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					अल सुबह दांडू का काफिलारुख करता है शहर की ओर
 और साँझ ढले वापस आता है
 परिंदों के झुंड-सा,
 
 अजनबीयत लिए शुरू होता है दिन
 और कटती है रात
 अधूरे सनसनीखेज किस्सों के साथ
 कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह
 दबी रह जाती है
 जीवन की पदचाप
 बिल्कुल मौन !
 
 वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंत
 जहर-बुझे तीर से
 या खेलते थे
 रक्त-रंजित होली
 अपने स्वत्व की आँच से
 खेलते हैं शहर के
 कंक्रीटीय जंगल में
 जीवन बचाने का खेल
 
 शिकारी शिकार बने फिर रहे हैं
 शहर में
 अघोषित उलगुलान में
 लड़ रहे हैं जंगल
 
 लड़ रहे हैं ये
 नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ
 जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ
 गुफाओं की तरह टूटती
 अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ
 
 इनमें भी वही आक्रोशित हैं
 जो या तो अभावग्रस्त हैं
 या तनावग्रस्त हैं
 बाकी तटस्थ हैं
 या लूट में शामिल हैं
 मंत्री जी की तरह
 जो आदिवासीयत का राग भूल गए
 रेमंड का सूट पहनने के बाद।
 
 कोई नहीं बोलता इनके हालात पर
 कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर
 पहाड़ों के टूटने पर
 नदियों के सूखने पर
 ट्रेन की पटरी पर पड़ी
 तुरिया की लावारिस लाश पर
 कोई कुछ नहीं बोलता
 
 बोलते हैं बोलने वाले
 केवल सियासत की गलियों में
 आरक्षण के नाम पर
 बोलते हैं लोग केवल
 उनके धर्मांतरण पर
 चिंता है उन्हें
 उनके 'हिंदू' या 'ईसाई' हो जाने की
 
 यह चिंता नहीं कि
 रोज कंक्रीट के ओखल में
 पिसते हैं उनके तलवे
 और लोहे की ढेंकी में
 कुटती है उनकी आत्मा
 
 बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए।
 
 लड़ रहे हैं आदिवासी
 अघोषित उलगुलान में
 कट रहे हैं वृक्ष
 माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
 बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल,
 
 दांडू जाए तो कहाँ जाए
 कटते जंगल में
 या बढ़ते जंगल में।
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