भा चेतन सौं हेत॥1॥

होइ अचेत घरी जौ आई । चेतन कै सब चेत भुलाई॥

भा दिन एक अमावस सोई । राजै कहा 'दुइज कब होई!'॥

राघव के मुख निकसा 'आजू' । पँडितन्ह कहा 'काल्हि, महराजू'॥

राजै दुवौ दिसा फिरि देखा । इन महँ को बाउर, को सरेखा॥

भुजा टेकि पंडित तब बोला । 'छाँड़हिं देस बचन जौ डोला'॥

राघव करै जाखिनी पूजा । चहै सो भाव देखावै दूजा॥

तेहि ऊपर राघव बर खाँचा । 'दुइज आजु तौ पंडित साँचा'॥

राघव पूजि जाखिनी, दुइज देखाएसि साँझ।

बेद पंथ जे नहिं चलहिं, ते भूलहिं बन माँझ1 ॥2॥

पँडितन्ह कहा परा नहिं धाोखा । कौन अगस्त समुद जेइ सोखा॥

सो दिन गएउ साँझ भइ दूजी । देखी दुइज घरी वह पूजी॥

पँडितन्ह राजहि दीन्ह असीसा । अब कस यह कंचन औ सीसा॥

जौ यह दुइज काल्हि कै होती । आजु तेज देखत ससि जोती॥

राघव दिस्टिबंधा कल्हि खेला । सभा माँझ चेटक अस मेला1॥

एहि कर गुरु चमारिनि लोना । सिखा काँवरू पाढ़न टोना॥

दुइज अमावस कहँ जो देखावै । एक दिन राहु चाँद कहँ लावै॥

राज वार अस गुनी न चाहिय जेहि टोना कै खोज।

ऐहि चेटक औ विद्या छला सो राजा भोज॥3॥

राघव बैन जो कंचन रेखा । कसे बानि पीतर अस देखा॥

अज्ञा भई, रिसान, नरेसू । मारहु नाहिं, निसारहु देसू॥

झूठ बोलि थिर रहै न राँचा । पंडित सोइ बेद मत साँचा॥

बेद बचन मुख साँच जो कहा । सो जुग जुग अहथिर होइ रहा॥

खोट रतन सोई फटकरै । केहि घर रतन जो दारिद हरै?॥

चहै लच्छि बाउर कवि सोई । जहँ सुरसती लच्छि कित होई?॥

कविता संग दारिद मतिभंगी । काँटै कूटै पुहुप कै संगी॥

कवि तौ चेला, विधिा गुरु, सीप सेवाती वुंद।

तेहि मानुष कै आस का, जो मरजिया समुंद॥4॥

एहि रे वात पदमावति सुनी । देस निसारा राघव गुनी॥

ज्ञान दिस्टि धानि अगम विचारा । भल न कीन्ह अस गुनी निसारा॥

जेइ जाखिनी पूजि ससि काढ़ा । सूर के ठावँ करै पुनि ठाढ़ा॥

कवि कै जीभ खड़ग हरद्वानी । एक दिसि आगि, दुसर दिसिपानी॥

जिन अजुगुति काढ़े मुख भोरे । जस बहुते अपजस होइ थोरे॥

रानी राघव बेगि हँकारा । सूर गहन भा लेहु उतारा॥

बाम्हन जहाँ दच्छिना पावा । सरग जाइ जौ होइ बोलावा॥

आवा राघवचेतन, धाौराहर के पास।

ऐस न जाना ते हियै, बिजुरी बसै अकास॥5॥

पदमावति जो झरोखे आई । निहकलंक ससि दीन्ह दिखाई॥

ततखन राघव दीन्ह असीसा । भएउ चकोर चंदमुख दीसा॥

पहिरे ससि नखतन्ह कै मारा । धारती सरग भएउ उजियारा॥

औ पहिरे कर कंकन जोरी । नग लागे जेहि महँ नौ कोरी॥

कंकन एक कर काढ़ि पवारा । काढ़त हार टूट औ मारा॥

जानहुँ चाँद टूट लेइ तारा । छुटी अकास काल कै धाारा॥

जानहु टूटि बीजु भुइँ परी । उठा चौंधिा राघव चित हरी॥

परा आइ भुइँ कंकन, जगत भएउ उजियार।

राघव बिजुरी मारा, बिसँभर किछु न सँभार॥6॥

पदमावति हँसि दीन्ह झरोखा । जौ यह गुनी मरै, मोहि दोखा॥

सबै सहेली देखै धााईं । 'चेतन चेतु' जगावहिं आई॥

चेतन परा, न आवै चेतू । सबै कहा 'एहि लाग परेतू'॥

कोई कहै, आहि सनिपातू । कोई कहै, कि मिरगी बातू॥

कोइ कह, लाग पवन झर झोला । कैसेहु समुझि न चेतन बोला॥

पुनि उठाइ बैठाएन्हि छाहाँ । पूछहिं कौन पीर हिय माहाँ?॥

दहुँ काहू के दरसन हरा । की ठग धाूत भूत तोहि छरा॥

की तोहि दीन्ह काहु किछु, की रे डसा तोहि साँप?।

कहु सचेत होइ चेतन, देह तोरि कस काँप॥7॥

भउए चेत चेतन चित चेता । नैन झरोखे, जीउ सँकेता॥

पुनि जो बोला मति बुधिा खोवा । नैन झरोखा लाए रोवा॥

बाउर बहिर सीस पै धाुना । आपनि कहै, पराइ न सुना॥

जानहु लाई काहु ठगौरी । खन पुकार खन बातैं बौरी॥

हौं रे ठगा एहि चितउर माहाँ । कासौं कहौं, जाउँ केहि पाहाँ॥

यह राजा सठ बड़ हत्यारा । जेइ राखा अस ठग बटपारा॥

ना कोइ बरज, न लाग गोहारी । अस एहि अगर होइ बटपारी॥

दिस्टि दीन्ह ठगलाड़ई, अलक फाँस परे गीउ।

जहाँ भिखारि न बाँचै, तहाँ बाँच को जीउ?॥8॥

कित धाोराहर आइ झरोखे? । लेइ गइ जीउ दच्छिना धाोखे॥

सरग ऊइ ससि करै ऍंजोरी । तेहि ते अधिाक देहुँ केहि जोरी?॥

तहाँ ससिहि जौ होति वह जोती । दिन होइ राति, रैनि कसहोती?॥

तेइ हँकारि मोहिं कंकन दीन्हा । दिस्टि जो परी जीउ हरि लीन्हा॥

नैन भिखारि ढीठ सतछँड़ा । लागै तहाँ बान होइ गड़ा॥

नैनहिं नैन जो बेधिा समाने । सीस धाुनै निसरहिं नहिं ताने॥

नवहिं न नाएनिलज भिखारी । तबहिं न लागि रही मुख कारी॥

कित करमुहें नैन भए, जीउ हरा जेहि बाट।

सरवर नीर निछोह जिमि दरकि दरकि हिय फाट॥9॥

सखिन्ह कहा चेतसि बिसँभारा । हिये चेतु जेहि जासि न मारा॥

जौ कोइ पावै आपन माँगा । ना कोइ मरै, न काहू खाँगा॥

वह पदमावति आहि अनूपा । बरनि न जाइ काहु के रूपा॥

जो देखा सो गुपुत चलि गएउ । परगट कहाँ जीउ बिनु भएऊ॥

तुम्ह अस बहुत बिमोहित भए । धाुनि धाुनि सीस जीउ देइ गए॥

बहुतन्ह दीन्ह नाइ कै गीवा । उतर देह नहिं, मारै जीवा॥

तुइँ पै मरहिं होइ जरि भूई । अबहुँ उघेलु कान कै रूई॥

कोइ माँगै नहिं पावै, कोइ माँगे बिनु पाव।

तू चेतन औरहि समुझावै, तो कहँ को समुझाव?॥10॥

भएउ चेत, चित चेतन चेता । बहुरि न आइ सहौं दुख एता॥

रोवत आइ परे हम जहाँ । रोवत चले, कौन सुख तहाँ?॥

जहाँ रहे संसौ जिउ केरा । कौन रहनि? चलि चलै सबेरा॥

अब यह भीख तहाँ होइ माँगौं । देइ एत जेहि जनम न खाँगौं॥

अस कंकन जौ पावौं दूजा । दारिद हरै आस मन पूजा॥

दिल्ली नगर आदि तुरकानू । जहाँ अलाउदीन सुलतानू॥

सोन ढरै जेहि के टकसारा । बारह बानी चलै दिनारा॥

कँवल बखानौं जाइ तहँ, जहँ अलि अलाउदीन।

सुनि कै चढ़ै भानु होइ, रतन जो होइ मलीन॥11॥

(1) आऊ सरी=आयु पर्यन्त, जन्म भर। चेता=ज्ञानप्राप्त। भेऊ=भेद, मर्म। पिंगल=छंद या कविता में। सिंघल मथा=सिंघलदीप की सारी कथा मथकर वर्णन की। मन गहा=मन को वश में किया। राजा भोज चतुरदस=चौदहों विद्याओं में राजा भोज के समान।

(2) होइ अचेत...जौ आई=जब संयोग आ जाता है तब चेतन भी अचेत हो जाता है; बुध्दिमान् भी बुध्दि खो बैठता है। भुजा टेकि=हाथ मारकर, जोर देकर। जाखिनी=यक्षिणी। बर खाँदा=रेखा खींचकर कहा, जो देकर कहा।

1. पाठांतर-पँडितहि पँडित न देखै, भएउ बैर तिन्ह माँझ।

(3) कौन अगस्त....सोखा=अर्थात् इतनी अधिाक प्रत्यक्ष बात को कौन पी जा सकता है? काल्हि कै=कल को। दिस्टिबंधा=इंद्रजाल, जादू। चेटक=माया। चमारिनि लोना=कामरूप की प्रसिध्द जादूगरनी लोना चमारिन। एक दिन राहु चाँद कहँ लावै= (क) जब चाहे चंद्रग्रहण कर दे; (ख) पदमावती के कारण बादशाह की चढ़ाई का संकेत भी मिलता है।

(4) फटकरै=फटक दे। मतिभंगी=बुध्दि भ्रष्ट करने वाला। तेहि मानुष कै आस का=उसको मनुष्य की क्या आशा करनी चाहिए?

1. पाठांतर-पंडित न होइ, काँवरू चेला।

(5) अगम=आगम, परिणाम। जाखिनी=यक्षिणी। सूर के ठाँव...ठाढ़ा=सूर्य की जगह दूसरा सूर्य खड़ा कर दे। (राजा पर बादशाह को चढ़ा लाने का इशारा है)। हरद्वानी=हरद्वान की तलवार प्रसिध्द थी। अजुगुति=अनहोनी बात, अयुक्त बात। भोरे=भूलकर। जस बहुते...थोरे=यश बहुत करने से मिलता है, अपयश थोड़े ही में मिलता है। उतारा=निछावर किया हुआ दान।

(6) कोरी=बीस की संख्या। पवारा=फेंका। चौंधिा उठा=ऑंखों में चकाचौंधा हो गई।

(7) सनिपातू=सन्निपात, त्रिादोष।

(8) सँकेता=संकट में। ठगोरी लाई=ठग लिया; सुधाबुधा नष्ट करके ठक कर दिया। बौरी=बावलों की सी। बरज=मना करता है। गोहारि लगना=पुकार सुनकर सहायता के लिए आना।

(9) दच्छिना धाोखे=दक्षिणा का धाोखा देकर। जोरी=पटतर, उपमा। दिन होइ राति=तो रात में भी दिन होता और रात न होती। हँकारि=बुलाकर। सतछँड़ा= सत्य छोड़नेवाला। ताने=खींचने से। तबहिं न कारी=तभी न (उसी कारण से) ऑंखों के मुँह में कालिमा (काली पुतली) लग रही है। सरवर नीर...फाट=तालाब के सूखने पर उसकी जमीन में चारों ओर दरारें सी पड़ जाती हैं।

(10) बरनि न जाइ रूपा= किसी के साथ उसकी उपमा नहीं दी जा सकती। भुई=सरकंडे का धाुऑं। उघेलु... रूई=सुन और चेतकर, कान की रूई खोल।

(11) एता=इतना। संसौ=संशय। कौन रहनि=वहाँ का रहना क्या? देइ एत...खाँगौं=इतना दो कि फिर मुझे कमी न हो। सोन ढरै=सोना ढलता है, सोने के सिक्के ढाले जाते हैं। बारह बानी=चोखा। दिनारा=दीनार नाम का प्रचलित सोने का सिक्का। अलि=भौंरा।


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