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कहानी

भूलभुलैयाँ

सारा राय


यह बनारस शहर है, काशी नगरी। शिव जी भगवान के त्रिशूल पर टिकी हुई। दुनिया के पुराने शहरों में बेमिसाल। वक्त की शुरुआत से यहाँ जिंदगी और मौत का कारोबार चल रहा है। बनारस नगरी जिंदा है, मरे हुए और मरते हुओं को पनाह देती हुई। गलियों को भूलभुलैयाँ में लोगों का हुजूम। बनारस शहर में मरने की तमन्ना लिए जीते हुए लोगों का यह समंदर है। जो यहाँ मरेगा वह स्वर्ग जाएगा, जन्नत पहुँचेगा। यह यकीन सच की तरह पुराना है। यहाँ रहते रहते मैं भी इसे मानने लगी हूँ। यकीन ही तो आखिरी सच्चाई है।

भूतों की नगरी। सदियों पहले मरी हुई औरतें खामोशी से अपने घने बाल आसमान पर फैला देती हैं। सायों के साँस लेने से हवा भारी हो जाती है। शाम को ढलते सूरज की लाली में यह साये कलश और मीनार और बुर्ज पर झुक आते हैं। घिसे हुए पत्थर की सीढ़ी के नीचे हौज का पानी मटियाले से गाढ़ा हरा हो जाता है; उसमें से उठती काई और कीचड़ की बू सदियों से हवा पर ठहरी है। उधर गली में पतंग उड़ाते हुए बच्चे की उँगली मंझे से कट जाती है तो हजारों साल पुराना खून उसमें से बहता है। ढहती हुई इमारतों के पैर इसी सदी में गड़े हैं मगर दरीचे किसी और आसमान के नीचे खुलते हैं। शहर का यह गुंजान फैलाव, तारीख की किताब के पन्ने की तरह। यहाँ के आवाम की जिंदगी अपनी लय के साथ उस पर से गुजरती है। वक्त की तहरीर है, शहर का यह फैलाव। और एक सदी से दूसरी तक फैली जिंदगी की हलचल के बीच, दरारों में भूत रहते हैं।

भूतों की भीड़ में, अपने खामोश कोने में मैं अभी जिंदा सलामत हूँ। शायद वक्त की शुरुआत से ही यहाँ कायम हूँ। मैं, कुलसूम बानो, साकिन नूर मंजिल, 18/20 औसानगंज, कबीरचौरा अस्पताल के पीछे, पीपल के बुड्ढे पेड़ की सीध में। कुलसूम बानो, सय्यद नसीम हैदर की सबसे बड़ी बेटी, वह देखो, अब्बा हुजूर की तसवीर दीवार पर अब भी टँगी है, झुलसते हुए पीले कागज को हल्के से थामे। काशमीरी रोएँदार टोपी और जामावार दोशाला। किले की दीवारों जैसे कंधे। शानदार मूँछें। उनके चालीस गाँव और दर्जन कोठियाँ तसवीर में नहीं हैं मगर उनसे छलका हुआ रोब सय्यद नसीम हैदर के चेहरे पर नक्श है। इस पुराने शहर में पुश्त दर पुश्त रहने वाले खानदान के शजर, बीते हुए जमाने के किसी इकलौते पल में नजरबंद। उनके बाद इस पुराने पेड़ पर बचा हुआ आखिरी समर, मैं। मेरे बाद कोई नहीं। क्योंकि इस दरख्त पर फिर कोई फल नहीं लगा।

कल वह लड़की मुझसे मिलने आई थी, मर्दों का लिबास पहने दुबली पतली, कटे बाल, चश्मा लगाए, शक्ल हूबहू गौरेया की तरह! आते ही मेरे चेहरे को बड़े गौर से देखती है, मेरी कागज जैसी जर्द खाल पर पड़ी गहरी खाइयों और मेरी आँखों की बेरौनक वादियों को। जैसे कि मैं अभी अभी अपने बिल से निकले किसी गुमशुदा जानवर की नस्ल से हूँ। फिर पूछती है, 'आप कैसी हैं, आपा बेगम?'

इस अंदाज में मानो वह मेरी बरसों की मुलाकाती हो।

बिल में बंद रहते हुए जानवर की ही बदमिजाजी के साथ मैं गुर्राई - 'मैं बहुत बुरी हूँ; बद से बदतरीन, बददिमाग, बदतमीज, निहायत बदअख्लाक, एक बेइंतिहा तकलीफदेह बुढ़िया, बेशर्मी से जिए जा रही हूँ, जीने वालों पर बोझ, खाक से भी कमतर, एकदम ही गई गुजरी, नाकाबिले बर्दाश्त...' मैं इसी तर्ज में और बोलती चली जाती मगर उसका बौखलाया हुआ चेहरा देख कर चुप हो गई। मेरी बात सुन कर वह एकदम सकपका गई थी, मुँह खुला का खुला, उसमें से एक आवाज नहीं, जैसे कि उसे साँप सूँघ गया हो!

फिर उसने दोबारा कोशिश की, हिम्मत तो देखो, उसने मेरी तरफ एक हाथ बढ़ाया, उँगलियों को प्याले की शक्ल में बाँध कर, और बोली, 'इजाजत हो तो आपसे थोड़ी सी बातें करना चाहती हूँ...'

मैंने कहा, 'थोड़ी सी से तुम्हारी क्या मुराद पाव भर, आध सेर, सेर भर...'

बेचारी! वह फिर मेरा मुँह ताकने लगी, सिट्टी पिट्टी गुम। दो ही जुमलों में मैंने उसे शहीद कर दिया। इस ख्याल से मेरे चेहरे की झुर्रियाँ मुस्कुराहट में फट पड़ीं। तब लगा जैसे उसे इत्मीनान हुआ और वह भी जरा हँसी। बिल्कुल चहचहाती हुई सी गौरेया।

'असल में, मैं पुराने घरों और उनमें रहने वालों पर मजमून लिख रही हूँ, अखबार के लिए। कुछ सवाल पूछना चाहती थी...'

'आसानी से जान नहीं छूटने वाली। अच्छा भाई, तो लो पूछो। पूछ लो फिर अपना रास्ता लो तो मैं भी चैन की साँस लूँ। उसके बाद न किसी का यहाँ आना, न मेरा कहीं जाना। किस्सा हुआ खत्म, अल्ला अल्ला खैर सल्ला!' मेरा इतना कहना था कि उसने कंधे पर टँगे अपने बैग से एक छोटी सी काली डिब्बानुमा चीज निकाली और बोली - 'गुस्ताखी माफ करें तो आपकी बातें रिकार्ड कर लूँ'

तो अब मेरी आवाज भी बंद करके ले जाएगी यह लड़की।


हाँ भाई, मैं अपने खानदान में बिल्कुल आखिरी हूँ। नहीं, और कोई नहीं बचा है। क्या तुम्हें मेरे इर्दगिर्द भीड़ उमड़ती दिखाई दे रही है मेरे वालिद की चार औलाद। पाँच, अगर अली मियाँ को गिन लो तो। बित्ते भर के थे, तीन साल के, जब हैजा उन्हें खा गया। हैजे के शिकंजे में तो मैं भी आई थी। पर मैं तो सख्तजान थी, हैजा मुझे क्या होता, मैं हैजे को हो गई। वह दुम दबा कर भागा। गरज कि हम बचे चार। मैं सबसे बड़ी, फिर इकबाल मियाँ, फिर ताहिरा, फिर सकीना। सब गए, सब। चलो और आगे बढ़ो। वालिद क्या करते थे वाह, यह भी क्या सवाल है। क्या करते, सिर पे हंडिया रख के दही तो नहीं बेचते थे। रईस थे, रईसों का क्या कोई पेशा होता है शान से सिर ऊँचा करके चलते थे!

हाँ, इस हवेली में बहुत, आमदरफ्त थी। भूतों का अड्डा तो यह बहुत बाद में बना। त्योहारों पर चारों सिम्त से रिश्तेदार आते थे। घर भरा रहता था। हर कमरे में लोग अंगूर के गुच्छों की तरह। और देगें उतर रही हैं, खाना पक रहा है, दस्तरख्वान और बड़ा बिछ रहा है। एक बार में बाईस पच्चीस लोग। कोनों अतरों में वह मुलाकातें, खिलखिलाहट, कानाफूसी। फिर शाम को मिरासनें आती थीं, नाच गाना होता था, कैसी रौनक रहती थी। उन्हीं को देख कर तो मेरे सिर पर भी नाचने का भूत सवार हो गया था। कोने कोने नाचा करती थी! मगर अब्बा ने लाख जिद करने पर भी घुँघरू लाकर नहीं दिए। लेकिन मैं भी कोई हार मानने वाली तो थी नहीं। याकूब को भेज कर मैंने खुद बाजार से मँगवा लिए! कैसा नाचने का जुनून था, दिन भर नाचती थी मगर पैर नहीं थकते थे। खुदा की कसम, यही पैर थे। यही टेढ़े चुड़ैल के पंजे, इन्हीं से नाचती थी। मिल गया खाक में वह जमाना। जमीनें चमन गुल खिलाती है क्या क्या, आसमाँ रंग बदलता है कैसे कैसे।

सन् 1947 में मैं कहाँ थी जब मुल्क के टुकड़े हुए जहन्नुम में! यहीं थी, अपने वतन में, और कहाँ रहती या अपना नीम का पेड़ छोड़ के चली जाती सुना जरूर था कि पाकिस्तान बना है, सरहद के उस पार, मगर कौन सी सरहद, कहाँ थी वह सरहद नहीं, हमारे घर से पाकिस्तान कोई नहीं गया, सिवाये इकबाल मियाँ के। हमेशा के बुजदिल, दंगे देख के घबरा गए बेचारे। बहकावे में आ गए। और देखो उनका क्या नतीजा हुआ। अपना दिल तो इसी मधुमालती पर टँगा छोड़ गए थे, हाँ यही लतर जिसे तुम सामने देख रही हो, गुलाबी और सफेद फूलों वाली। वह न गया उनके साथ। मधमुालती की बेल और उसमें रहने वाली इन्हीं कमबख्त गौरेयों को याद करते हुए वह मर गए, अजनबी मिट्टी पर।

मेरे बाद? मुझे क्या मालूम मेरे बाद इस हवेली का क्या होगा। यह फिजूल की बातें सोच कर मैं वक्त जाया नहीं करती। होगा वही जो सदियों से होता आया है। बूँद की तकदीर है समुंदर में फना हो जाना! एक तरफ के कमरे ढहना शुरू हो गए हैं, दीवारें और छत तो बहुत दिनों से बोसीदा हैं। उन्हें बनवाना मेरे बूते से बाहर है। पिछले महीने ड्योढ़ी की दोहरी चहारदीवारी का एक हिस्सा गिर गया। और दीवार के खंडहर में से हलीमा ने मुझे लाकर क्या दिया! मेरे वही निगोड़े घुँघरू जो मैंने याकूब से मँगवाए थे करीब करीब अस्सी साल पहले, जो न जाने कहाँ गायब हो गए थे।

खैर, अब छोड़ो, यह किस्सा बहुत पुराना और साँप की आँत की तरह बहुत लंबा है। इसे तुम यहीं तमाम करो, जो सुना है बस वही लिख डालो। मैं अब और आगे नहीं बताऊँगी। फसाना खतम, पैसा हजम, खुदा हाफिज!

लो, टली किसी तरह से वह बला! अपना काला डिब्बा और हाथ में टेलीफून लिए। अब तो जिसे देखो हाथ में टेलीफून लिए है, क्या कहते हैं मोबायल। उस दिन तो बिट्टन महतरानी की पोती झल्लो हाथ में मोबाइल लिए आकर मेरे सामने खड़ी हो गई। पूछती है - 'आपा बेगम, तू जानत हउआ इ का बा?'

खुदा की शान! यह इक्कीसवीं सदी है, जनाब, कोई दिल्लगी नहीं। मगर इक्कीसवीं सदी मेरी बला से! मैं तो अपने ही वक्त में जीती हूँ। इस लड़की के तेजी से भागते हुए वक्त के बगल में मेरा वक्त खरामा खरामा चल रहा है।

जो कुछ बीत गया है, वह खत्म नहीं हुआ बल्कि मेरे तसव्वुर में बार बार खुलता फैलता रहता है। वह रोशनी और परछाइयाँ अब भी मौजूद हैं। यह शोरगुल से सन्नाटे तक का सफर, जिंदगी का एकदम से चल पड़ना और फिर ठहर जाना। वही भूलभुलैयाँ। नूर मंजिल, वक्त के कोहरे में खोई हुई, यही नूर मंजिल तो है। मगर नूर मंजिल सिर्फ ईंटों और दीवारों से तो बनी नहीं है। जुग्राफिए की असलियत से आगे बढ़ कर वह मेरे दिमाग की दुनिया में फैल गई है, याददाश्त में, जहाँ उसकी सूरत बर्फ में जमे नक्शे की तरह ठहरी है। कितना वक्त बीत गया है। मगर यह मेरी गलतफहमी है। वक्त कभी नहीं बीतता है, वह तो एक दरिया है, हमेशा बहता हुआ। इस दरिया का किनारा कहाँ है? मैं ही हूँ जो बीती जा रही हूँ। इस बरसात मेरी हड्डियाँ तिरान्बे साल पुरानी हो जाएँगी। खुदा का शुक्र है, मेरे हाथ पैर अभी दुरुस्त हैं। आराम से चलती फिरती हूँ। कुछ और जी गई तो एक पूरी सदी की चश्मदीद गवाह बन जाऊँगी। अजल के पेड़ से टपकी पूरी एक सदी।


वह लड़की तो अपना काम करके चली गई और मेरे अंदर तसवीरें अड़म हैं। पूरी नुमाइश लग गई है। एक रंगीन रिबन जो खुलता जा रहा है...।

अब्बा की वजनदार आवाज सुनाई दी थी ड्योढ़ी में, दूर वेटिंग हाल में। बग्घी अभी अभी आकर सामने रुकी थी। उनके चमड़े के जूतों की चररमरर। हाथी दाँत की उनकी बेंत की जमीन पर ठकठक। सहनची के दर में पड़े भारी से पर्दे को हटा कर, मेरे बालों में कंघी करती हुई अन्ना का हाथ झटक कर मैं बाहर भागी थी। बाहर रोशनी की चकाचौंध थी। दूर पर कुएँ की जगत। उसके किनारे जंगली केले के ऊँचे पेड़ों की कतार। उन पेड़ों से और भी ऊँचा संतरी की तरह खड़ा अकेला सेमल जो शबाब पर था। उसके चटख लाल फूल मेरी आँखों में चुभ गए थे। मैं बेतहाशा दौड़ी थी। मेरे लंबे खुले हुए बाल हवा में घोड़े की दुम की तरह लहरा रहे थे। मैं तेरह साल की थी। उछल कर मैं अब्बा के कंधे पर झूल गई थी - 'अब्बा, मैं कब से आपकी राह देख रही थी। आप कहाँ रह गए थे क्या आप मेरे घुँघरू ले आए?'

वह कुछ नहीं बोले। पेशानी पर हल्का सा बल आ गया। उन्होंने धीमे से मुझे अपने कंधे पर से हटाया और साईस की तरफ एक बार नजर घुमा कर देखा, साईस जो बड़े गौर से हमें देख रहा था और सारी बातें सुन रहा था।

'अल्लारखे, जाओ गाड़ी को अस्तबल में ले जाओ।'

फिर मुझसे मुखातिब हुए, 'चलो बेटा, अंदर चलो। यहाँ इस तरह हौशा हैरान होकर निकलने की क्या जरूरत थी?'

मेरी बाँह पकड़ कर वह मुझे अंदर ले गए।

अब्बाजान, दुनिया के सबसे हसीन, सबसे अक्लमंद, सबसे मजबूत आदमी। और मैं अब्बा के प्यार में बुरी तरह मुबतिला। उनके जैसा दूसरा कोई दुनिया में हो ही नहीं सकता। जब और छोटी थी तो कहती थी, 'अगर मैं ब्याह करूँगी तो सिर्फ अब्बा से!' इस पर क्या चहचहे कहकहे उठते थे! अब्बा हम तीनों बहनों को बहुत चाहते थे। इकबाल मियाँ को भी चाहते थे, पर उतना नहीं। लाड़ प्यार में चूर, हम इतराए फिरते थे। कौन था जो इस इतराहट पर रोक लगा सकता था अन्ना अकेले में बड़बड़ाती थीं - 'ऐसे चोंचलें मैंने तो कहीं नहीं देखे। लड़कियाँ हाथ से बेहाथ हुई जाती हैं। कोई न कोई फितना रोज बरपा रहता है।'

अन्ना झूठ नहीं कहती थीं। हम बहुत शरीर थे। मौलवी साहब पढ़ाने आते तो हम कुछ देर तो कायदे से पढ़ते। मौलवी साहब अफीम खाते थे। जैसे जैसे उनके ऊपर अफीम की पिनक सवार होती, हम चुपके से वहाँ से खिसक लेते। बगल की दालान में निकल आते जहाँ घटाल टँगा रहता था, और उसे जोर से पीटते। मौलवी साहब उछल कर 'हाँय हाँय!' करते हुए सीधे बैठ जाते। फिर हममें से कोई कहता -

'मौलवी साहब, आप तो सो गए थे। हम घंटे भर से सबक दोहरा रहे हैं।'

'तो क्या आमोख्ता हो गया' मौलवी साहब हिचकिचाते हुए पूछते।

'जी मौलवी साहब।' हम एक आवाज में कहते।

'अच्छा तो कल का सबक याद करके रखना।' वह जूतियों में पैर डालते हुए कहते और सिर पर टोपी सँभालते गली में निकल जाते। आधे घंटे में चटापट पूरा सबक खतम। फिर क्या था। हमारी घर भर के बुजुर्गों की नक्काली और हमारी चुहलबाजी। कभी अन्ना के नकली दाँत छुपा दिए और उनकी पोपली जबान पर ठट्ठे लगा रहे हैं, या भरी दोपहरी में बुर्का पहन कर भूत बने अन्ना की बेटी सग्गन को डरा धमका रहे हैं। कभी चचा मियाँ के छोटे बेटे अट्टू को मुर्गी के दरबे में बंद करके वहाँ से चलते बने। हमारी शोखी और शरारत पर सूरज नहीं ढलता था।

शिकायतें आतीं तो भी अब्बा के कानों पर जूँ नहीं रेंगती। उनकी उलफत के घेरे में महफूज, हम बेहंगम बड़े हो रहे थे। शरारत हम करते, डाँट बेचारे इकबाल मियाँ को पड़ती। इकबाल पर वह कड़ी निगरानी रखते थे कि लड़का बिगड़ने न पाए मगर बेटियों के खिलाफ वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे। हमारे लिए रिश्तों की बात उठती, तो दुनिया का कोई लड़का उन्हें हमारे लायक नहीं लगता। किसी की नस्ल ठीक नहीं, कोई नाटा था, कोई काला, कोई मगरूर तो कोई जरूरत से ज्यादा बातूनी। उनके तेवर समझ कर हम भी इन होने वाले शौहरों को तरह तरह के खिताब दे देते। 'नटुल्ला, 'चिनिया बादाम', 'काला कलूटा बैगन लूटा', 'अरबी घोड़ा' वगैरह। गरज कि, कहीं से भी पैगाम आता तो उसमें कोई न कोई ऐब देख कर वह मना कर देते। सो हम अपने खानदान की नस्ल की, हुस्न की बुलंदी पर नूर मंजिल में कायम रहे। उसे छोड़ कर कहीं नहीं गए। अब्बा देखिए, मैं नूर मंजिल में अब भी हूँ। आपको मेरा पता ठिकाना ढूँढ़ना नहीं पड़ेगा।

नूर मंजिल का यह वसीह हाता। जहाँ बरसात के दिनों में पौधे दिन दूने रात चौगुने बढ़ने लगते हैं, जोंक और लिल्लीघोड़ियाँ, बीर बहूटियाँ और छोटे छोटे मेढक रंगरलियाँ मनाते हैं। साल भर से जमीन के नीचे कैद साँप बिलों में से निकल कर बल खाते हुए बारिश का इस्तिकबाल करते हैं और लंबी लंबी घास सारे में हरी आग की तरह फैल जाती है। हाँ, बनारस शहर की गहमागहमी के बीच अब भी यह हाता मौजूद है। भीड़भाड़ को चीरते हुए अब भी आप यहाँ पहुँच सकते हैं।

नूर मंजिल। लखौरी ईंटों से बनी कम से कम तीन फुट चौड़ी दोहरी दीवारें, ऊँचा दरवाजा, लोहे की कीलों से जड़े दो फौलादी फाटक, दरवाजे के अंदर लंबी पेंचदार ड्योढ़ी और ड्योढ़ी से तीन सीढ़ियाँ उतर कर बड़ा सा खुला हुआ सहन। सहन के बीचोबीच एक हौज जिसमें फव्वारे का पानी रोशनी को छूने के लिए बेताब, लपकता ही रहता था। सहन के दो दरफ मेहराबदार दालान जिसकी दरों में उन दिनों मोटे और भारी पर्दे पड़े रहते थे। जाड़े में पर्दे गिरा दिए जाते थे तो सर्दी का नामोनिशान नहीं रहता था और गर्मी में पर्दे हटते तो सहन से सरसराती हुई हवा अंदर घुस आती और तपिश मिट जाती। दरें के साथ साथ चलती मधुमालती की चार बेलें जिनके तने पुराने होते होते इतने मोटे हो गए थे कि अफ्रीका के घने जंगल की किसी बेल के भी क्या होंगे। मधुमालती में सैकड़ों गौरेयों का बसेरा था - सुबह शाम उनकी चाँय चाँय से ऐसा गुल मचता था कि कान पड़ी आवाज सुनाई नहीं देती थी।

अंदर कमरों की छतों में फर्शी पंखे, जरी की झालर समेत लटके रहते थे। अब तो बिजली के आ जाने से वह पंखे बेकार हो गए हैं मगर बड़े कमरे में अब भी एक फर्शी पंखा टँगा है। याद हैं गर्मी की वह लंबी दोपहरें जब सुग्गन पंखे की रस्सी पैर के अँगूठे में फँसा कर घंटों खींचा करती थी। कभी कभी तो वह खुद ऊँघ जाती मगर अँगूठा अपना काम करता रहता!

सहन के एक कोने में चौड़ी सीढ़ियों का घेरदार जीना जो छत की बरसाती के सामने निकलता है। नूर मंजिल की यह दूर तक फैली, खुली हुई छत। गर्मी की रातों में इस छत पर हम चारपाइयाँ डाल लेते थे। चारपाई पर बिछी चाँदनी और तकियों के सिरहाने रखे बेले और चमेली के फूलों की क्या गमक उठती थी। जब उमस और घुटन होती और आसमान से आग बरसती तो हम इन मूंज की चारपाइयों पर पानी छिड़क लेते थे, या कभी कभी गुलाब और केवड़ा। पानी बरसता तो चारपाइयों को खींच कर बरसाती के अंदर कर लेते। और सहन के ऊपर, छत के छज्जे के नीचे कबूतरों की काबुकें। अन्ना कहती थीं जिस घर में कबूतर हों वहाँ बीमारी नहीं आती। लक्का और शीराजी और काबुली और वह कीमती अनारदाना, अकबर बादशाह जैसी आँखों वाला।

अब तो आधे से ज्यादा कमरे बंद पड़े हैं। हवेली का एक हिस्सा मेरे इस्तेमाल के लिए खुला है - दालान की आखिरी हद के पास चार सीढ़ियाँ उतर कर तहखाने वाला कमरा जो गर्मी के दिनों में भी सर्दखाना बना रहता है, उसके बगल की सहनची जिसमें मैं जाड़े काटती हूँ, और उससे लगी हुई कोठरी जो मेरे बावर्चीखाने का काम देती है। इसी के बाहर हलीमा सोती है, अपनी बहू और पोता पोती के साथ, जब उसका हरामखोर शराबी बेटा बनारस की गलियाँ छानता फिरता है। रात को सब अपना बिछौना लाकर कतार से बिछाते हैं तो उसमें से उठती थकान और पसीने की बासी बू से मेरा कलेजा बैठ जाता है। मगर मजबूरी है। मैंने ही तो इन लोगों से यहाँ सोने के लिए कहा है। तो जाहिर है इस मजमे को बर्दाश्त तो करना ही पड़ेगा। कहीं रात बिरात में गिर कर अपनी टाँग तोड़ लूँ तो उठाने के लिए किसी को यहाँ मौजूद तो रहना चहिए।

वैसे हलीमा मेरी देखभाल करने में कोई कोताही नहीं करती। जब देखो सिर पे सवार रहती है, कभी 'आपा बेगम चाय पीजिएगा' कभी, 'आपा बेगम, गुस्ल का पानी लाऊँ'

खुदा महफूज रखे चुड़ैल के नहलाने से। क्या मैं रात भर कीचड़ में लोटती हूँ मगर उसका यहाँ होना भी ऊपर वाले की मेहरबानी है। मैं कौन उसे हीरे जवाहरात दे देती हूँ। बस वही जिंदा रखने भर की दो रोटियाँ और दाल। खुद ही मुसीबत की मारी है तो यहाँ पड़ी हुई है नहीं तो मुलाजिम आजकल मिलते कहाँ हैं?

बाकी घर बंद पड़ा है। मेरी सहनची के बगल से घेरदार जीना छत पर जाता है। वहाँ भी लंबी सी दालान है। इस दालान का नाम शहीद मर्द की दालान पड़ गया है। रात को, बहुत रात को जब सन्नाटा छा जाता है तो जीने पर से शहीद मर्द खड़ाँव पहने उतरता है। उसकी खड़ाँव की खटपट बराबर मेरे कानों में आती है। मगर वह किसी तरह से सीढ़ियाँ उतरना खत्म ही नहीं करता है, बस उतरता ही जाता है। दो सौ साल से वह सीढ़ियाँ उतर रहा है; उसका यह सीढ़ियाँ उतरना हमारे खानदान की तारीख में दर्ज है। बरसाती की खिड़की खोल कर गली में देखो, तो उसकी मजार सामने बनी हुई है। कुछ का कहना है यह रूह अच्छी है, कुछ और हैं जो कहते हैं कि यह परेशान करने वाली रूह है। खैर, रूहों का क्या ठिकाना, मैं हर जुमेरात हलीमा को दालान पर भेज कर चिराग और अगरबत्ती जलवा देती हूँ। वैसे अब यह रूह मुझे क्या परेशान करेगी, मैं तो खुद ही रूह बनी जा रही हूँ।

सबको अलविदा कह चुकी। अब्बा, अम्मी, चचा मियाँ, चचीजान। फिर मेरी दो बहनें और एक भाई। यह तीनों मुझसे छोटे। हवेली में बाएँ हिस्से में चचा मियाँ की चार औलादें। सब गए। गाफिल होकर सो रहे हैं, नीम के नीचे। नीम के पीले पत्ते कब्रों पर लहरा कर गिरते हैं। बार बार मैं हाथों से पत्तों को हटाती हूँ, साफ करती हूँ। कब्र पर जमी मिट्टी को नाखूनों से खुरचती हूँ। नीचे से संगमरमर निकलता है। उस पर खुदे हुए नाम। सिर्फ नाम, और कोई निशान बाकी नहीं। मिटे नामियों के निशाँ कैसे कैसे। बस मैं ही हूँ, एक टाँग इस दुनिया में पसारे, एक उसमें, दोनों जहाँ पर हावी। मैं, कुलसूम बानो। इस नाम से मुझे पुकारने वाला कोई नहीं बचा है। मैंने सबको पछाड़ दिया है, मैं तो मरती ही नहीं। बस अब हर कदम फूँक कर रखती हूँ। मैंने अम्मी का हश्र देखा है, सबक सीखा है। अभी मैं जीना चाहती हूँ; जीने की तमन्ना मेरे जिस्म के पोर पोर में बसी हुई है।

नूर मंजिल के छत की काई से काली मुँड़ेर पर खड़ी होकर मैं अपने बाजुओं को डैनों की तरह फड़फड़ाती थी। बड़ा सा चाँद, पीली रकाबी जैसा, आसमान में निकला होता था। एक गुबार के बीच, जोरदार 'हफ हफ!' की आवाज के साथ मैं ऊपर उठती थी। चाँदनी की उजली इमारतें, पेड़, खंबे, सब पीछे छूटे जाते थे! हवा को अपने पंखों से तराशती मैं नूर मंजिल की दालान को मुड़मुड़ कर देखती थी जो दूर, और दूर हुई जाती थी। और दिल में आजादी का वह अहसास। खुशी फुलझड़ी की तरह दिल में छूटती थी। बार बार, बरसों तक, यह ख्वाब मेरी बंद आँखों के पर्दे पर नाचा करता था। मैं अम्मी को इसके बारे में जाकर बताती थी। अम्मी बिस्तर पर पड़ी थीं। उड़ना तो दूर, वह चल भी नहीं सकती थीं।

मेरी अम्मी। हाँ, मुझ जैसी खबीस की भी कभी अम्मी थीं। नुसरत बानो। इसी ड्योढ़ी में गिरी थीं। कूल्हे की हड्डी ऐसी टूटी कि वह फिर कभी खड़ी नहीं हुईं। सागवान के बड़े से पलंग पर वह सहनची में लेटी ही रहती थीं। मौसम बदलते थे - गर्मी से बरसात से जाड़ा, फिर बसंत और पतझड़ और फिर गर्मी - उनके हाल में कोई तबदीली नहीं आती थी। उनके लेटे रहने से पलंग की निवाड़ झूल गई थी। वह ढलती जा रही थीं। उनका बेबाक हुस्न - कैसी आग के दरिये जैसी आँखें, चेहरे पर क्या जज्बा! उन आँखों को बुझते मैंने देखा है। या खुदा! ऐसा जज्बा दिया ही क्यों अगर उसे यूँ शिकस्त होना था?

आज मैं यह कह रही हूँ जब बीते दिनों की भूलभुलैयाँ में भटकते हुए उनकी तसवीर मेरी आँखों के सामने उभर आई है। उन दिनों हमें उनकी बेबसी का अहसास कम था, बहुत कम। वह हवेली के कोने में पड़ी रहती थीं, जब हम दिन भर धमाचौकड़ी में मशगूल रहते थे, घूमती हुई दुनिया के ठहरे हुए नुक्ते की तरह। सामने से कोई गुजरता तो वह पुकारती थीं, जिस पुकार को सुन कर कभी कोई आ जाता, कभी अनसुना करके आगे बढ़ जाता। कौन सी तेजी, कैसा जोर था वह जिसके बहाव में हम आगे बढ़े जा रहे थे, जिसमें कानों तक उनकी आवाज नहीं पहुँचती थी?

किसी दोपहर, जब उनकी पुकार सुन कर मैं चली जाती तो हाथ के इशारे से वह मुझे अपने पास बैठने को कहतीं। फिर, सहन के एक कोने में लगी हुस्ने हिना की झाड़ी से छन कर आती सूरज की रोशनी की तरफ वह मुझे मुखातिब करवातीं। हुस्ने हिना की हिलती हुई गुत्थमगुत्था टहनियाँ सामने वाली दीवार पर बारीक सी भूलभुलैयाँ जैसी परछाईं बना रही होतीं। हम दोनों इसको देखते, वह लेटी हुईं, मैं बैठ कर। जब तक दोपहर के सूरज की रोशनी मद्धिम होते होते खत्म नहीं हो जाती। यह बार बार बनती बिगड़ती बदलती परछाइंयाँ पल भर की ही होतीं लेकिन रोशनी और परछाईं के इस खेल में हमें जजीरे दिखाई देते, हवा से सिहरती घास और पेड़, जलते पत्तों से उठता धुआँ और रेगिस्तान पार करता हुआ कई दिनों पहले चला ऊँटों का काफिला। एक फानी दुनिया जो धीमे धीमे काफूर हो जाती। वह फुसफुसा कर मुझसे पूछतीं, देखो, वह हवा में झूमता नारियल का झुरमुट तुम्हें दिख रहा है वह बड़े बड़े जहाज और रेगिस्तान में नागफनी के पेड़ उनकी खिसखिसी आवाज में पतिंगों के टूटे पंखों जैसी महीन सी खड़खड़ाहट होती।

मगर ज्यादा मौके ऐसे होते थे कि मैं भी उनकी पुकार को अनसुना करके अपने में ही मशगूल रहती थी। बड़ी मसरूफियत रहती थी उन दिनों।

ताहिरा बीवी दौड़ी हुई चली आ रही थीं।

'आपा! आपा! जल्दी चलिए। चील फिर आ गई है।'

ताहिरा, मेरी छोटी बहन, मुझसे चार साल छोटी, मेरी मुरीद। मुर्गी के बच्चे टापे में से निकाल कर सहन में दाना चुगने के लिए छोड़ दिए गए थे। मेरे मोनार्का कल्लो के बच्चे! दो दिन से चील उन पर मँडरा रही थी; एक दिन पहले एक चूजा उठा ले गई थी। आज फिर लौटी है। खुदा गारत करे!

ताहिरा के पीछे मैं बिजली की तरह लपकी, नंगे पैर, जूती पहनने की सुधबुध नहीं। सहन के ऊपर आसमान का नीला तंबू तना हुआ था, तंबू पर सफेद बादलों की झंडियाँ। एकदम साफ, चील से खाली। फिर गौर करने पर बहुत दूर की ऊँचाइयों में एक काला नुक्ता नुमायाँ हुआ जो बड़ा होता गया। चील तेजी से नीचे उतर रही थी। मेरी नजर मुर्गी के बच्चों पर गई, पीले ऊन के गोले जैसे, अपनी दो हफ्तों की जिंदगी की मासूमियत से भरे हुए! चील को देख कर मेरी आँखों में खून उतर आया उस दिन! एकदम से जमीन पर चील की काली परछाईं पड़ी और एक जबरदस्त झपट्टे के साथ वह चूजों पर टूटी। फिर क्या था। पलक झपकते मैं चील पर झपटी। अपने पूरे वजन से उसे दबा लिया। उसके गर्म डैने मेरे सीने के नीचे फड़फड़ा रहे थे। उनमें धूल और ऊँचाइयों की बू थी।

'सुग्गन, सुग्गन!' मैं चीखी - 'जल्दी से बड़ी वाली कैंची लाओ।' एक तैश में, सुग्गन और ताहिरा की मदद से मैंने चील के पर काट डाले। उसको चूजों के साथ चलते हुए देख लिया तभी मेरा खून ठंडा हुआ।

वही सहन तो है, अब भी। रोज शाम को कुर्सी निकलवा कर मैं उसमें बैठती हूँ। फिजा के रंग को मटियाले से सुरमई से स्याह में बदलते देर तक देखती रहती हूँ। मेरे चारों तरफ तनहाई गाढ़े काले धुएँ की तरह फैल जाती है। सहन के एक तरफ खूँटे पर हलीमा की बकरी बँधी रहती है, वह भी काली। वह मुझे अपनी बेमकसद आँखों से निहारती है और मैं किसी अहमक की तरह वापिस उसकी तरफ ताकती हूँ। लानत है इस हलीमा पर। उसे यही एक जगह मिली है बकरी को बाँधने की! एक दिन खुल गई थी तो सारे गुले अब्बासी के पेड़ चबा गई। बकरी का चबाया दोबारा पनपता भी तो नहीं। और मेंगनियाँ देख कर तो मेरे तन बदन में आग लग जाती है। काली काली मनहूस गोलियाँ हर तरफ फैली हुईं। झाड़ने बुहारने का शऊर नहीं है चुड़ैल को, बस लीद फैलाना आता है। मगर अब कितनी बातों के लिए बकूँ; मैं भी हाथ पे हाथ धरे बैठी रहती हूँ इस कूड़ेखाने में।

आज सहन में बैठी थी तो सामने बड़े कमरे से सकीना बीवी की आवाज मेरे कानों में आई। सकीना, मेरी सबसे छोटी बहन थी। उसकी गोल सी फिसलती हुई आवाज, जैसे उसके गले में तेल से तर, चिकनी सुरों की रस्सी हो! सकीना का पतला किताबी चेहरा मेरी आँखों के सामने उभरा। कानों में जर्मुरत का आवेजा। उसका फीरोजी दुपट्टा बड़े कमरे की बरसों से ठहरी हवा में लहराया। वह तांबे के एक पुराने घड़े के अंदर मुँह डाल कर गाती थी। घड़े के अंदर बंद, बाहर निकलने का रास्ता ढूँढ़ती सी आवाज और भी गूँजने लगती थी। वह घड़ा बहुत दिनों तक घर में लावारिस टकराया फिरता था, कभी उसे कोई उठा कर मोदीखाने में रख देता, तो कभी वह टूटे बर्तनों के अंबार में पड़ा मिलता। फिर वह भी मेरे घुँघरुओं की तरह गायब हो गया। इस घर के हरामखोर नौकरों की बदौलत कोई सामान अपनी जगह पर नहीं रहने पाता। सकीना की आवाज साफ मेरे कानों में आई थी। अपना वही पसंदीदा गाना गा रही थी जिसे वह बार बार गाया करती थी -

झुकी आई रे बदरिया सावन की,
सावन की मनभावन की...

घंटों सकीना और मैं बड़े कमरे में बंद रहते थे। उसका गाना और मेरा नाचना! कसम से कहती हूँ, किसी तरह से खत्म ही नहीं होता था। कैसा जुनून था जो उन दिनों मुझ पर हावी रहता था। पता नहीं कहाँ से यह नाचने का शौक मेरे सीने में उमड़ा था। क्या यह उन्हीं मिरासनों की देन थी, जो हवेली में शाम को आया करती थीं, या इस शौक की जड़ें किसी दूसरी गहरी, पोशीदा जगह तक पहुँची हुई थीं? क्या यह मुझे किसी नाचने वाली से खून में मिला था, कोई खूबसूरत नाचने वाली जो पान की खुशबूदार गिलौरियाँ खिला कर मेरे परदादा, लकड़दादा के दिल में बैठ गई हो? कहीं से तो आया था मेरे खून का यह उबाल जो पैरों की हरकत और जिस्म की जुंबिश में ही ठंडा होता था।

आँखें बंद, चेहरे पर मुस्कान, दिलोदिमाग किसी और जहाँ में, मैं नाचती चली जाती थी। पैर छिल जाते थे मगर थकते नहीं थे। गोल गोल, बड़े कमरे की पत्थर की फर्श पर मैं चक्कर काटती रहती थी। फिर अपने घेरदार गरारे के पाँयचे सँभाले, एक ही जगह पर सिमट आती लट्टू की तरह। जितनी देर नाचती मैं कहीं और, कोई और होती। आखिर हाँफती हुई जब रुकती तो उस दूसरी दुनिया का अहसास देर तक मेरे जहन में नाचता रहता!

बहुत दूर, दुनिया के किसी दूसरे छोर पर सकीना बीवी घड़े के अंदर मुँह डाले गाना गा रही है। शाम हो गई है। गुलाबी और सुनहले आसमान से उतर कर सकीना की आवाज मेरे कानों में गूँज रही है। यह भी कैसा मोजिजा है कि पिछले महीने, दीवार के पीछे छुपे हुए मुझे अपने अस्सी बरस पुराने, खोए हुए घुँघरू मिल गए। मैंने उन्हें हाथ में लेकर, उलट पलट कर देखा। वाकई घुँघरू तो वही हैं, बस वक्त और नमी के असर से उन पर हरी सी कलौंछ आ गई है। तकलीफ से मैंने अपनी अकड़ी हुई कमर को झुकाया, आजमाया, और अपने काठनुमा पाँव पर वह घुँघरू बाँध लिए। फिर किसी बड़ी सी बेढंगी चिड़िया की बेढब हरकत के साथ मैंने वहीं खड़े खड़े एक धीमा सा लड़खड़ाता हुआ चक्कर काटा। दिल में जैसे कुछ गूँजा, कुछ याद आया। मोर्चा खाए हुए घुँघरू में से एक गूँगी सी, दबी दबी आवाज निकली। मुझे लगा जैसे वह दूर, कहीं और बज रहे हैं।


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