पदमावति पुनि पहिरि पटोरी । चली साथ पिउ के होइ जोरी॥
सूरुज छपा, रैनि होइ गई । पूनो ससि सो अमावस भई॥
छोरे केस, मोति लर छूटीं । जानहुँ रैनि नखत सब टूटीं॥
सेंदुर परा जो सीस उघारा । आगि लागि चह जग ऍंधिायारा॥
वही दिवस हौं चाहति नाहा । चलौं साथ, पिउ! देइ गलबाहाँ॥
सारस पंखि न जियै निनारे । हौं तुम्ह बिनु का जिऔं, पियारे॥
नेवछावरि कै तन छहरावौं । छार होउँ सँग, बहुरि न आवौं॥
दीपक प्रीति पतंग जेउँ, जनम निबाह करेउँ।
नेवछावरि चहुँ पास होइ, कंठ लागि जिउ देउँ॥1॥
नागमती पदमावति रानी । दुवौ महा सत सती बखानी॥
दुवौ सवति चढ़ि खाट बईठीं । औ सिवलोक परा तिन्ह दीठी॥
बैठौ कोइ राज ओ पाटा । अंत सबै बैठै पुनि खाटा॥
चंदन अगर काठ सर साजा । औ गति देइ चले लेइ राजा॥
बाजन बाजहिं होइ अगूता । दुवौ कंत लेइ चाहहिं सूता॥
एक जो बाजा भयउ बियाहू । अब दुसरे होइ ओर निबाहूँ॥
जियत जो जरै कंत के आसा । मुएँ रहसि बैठे एक पासा॥
आजु सूर दिन अथवा, आजु रैनि ससि बूड़।
आजु नाचि जिउ दीजिय, आजु आगि हम्ह जूड़॥2॥
सर रचि दानपुन्निबहु कीन्हा । सात बार फिरि भाँवरि लीन्हा॥
एक जो भाँवरि भईं बियाही । अब दुसरे होइ गोहन जाहीं॥
जियत, कंत! तुम हम्ह गर लाई । मुए कंठ नहिं छोड़हिं, साईं!॥
औ जो गाँठि, कंत! तुम्ह जोरी । आदि अंत लहि जाइ न छोरी॥
यह जग काह जो अछहि न आथी । हम तुम, नाह! दुहूँ जगसाथी॥
लेइ सर ऊपर खाट बिछाई । पौढ़ीं दुवौ कंत गर लाई॥
लागीं कंठ आगि देइ होरी । छार भईं जरि, अंग न मोरी॥
रातीं पिउ के नेह गइँ, सरग भयउ रतनार।
जो रे उवा, सो अथवा, रहा न कोइ संसार॥3॥
वै सहगवन भईं जब जाई । बादसाह गढ़ छेंका आई॥
तौलगि सो अवसर होइ बीता । भए अलोप राम औ सीता॥
आइ साह जौ सुना अखारा । होइगा राति दिवस उजियारा॥
छार उठाइ लीन्ह एक मूठी । दीन्ह उड़ाइ, पिरथिमी झूठी॥
सगरिउ कटक उठाई माटी । पुल बाँधाा जहँ जहँ गढ़ घाटी॥
जौ लहि ऊपर छार न परै । तौ लहि यह तिस्ना नहिं मरै॥
भा धाावा, भइ जूझ असूझा । बादल आइ पँवरि पर जूझा॥
जौहर भइँ सब इस्तिरी, पुरुष भए संग्राम।
बादसाह गढ़ चूरा, चितउर भा इसलाम॥4॥
(1) आगि लागि...ऍंधिायार=काले बालों के बीच लाल सिंदूर मानो यह सूचित करता था कि ऍंधोरे संसार में अब आग लगा चाहती है (पदमावती के सती होने का आभास मिलता है)। छहरावौं=छितराऊँ।
(2) महा सत=सत्य में। तिन्ह दीठि परा=उन्हें दिखाई पड़ा। बैठौ=चाहे बैठे। खाटा=अर्थी, टिकठी। अगूता होइ=आगे होकर। सूता चहहिं=सोना चाहती हैं। बाजा=बाजे से। ओर निबाहू=अंत का निर्वाह। रहसि=प्रसन्न होकर। बूड़=डूबा। हम्ह=हमें, हमारे लिए। जूड़=ठंढी।
(3) सर=चिता। गोहन=साथ। हम्ह गर लाइ=हमें गले लगाया। अंत लहि=अंत तक। अछहि=है। आथी=सार, पूँजी, अस्तित्व। अछहि न आथी=जो स्थिर या सारवान नहीं है। रतनार=लाल, प्रेममय या आभापूर्ण।
(4) सहगवन भईं=पति के साथ सहगमन किया; सती हुईं। तौ लगि...बीता=तब तक वहाँ सब कुछ हो चुका था। अखारा=अखाड़े या सभा में, दरबार में। गढ़ घाटी=गढ़ की खाई। पुल बाँधाा...घाटी=सती स्त्रिायों की एक एक मुट्ठी राख इतनी हो गई कि उससे जगह-जगह खाई पट गई और पुल सा बँधा गया। जौ लहि=जब तक। तिस्ना=तृष्णा। जौहर भइँ=राजपूत प्रथा के अनुसार जल मरीं। संग्राम भए=खेत रहे, लड़कर मरे। चितउर भा इसलाम=चित्ताौरगढ़ में भी मुसलमानी अमलदारी हो गई।