अ+ अ-
|
कवि के ओठों पर निद्रामग्न प्रेमदक्ष
स्वप्न में डूबे अगणित यक्ष
श्वासों में हो रहे थे स्पष्ट प्रतिध्वनित
उनके नश्वर, मानवी सुखों को अर्पित
पीछा करती हैं आकृतियाँ विचारों के झंझावात में
साँझ तक खोया है कवि जिनके चुंबनों में
झील पर प्रखर पावन सूर्य का प्रतिबिंब
पीली मधुमक्खियों के छत्तों की मानिंद
फिर भी विचारों के बीहड़ में हैं गुंफित
तंतुओं के तार... शब्दों के मणि अगणित
यथार्थ रूप में प्रकट हो जाते हैं सूत्र
साकार हो जाते है सारे मानसपुत्र
|
|