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कविता

बाँसुरी

स्वप्निल श्रीवास्तव


मैं बाँस का एक टुकड़ा था
तुमने मुझे यातना दे कर
बाँसुरी बनाया

मैं तुम्हारे आनंद के लिए
बजता रहा
फिर रख दिया जाता रहा
घर के अँधेरे कोने में

जब तुम्हें खुश होना होता था
तुम मुझे बजाते थे

मेरे रोम रोम में पिघलती थीं
तुम्हारी साँसें
मैं दर्द से भर जाया करता था

तुमने नुझे बाँस के कोठ से
अलग किया
अपने ओठों से लगाया

मैं इस पीड़ा को भूल गया कि
मेरे अंदर कितने छेद हैं

मैं तुम्हारे अकेलेपन की बाँसुरी हूँ
तुम नहीं बजाते हो तो भी
मैं आदतन बज जाया करता हूँ

 


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