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कविता

खोलो मन के द्वार

ब्रजराज तिवारी ‘अधीर’


खोलो मन के द्वार
खोलो मन के द्वार वियोगिन आज तुम,
तेरा वह परदेशी साजन आ गया।

तुमने पलक बिछाया जिसकी राह में,
उसे देख हर कली-कली मुस्का गई,
तरुओं के हर थकी-थकी-सी बाँह में,
लहराती-सी नई जवानी आ गई,
उठो करो सत्कार वियोगिन आज तुम,
तेरा वह परदेशी पाहुन आ गया।

तुमसे रूठ गया था जो परदेश में,
गीत सुनाकर कोयल उसे मना रही,
पीली साड़ी पहन प्रकृति की प्रेयसि
खड़ी-खड़ी नयनों के बान चला रही,
करो शीघ्र मनुहार वियोगिन आज तुम,
तेरा वह रूठा मनभावन आ गया।

कठिन साधना से आता मधुमास है,
बीत न जाय अरे कहीं मनुहार में,
बनो सुहागिन छोड़ बिरह की बात तुम,
जीवन अपना करो समर्पण प्यार में,
जी भर करो श्रृंगार वियोगिन आज तुम,
तेरा वह मदमाता फागुन आ गया।

 


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