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आलोचना

भूमंडलीकृत सदी में कविता का सामाजिक पाठ

पंकज पराशर


थियोडोर वाइजेनगुंद अडोर्नो ने कहा था कि आशत्वित्ज के बाद कविता संभव नहीं। क्योंकि जिन मनोभावों के कारण कोई कविता संभव होती है, उन मनोभावों को द्वितीय विश्वयुद्ध की नृशंसताओं ने रौंद कर रख दिया था। एक तरफ अडोल्फ हिटलर ने यातना शिविरों और गैस चैंबरों में छह लाख से अधिक यहूदियों को मार दिया, तो दूसरी तरफ जापान के दो शहरों हिरोशिमा और नागासाकी ने विज्ञान और आततायी सत्ता के भयावह कहर को झेला। इन घटनाओं के कुछ ही साल बाद हिंदुस्तान ने भी 1947 के देश-विभाजन और भयावह दंगों को झेला, जिसमें तकरीबन पाँच लाख लोग मारे गए और इससे दोगुनी संख्या में बेघर हो गए। समय के इतने बड़े-बड़े घावों को झेलने के बाद भी मानवता पर किए जाने वाले अत्याचारों, दंगे-फसादों और आंतरिक तथा बाहरी युद्धों ने मनुष्यविरोधी सत्ता के विरुद्ध कविता की प्रतिबद्धता को मजबूत किया। कविता चूँकि मनुष्यता के सवालों से आबद्ध और संबद्ध होकर ही अपनी अर्थवत्ता और महत्ता साबित करती है, इसलिए वह मनुष्य पर आने वाले संकटों की पहचान पहले ही कर लेती है।

21 मार्च, 2013 को दिवंगत हुए अफ्रीकी लेखक चिनुआ अचेबे ने बहुत पहले नाईजारिया की आगामी घटनाओं का अनुमान अपने उपन्यास 'थिंग्स फाल अपार्ट' में कर लिया था, जो अक्षरशः सत्य साबित हुआ। नाईजीरिया में वही घटित हुआ जिसका अनुमान वे इस उपन्यास में कर चुके थे। कोई रचना तभी इस तरह की भविष्यवाणी कर सकती है, जब वह गहराई से मनुष्य और मनुष्यता से आबद्ध और संबद्ध हो। कविता के भविष्य का सवाल दुनिया-भर में मनुष्यता के संकट के सवालों से जुड़ा हुआ है, इसलिए मनुष्यविरोधी सत्ता की दुरभिसंधियों को कविता सबसे पहले पहचानती है। कविता सत्ता की अतल मानसिकता में छिपी हिंसा को अनावृत करने वाली विधा है और युद्ध के विरुद्ध खड़ी होने वाली वह तूती भी जिसकी आवाज कई बार सत्ता के नक्कारखानों में अनसुनी रह जाती है। इसके बावजूद अन्याय और अनाचार के विरुद्ध किसी भी सत्ता के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने के मामले में कविता अपनी प्रतिबद्धता और आमजन से आबद्धता को नहीं भूलती।

हमारे समय की कविता जिन प्रश्नों से मुठभेड़ कर रही है, वे समाज, संस्कृति और भाषा के जरूरी सवाल हैं और समकालीन कविता अपने समय का नया बिंब रच रही है। बर्तोल्त ब्रेष्ट, फेदरिको गार्सिया लोर्का, ज्बीग्नेयेव हेर्बर्त से लेकर विश्वावा शिंबोर्स्का तक और भाषायी व आर्थिक साम्राज्यवाद के खिलाफ अपनी गौरवपूर्ण पहचान के साथ उभरी अफ्रीकी कविता चिनुआ अचेबे, न्गुगी वा थ्योंगो से लेकर केन सारो वीवा तक, लैटिन अमेरिका के भीतर पाब्लो नेरुदा से लेकर निकोनार पार्रा व रॉक डाल्टन तक और एशिया के भीतर महमूद दरवेश, अहमद फ़राज से लेकर दून्या मिखाइल तक मनुष्यविरोधी सत्ता के विरुद्ध मजबूती से खड़ी है। श्रम और संघर्ष के स्वाभाविक सौंदर्य से निर्मित कविताओं की कला महज कला के लिए नहीं होती, एक व्यापक सामाजिक पाठ के रूप में वह संपूर्ण मानवता के लिए होती है।

भूमंडलीकरण और हिंदी कविता

समकालीन कविता में आज अनेक पीढ़ी के कवि सक्रिय हैं - एक वर्ग उन कवियों का है जिनकी पहचान पिछली सदी में ही बन चुकी थी, दूसरा, उन कवियों का है जिनकी मुकम्मल पहचान अभी नहीं बनी है। वरिष्ठतम कवियों में कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह, मलय, चंद्रकांत देवताले, नरेश सक्सेना, विष्णु खरे, विनोद कुमार शुक्ल, लीलाधर जगूड़ी, ज्ञानेंद्रपति, वीरेन डंगवाल, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, विष्णु नागर और असद ज़ैदी ने हिंदी कविता को अनेक प्रकार के जीवनानुभवों से समृद्ध किया है। अच्छे और प्रतिबद्ध कवियों के समानांतर समकालीन काव्य-परिदृश्य में अनेक ऐसे कवि सक्रिय हैं, जो महज अनेक कविता-संग्रहों, पुरस्कारों और मौसमी चर्चाओं के दम पर कवि होने का दावा करते हैं। अर्थशास्त्री जॉन ग्रीशम की परिभाषा के तर्ज पर कहें तो इन खोटे सिक्कों की उपस्थिति ने खरे सिक्कों की पहचान की राह में बाधाएँ खड़ी कर दी हैं। जिन्होंने रीतिकालीन कवि ठाकुर के शब्दों में वस्तुतः 'कवित्त कीबो खेल करि जान्यो है।' इन खोटे कवियों का हाशिए पर जीने वाली देश की करोड़ों आम जनता, सच्ची कला, मानवीय विवेक को बनाए/बचाए रखने वाली विचारधारा और सच्ची संवेदना से कोई लेना-देना नहीं है। कभी-कभार मुक्तिबोध, नागार्जुन और निराला जैसे कालजयी रचनाकारों का नाम-जाप करके अपनी मीडियोक्रिटी को छिपा लेने वाले ऐसे कविगण अपनी 'व्यवहार-कुशलता' और संबंध-प्रबंधन से परिदृश्य में बने रहते हैं। जिसके कारण हिंदी आलोचना में सच्चे और प्रतिबद्ध कवियों की पहचान में रुकावट पैदा होती है। सच्चे कवि साहित्य और समाज से प्रतिबद्ध तो होते हैं, माहौल बनाने की कला में निष्णात नहीं होते। इसलिए बड़े कवियों के साथ हुई गलतियाँ आज भी दोहराई जाती हैं। आज भी किसी मुक्तिबोध का कोई संग्रह नहीं छपता, कोई पुरस्कार नहीं मिलता और निर्ममतापूर्वक उसे उसके रचनात्मक एकांत में निर्वासित कर दिया जाता है।

सिर्फ व्यापार और वित्त ही प्रबंधन का क्षेत्र नहीं है। अब अन्याय, युद्ध, हिंसा, दमन, उत्पीड़न और आर्थिक संसाधनों की लूट-खसोट भी संबंधों के कुशल प्रबंधन से होने लगी है। मंगलेश डबराल 'कुशल प्रबंधन' की पर्तें भेदते हुए लिखते हैं,

'युद्ध भी कुशल प्रबंधन का एक प्रिय विषय है
जब सोच-समझकर शहरों पर बम गिराए जाते हैं
तो अनजाने ही वे हजारों लोगों को मार लाते हैं
कई बार हमारे खाद्य पदार्थों से ही प्रक्षेपास्त्र बन जाते हैं
जिनकी मार बाहर से नजर नहीं आती
शिकारी और शिकार कितनी ही दूर और छिपकर बैठे हों
एक परफेक्ट मैनेजमेंट के हाथ
उन्हें खींचकर एक-दूसरे के पास ले आते हैं।'

वर्तमान समय में शिकारी की पहचान करना आसान नहीं है। क्योंकि 'अन्याय का पता न चलने देना अन्याय का कुशल प्रबंधन है', जिस वजह से लोगों को पता नहीं चलता कि उनके साथ अन्याय हो रहा है, उनका शोषण किया जा रहा है। जब लोगों अन्याय के बारे में कुछ पता नहीं चलेगा, अन्यायी कहीं नजर नहीं आएगा, तो अन्याय की पहचान और उसके विरुद्ध संघर्ष कैसे होगा? - आज की कविता के सामने यह एक बड़ा सवाल है। अन्याय जब कुशल प्रबंधन से संचालित हो रहा हो और अन्यायी सात पर्दे में छिपा हो, तो गहरी वैचारिक दृष्टि से ही उसके चेहरे को देख पाना संभव हो सकता है! और वैचारिक दृष्टि से भी जब चीजें साफ तौर पर दिखाई न दें, तो जन-प्रतिबद्धता और जन-संबद्धता इसमें मदद करती है। जनकवि बिना किसी हकलाहट के साफ बात करता है। जनकवि जनता से आत्मविश्वास की शक्ति अर्जित करता है, तो वह भला क्यों हकलाएगा? उसकी जनपक्षधरता से यह भरोसा पैदा होता है कि 'बंदा क्या घबराएगा, जनता देगी साथ।'

'कुशल प्रबंधन' के विशेषज्ञों की यह सफलता कही जाएगी कि अपने बेहतर प्रबंधन के कारण वे इस भूमंडलीकृत समय में लोगों को अपनी कारगुजारियों के बारे में कुछ महसूस न होने देते हैं कि उनके साथ हो क्या रहा है? ऐसे माहौल की रचना की गई है कि लोग अन्याय और अत्याचार को धूल की तरह झाड़ देते हैं और कृत्रिम तथा भौतिक चीजों में खुशियों की तलाश करने लगते हैं। वर्तमान समय को अपनी गहन और संवेदनशील दृष्टि से देखने वाले वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल अपने नए कविता-संग्रह 'नए युग में शत्रु' में संकलित एक कविता 'भूमंडलीकरण' में इस चीज को लक्षित करते हुए कहते हैं,

'इन दिनों लोगों को परवाह नहीं उनके साथ क्या हो रहा है
कोई अन्याय को महसूस नहीं करता
लोग अत्याचार को धूल की तरह झाड़ देते हैं
सहसा चिल्ला उठते हैं नहीं नहीं
कहीं से तुरंत कोई खुशी खोजकर ले आते हैं
उसे जमा कर लेते हैं अपने पास जैसे वह सिर्फ उनके लिए ही बनी हो
बहुत सारे कपड़े और जूते पहन लेते हैं बहुत सारा खाना खा लेते हैं
एक महँगा मोबाइल निकालते हैं अपने अश्लील संदेशों के साथ।'

जो अपने इतिहास को नहीं जानता, वह अपने वर्तमान को भी नहीं समझ सकता। मगर विडंबना यह है कि भूमंडलीकरण और भगवाकरण दोनों को सर्वाधिक दिक्कत तटस्थ और निरपेक्ष इतिहास दृष्टि से होती है। एक ओर यदि भूमंडलीकरण के पैरोकारों के लिए इतिहास का अंत हो गया है, तो दूसरी ओर भगवा-आकांक्षियों के लिए इतिहास काल्पनिक और मिथकीय गौरव-गान की जगह है। यह आकस्मिक नहीं हैं कि भूमंडलीकृत समय में बाजार और धर्म दोनों की नृशंसता और अमानवीयता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है और लोकवृत्त सिकुड़कर महज आत्मवृत्त-भर रह गया है। प्रतिरोधी शक्तियों और प्रतिरोधी आवाजों के प्रति इतनी असहिष्णुता पहले भी नहीं देखी गयी। वर्तमान समय की 'कुछ परिभाषाएँ' इस बात की तस्दीक करती हैं,

'जो जितना ज्यादा लोगों का जितना ज्यादा नुकसान कर सके
वो उतना ही बड़ा है।
छोटा है वो जो किसी का नुकसान न कर सके।
उस हर बात में राजनीति है
जहाँ दो में से एक को चुनना पड़े।'

भूमंडलीकृत सदी में तकनीक और धन के पिरामिड का जितना और जैसा इस्तेमाल प्रतिक्रियावादी और सांप्रदायिक शक्तियों ने किया है, उतना किसी अन्य ने नहीं। ताकत और आधुनिक तकनीक के दम पर न केवल इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश किया जा सकता है, बल्कि अपनी जरूरत के हिसाब से उसकी मनमाफिक व्याख्या भी की जा सकती है। पुनरुत्थानवादी शक्तियाँ इस काम को आज बखूबी अंजाम दे रही हैं। ज्ञानेंद्रपति ने इन प्रवृत्तियों की हिंस्रता और पाशविकता को और बहुत सूक्ष्म तरीके से अपनी कविता 'टेर' में लक्षित किया है,

'बीते हुए समय के चौकीदार
इन दिनों भारतीय संस्कृति के रक्षक-संरक्षक कहते हैं खुद को
उनकी स्मृति मनुस्मृति
उनकी कल्पना अतीतमुँही।'

दिलचस्प यह है कि भूमंडलीकरण में दोनों अतिवाद अपने चरम पर हैं - एक अतीतोन्मुखी और दूसरा वास्तविक अतीत से सर्वथा अनभिज्ञ! बीसवीं सदी में जिन रामलला के नाम पर समाज को बाँटा गया, उन्हीं रामलला के नाम पर इक्कीसवीं सदी में इतिहास में कभी न गुजरने वाली रात की तरह गुजरात में व्यापक जनसंहार को अंजाम दिया गया। जिसका जख्म आज भी इतिहास के सीनों पर रिसता है। इन जख्मों पर मरहम लगाने वाली शक्तियाँ बिखरी हुई नजर आती हैं और बीते हुए समय के चौकीदार इसे कुरेदने में तल्लीन हैं। वे किसी भी शै, किसी भी 'रंग' में अपने मतलब की चीज देख लेते हैं। मसलन धरती और आकाश को ही देख लीजिए,

'सुबह उठकर देखा तो आकाश
लाल, पीले, सिंदूरी और गेरुए रंगों से रँग गया था
मजा आ गया 'आकाश हिंदू हो गया है'
पड़ोसी ने चिल्लाकर कहा
'अभी तो और मजा आएगा' मैंने कहा
बारिश आने दीजिए
सारी धरती मुसलमान हो जाएगी।'

प्रकृति को मनुष्य की मानसिकता का भले कोई अंदाजा न हो, लेकिन मनुष्य को यह अंदाजा है कि प्रकृति के रंग उसी के धर्म के रंग की तरह है! आलम यह है कि आकाश का भगवापन उसे हिंदू बना रहा है, तो धरती की हरियाली उसे मुसलमान बना रही है! आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'हिंदी साहित्य का इतिहास' के आदिकाल में विद्यापति का मूल्यांकन करते हुए लिखा है, 'आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने 'गीतगोविंद' के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को। सूर आदि कृष्णभक्तों के श्रृंगारी पदों की भी ऐसे लोग आध्यात्मिक व्याख्या चाहते हैं।' इसी तर्ज पर कहें तो आजकल धार्मिक रंग के चश्मे बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर लोग धरती और आकाश में भी हिंदुत्व और इस्लाम के रंग ढूँढ़ लेते हैं।

बीसवीं सदी की तुलना में इक्कीसवीं सदी का समाज थोड़ा अलग तरह का है, जो पहले की तुलना में कहीं अधिक आत्मकेंद्रित है। आलम यह है कि सैकड़ों लोगों की भीड़ में दो-चार गुंडे कत्ल करके बेखौफ निकल जाते हैं और कोई कुछ नहीं बोलता। समाज की प्रतिरोधी शक्तियाँ इस हद तक स्वार्थ और स्व-सुरक्षा तक सीमित हो गई हैं कि किसी भी अन्याय और जुल्म के खिलाफ संघर्ष का नारा गुजरे जमाने की चीज लगने लगी हैं। हमारे समय के बेहद संवेदनशील कवि अरुण कमल ने अपनी 'थूक' कविता में भूमंडलीकृत सदी की इस खतरनाक स्वार्थपरकता को लक्षित किया है,

'कॉमरेड सुधीर ने घटना बताते हुए कहा था
अगर केवल सब लोग थूक देते एक साथ
तो गुंडा वहीं डूब जाता
यही तो कहते रहे कवि मान बहादुर जीवन भर
पर कितना कम थूक है अब इस देश के कंठ में।'

अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध जब लोग नहीं बोलते हैं, तो एक दिन उनके लिए बोलने वाला कोई नहीं बचता। आत्मकेंद्रित समाज आत्म को बचाने के लिए कुछ नहीं बोलता है और अंत में न समाज बचता है, न आत्म। मंगलेश डबराल ने अपनी कविता में उचित ही लक्षित किया है कि कोई अन्याय को महसूस नहीं करता, इसलिए एक कवि को भारी भीड़ के सामने गुंडे कत्ल करके निकल जाते हैं और समाज मुहावरे में भी नहीं थूक पाता है। ऐसे में न केवल समाजविरोधी और मनुष्यविरोधी ताकतों का हौसला बुलंद होता है, बल्कि यह आततायी सत्ता के लिए बेहद मुफीद होता है।

समाज के बदलते इस स्वरूप को हिंदी के वरिष्ठ कवियों ने गहराई से महसूस किया है। अपने खास तेवर और त्वरा के लिए मशहूर कवि विष्णु खरे अपनी कविता 'फरोख्त' में कहते हैं,

'तकलीफों की तफसीलें जब तक
कार्रवाई में नहीं बदलतीं
तब तक वे किसी सुखद रुग्ण दर्द की तरह हैं
जैसे दाँतों से खाने के रेशे निकालने की पीड़ा
जिसके साथ निकला खून किसी खतरे का संकेत नहीं
शरीर को ऐसे सुहावने कष्टों का व्यसन हो जाता है।'

कष्ट जब 'सुहावना' लगने लगे और अपने सुहावनेपन के कारण व्यसन में तब्दील हो जाए, तो समाज की परपीड़क प्रवृत्ति का अनुमान लगाया जा सकता है। हमारी पुलिस माओवादियों के साथ संबंध होने के संदेह के अपराध में सोनी सोरी जैसी आदिवासी औरत की योनि में कंकड़-पत्थर भर कर जुल्म की इंतहा कर सकती है, विशेषाधिकार कानून की आड़ में मणिपुर की मनोरमा जैसी आदिवासी औरत के साथ बलात्कार करके गोली मार सकती है! कहना न होगा कि भारतीय पुलिस की परपीड़कता के बारे में भारत की आम जनता से अधिक कौन जानता है! असद ज़ैदी अपनी कविता 'सरलता के बारे में' के अंतिम पैरे में कहते हैं,

'कोई महज धक्का दिए जाने से तो मरता नहीं
हाँ गिरने से जरूर मर सकता है
गिरने का संबंध गुरुत्वाकर्षण से है
उस औरत को उसके शौहर ने नहीं
पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण ने मारा।'

परपीड़ा में आनंद लेने वाली भारतीय पुलिस औरत की हत्या के कारण को गिरना बताकर दोषी पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण को ठहरा देती है और अदालतें बखुशी मान लेती हैं। अदालतें यह दलील भी आसानी से दे देती हैं कि ऊँची जाति का आदमी भंवरीदेवी जैसी नीची जाति की महिला के साथ बलात्कार नहीं कर सकता और वह दमित औरत अपना मुकदमा हार जाती हैं!

यकसाँपन का हिमायती भूमंडलीकरण न केवल सांस्कृतिक विविधता के सामने संकट बनकर खड़ा है, बल्कि भाषाई विविधता भी खतरे की जद में है। पिछले दशकों में अनेक भाषाएँ विलुप्त हुई हैं और अनेक विलुप्ती के कगार पर हैं। लेकिन भाषा की भीतरी परत को असद ज़ैदी एक अलग ही नजरिए से देखते हैं,

'सारे अपराध मातृभाषा में किए जाते हैं
जिनमें हरदम होता रहता है मासूमियत का विमर्श
ऐसे दौर आते हैं जब अनुवाद ही में कुछ बचा रह जाता है
संवेदना को मार रही है अपनी भाषा में अत्याचार की आवाज।'

पिज्जा, हैमबर्गर, हॉट डॉग के स्वाद की दीवानी, पब में शाम गुजारने और डिस्को में थिरकने वाली महानगरों की जो युवा पीढ़ी है, उसे सचमुच नहीं पता कि इस भूमंडलीकरण ने देश की विशाल आबादी के साथ क्या किया है। सन् 1985 में थियोडोर लॉवेट ने 'ग्लोबलाइजेशन ऑफ मार्केट' में ग्लोबलाइजेशन के चरित्र को जिस रूप में परिभाषित किया था, वह उससे कहीं अधिक अमानवीय और मनुष्यविरोधी व्यवस्था के रूप में आज हमारे सामने है। देश में भूमंडलीकरण को इन तर्कों की आड़ में लाया गया था कि इससे आम आदमी को फायदा होगा। लेकिन पिछले दो दशक ने इसके पैरोकारों को भी यह सोचने को बाध्य कर दिया है कि इसका कोई फायदा आम आदमी को नहीं हुआ। नरेश सक्सेना ने 'घड़ियाँ' कविता में समय के उन पहलुओं को देखने की चेष्टा की है, जिसे प्रायः अभिधामार्गी बुद्धिजीवी नहीं देख पाते। वे कहते हैं,

'देखिए अपने देश के पचपन करोड़ कुपोषित बच्चों को
उनके चेहरे बता रहे हैं उनका वक्त
उनके चेहरों की झुर्रियाँ घड़ी हैं
उनकी बुझी हुई आँखें घड़ी हैं
उनके धँसे हुए पेट घड़ी हैं
उनकी उभरी हुई हड्डियाँ घड़ी हैं।'

बाजारवादी व्यवस्था ने आम आदमी को जहाँ भुखमरी और कुपोषण के कगार पर ला खड़ा किया, वहीं सांप्रदायिक शक्तियों ने सबसे ज्यादा कहर इन्हीं मजलूमों के साथ किया। जहाँ एक ओर पैदा हो चुके पचपन करोड़ बच्चों को भूमंडलीकृत व्यवस्था ने कुपोषण के जबड़े में धकेल दिया, वहीं दूसरी ओर सांप्रदायिक शक्तियों ने पैदा होने से पहले ही बेकसूर अजन्मे बच्चों को मौत के घाट उतारा। मंगलेश डबराल अपनी कविता 'गुजरात के मृतक के बयान' में कहते हैं,

'मेरे जीवित होने का कोई बड़ा मकसद नहीं था
लेकिन मुझे इस तरह मारा गया
जैसे मुझे मारना कोई बड़ा मकसद हो।'

भूमंडलीकृत नव-पूँजीवादी व्यवस्था में बाहरी और भीतरी हिंसा में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। मनुष्य की स्वाभाविकता और हास्यबोध कहीं गायब-सा हो गया है और उसका राजनीतिक और सामाजिक व्यवहार अब ताकत से संचालित होने लगा है। रघुवीर सहाय ने बहुत पहले भविष्यवाणी की थी - वह एक और ही युग होगा जिसमें ताकत ही ताकत होगी। ताकत की भाषा बोलनेवालों की समझ के मुताबिक दुनिया के जो लोग उनके साथ नहीं हैं, वे उनके विरोधी हैं। उनकी भाषा में रचित परिभाषा के मुताबिक कोई तटस्थ हो ही नहीं सकता। इराक उनकी परिभाषा के मुताबिक उनके साथ नहीं था, उसे नेस्त-नाबूद कर दिया गया। ताकत के नशे में अमेरिका ने न केवल बीसवीं सदी को कई युद्धों और विस्थापन का उपहार दिया, बल्कि इक्कीसवीं सदी में भी उसके कारण दुनिया के कई देशों में युद्ध और विस्थापन जारी है। पिछले कुछ सालों से कई अरब देशों में व्यापक पैमाने पर हिंसा और झड़पें हुई हैं। सीरिया में लाखों लोग मारे गए हैं, फिलिस्तीन में शोले भड़कते ही रहते हैं और ईरान पर महाशक्ति की भ्रकुटि निरंतर टेढ़ी होती जा रही हैं। इस महाशक्ति की हिंसक प्रवृत्तियों को इराक युद्ध से पहले ही हिंदी कविता ने लक्षित कर लिया था,

'कहाँ है वह हरे आसमान वाला शहर बगदाद
ढूँढ़ो उसे अब वह अरब में कहाँ है?
पूछो युद्ध सरदारों से इस सफेद हो रही रात में
क्या वे बगदाद को फिर से बना सकते हैं?

आज इराक तबाह-ओ-बरबाद है। अनेक प्रकार की समस्याओं से घिर चुका है। लम्हों की खता को सदियों के लिए भुगत रहा है। वहाँ बड़े पैमाने पर लोग मारे गए हैं और बड़े पैमाने पर विस्थापित हुए हैं। सिर्फ इस आरोप के लिए कि इराक के पास व्यापक विनाश के हथियार हैं। झूठ की इंतहा यह है कि युद्ध की समाप्ति के बाद पूरी बेशर्मी से यह स्वीकारोक्ति सामने आई कि वहाँ व्यापक विनाश का कोई हथियार बरामद नहीं हुआ। आलम यह है,

'एक विशाल शरणार्थी शिविर के दृश्य
हर कहीं उनके भविष्यहीन तंबू
हम कैसे सफर में शामिल हैं
कि हमारी शक्ल आज भी विस्थापितों जैसी
सिर्फ कहने के लिए कोई अपना शहर है
कोई अपना घर है
इसके भीतर भी हम भटकते ही रहते हैं।'

वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने साम्राज्यवादी ताकतों के बघनखों की पहचान करते हुए लिखा था, 'साम्राज्यवाद जिस किसी शक्ल में आएगा, उससे युद्ध के खतरे बढ़ेंगे। यदि आज अंतरराष्ट्रीय राजनीति के मंच पर सारी शक्तियाँ चेहरा बदलकर नए रूप में सामने आ रही हैं, तो यह एक चिंता की बात है। जागरूक साहित्यकार इस स्थिति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। अब सवाल है कि हम नव-साम्राज्यवाद को किस तरह परिभाषित करते हैं। उसके स्वरूप की व्याख्या को लेकर मतभेद हो सकते हैं, पर जब हम साम्राज्यवाद की चर्चा करते हैं, तो हमारा ध्यान सबसे पहले पश्चिमी देशों के गठजोड़ की तरफ जाता है, जिसका सूत्रधार अमेरिका है। साहित्य और कला की दुनिया में भी साम्राज्यवादी शक्तियाँ कई रुपों में सक्रिय है। जनता के पक्षधर साहित्यकार को शीतयुद्ध के इन हथकंडों के प्रति सतर्क रहकर अपनी भूमिका निभानी होगी।'

नए युग में शत्रु की शक्ल और कार्रवाई दोनों बदल चुकी है। आज का आदमी अनेक तरह की जकड़बंदियों में जकड़ा हुआ और बेबस है। आम आदमी अपनी दाल-रोटी जुगाड़ने में ही इतना व्यस्त और परेशानहाल है कि अपने आसपास खड़े शत्रु को भी वह नहीं पहचान पाता है। लेकिन कवि पहचान लेता है,

'हमारा शत्रु कभी हमसे नहीं मिलता सामने नहीं आता
हमें ललकारता नहीं
हालाँकि उसे आने-जाने की आहट हमेशा बनी हुई रहती है
कभी-कभी उसका संदेश आता है कि अब कहीं शत्रु नहीं हैं
हम सब एक-दूसरे के मित्र हैं
आपसी मतभेद भुलाकर आइए हम एक ही प्याले से पिएँ
वसुधैव कुटुंबकम हमारा विश्वास है
धन्यवाद और शुभरात्रि।'

हमारा समाज पहले ही कुछ कम कायर और आत्मकेंद्रित नहीं था। इसे रघुवीर सहाय ने 'रामदास' में ठीक पहचाना था। लोगों को पता था कि रामदास की हत्या होगी और यह रामदास को बता भी दिया गया था। नियत समय पर हत्यारा आता है, हाथ तौलकर चाकू मारता है और निडर होकर चला जाता है। लोग हत्यारे का विरोध करने की जगह अपने पूर्वानुमान की तस्दीक करने में लग जाते हैं कि उसने तो पहले ही कहा था कि हत्या होगी। प्रश्न यह है कि कैसा यह समाज है, जो किसी हत्यारे का विरोध नहीं करता और फालतू की बहसों में अपने होने को सिद्ध करता है? यदि हत्यारे के विरुद्ध लोग उठ खड़े होते तो वह भारी भीड़ के सामने रामदास की हत्या कर पाता? लेकिन लोग अपनी ही तरह कायर बनाने के लिए बाकी लोगों को भी तरह-तरह के जुमलों से अनुकूलित करने का प्रयास करते हैं। कुमार अंबुज ने बिल्कुल ठीक लक्षित किया है,

'एक शाम वह हत्यारा मिला जिससे मैं अपार घृणा करता था
वह निहत्था था मैं उसे मार सकता था
कम से कम थूक सकता था उस पर
लेकिन मैंने उसे नमस्कार किया और हाथ मिलाया
पड़ोसियों ने कहा मित्रों ने कहा यह तुमने ठीक किया।'

आज का मनुष्य किसी भी अन्याय को सहकर सहज बना रहता है। हत्या का समाचार सुनकर या देखकर वह विचलित नहीं होता। रामदास की हत्या से विचलित तो खैर बीसवीं सदी का वह समाज भी नहीं होता, जिसे पहले से मालूम था कि आज रामदास की हत्या होगी। उत्तराखंड की आपदा में हजारों लोग मारे जाते हैं, फिलीपींस में समुद्री तूफान की चपेट में हजारों लोग मारे जाते हैं और हम चाय की चुस्कियाँ लेते हुए अगली खबर देखते रहते हैं। पड़ोस में किसी की मृत्यु होने पर भी हमारी दिनचर्या में कोई विचलन नहीं आता। कुमार अंबुज यह दर्ज करते हैं,

'जब हत्या का समाचार पढ़ता हूँ
तो कितनी देर बाद पी लेता हूँ शरबत
और कितनी देर बाद लग आती है भूख
अपने ऊपर बीतती है तो
हाथ से छूट तो नहीं जाती विचारधारा?'

साम्राज्यवाद सिर्फ युद्ध और दमन के रूप में नहीं आता है, वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों, बड़े प्राइवेट बैंकों और बड़ी दुकानों की श्रृंखला के रूप में भी आता है। विकसित राष्ट्रों के बहुराष्ट्रीय बैंक विकासशील देशों में अपने हिसाब से काम करते हैं। ईस्ट इंडिया कंपनी यहाँ व्यापार के लिए आई थी और शासक बन बैठी, लेकिन अब प्रत्यक्ष रूप से शासक बने बिना बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ शासन कर रही हैं। नाईजीरिया में बहुराष्ट्रीय तेल कंपनी शेल का विरोध करने के कारण तत्कालीन सनि अबाचा की सरकार ने क्रांतिकारी कवि केन सारो वीवा को फाँसी पर लटका दिया, लेकिन तेल कंपनी शेल का बाल बाँका नहीं हुआ। भूमंडलीकृत युग के बैंकों की कार्य-प्रणाली को मंगलेश डबराल ने बेहद बारीकी से लक्षित किया है,

'नया बैंक सिर्फ दिए जाने वाले कर्ज
और लिए जाने वाले ब्याज का हिसाब रखता है
प्रोसेसिंग शुल्क मासिक किस्त चक्रवृद्धि ब्याज
लेट पेमेंट चार्जेज और पैनल्टी वसूलता है
और एक जासूस की तरह देखता रहता है कि कौन अमीर हो रहा है
किसका पैसा कम हो रहा है कौन दिवालिएपन की कगार पर है
और किसका खाता बंद करने का समय आ गया है।'

पुराने समय के साहूकारों को याद करें तो साहूकार किसी अमीर हो रहे व्यक्ति को जासूस की तरह नहीं देखता था, न किसी की आमदनी और खर्चे को बारीकी से देखता था। लेकिन नए युग का नया बैंक महज बैंक भर नहीं है, वह साम्राज्यवादी शोषण का एक अंग है। जिन किसानों को बैंक आसानी से ऋण नहीं देते और उन्हें विवश होकर साहूकारों के पास जाना पड़ता है, वही बैंक उन लोगों को खुले हाथों से कर्ज देते हैं, जिनकी आमदनी की वे जासूसी कर चुके होते हैं। जिनके आने वाले और जाने वाले पैसों का पूरा हिसाब-किताब वे पहले ही कर चुके होते हैं। भूमंडलीकृत युग के बैंक और सभ्यता की समीक्षा ज्ञानेंद्रपति कुछ इस तरह करते हैं,

'ऋण देने को आगे आ रहे थे बैंक
और सभ्यता किसी की ऋणी नहीं रह गई थी
लुढ़कते बच्चे नहीं दिखते थे जिंदगी की सीढ़ियों पर
बच्चे घरेलू नौकर बनते बड़घर,
बँधुआ मजूर बनते ईंट-भट्ठों और कालीन कारखानों में।'

नव-पूँजीवादी समाज में कृतज्ञता की कोई जगह नहीं है, ऐसे में भला सभ्यता किसी की ऋणी कैसे हो सकती है? एक तरफ सफेदी की चमकार ओढ़े बच्चे 'दाग अच्छे हैं' कहकर सायास दागों में लोट-पोट होते हैं, तो दूसरी तरफ विशाल जनसंख्या उन बच्चों की है, जो बकौल कवि किसी बड़े घर में घरेलू नौकर बनेंगे या ईंट-भट्टों और भदोही जैसी जगह में कालीन के कारखानों में बंधुआ मजदूर। विकासशील देशों के बच्चे ईंट-भट्ठों और कालीन कारखानों में अपनी जहालतों से लड़ रहे हैं और उनके भविष्य की डोर कहाँ है, यह वे नहीं जानते।

पिछली सदी के मुकाबले नई सदी में शोषण, उत्पीड़न और शत्रुता के तौर-तरीकों में चूँकि काफी तब्दीली आई है, इसलिए नए युग के शत्रु हमें शत्रु की तरह दिखाई नहीं देते। उनकी हिंसा और पैने नाखून भी साफ तौर पर दिखाई नहीं देते। आज युद्ध कहीं हो रहा होता है और योद्धा कहीं और होते हैं। पिछले दशकों में युद्ध के कारण जो बताए गए वे कारण थे ही नहीं और जो आपस में लड़े, उनकी ओर से लड़ाई किसी और ने लड़ी। इस छद्म को उजागर करते हुए अरुण कमल कहते हैं,

'क्या हुक्मरान सचमुच भाग जाएँगे
ट्यूनीशिया लीबिया बहरैन से
क्या सचमुच वहाँ ऐसी आजादी होगी
कि लोग खुद अपनी सरकार चुन और चला सकें
या फिर जिएँ बिना सरकार के?
और हुक्म बस हवा का चले या धूप और चाँद का
पर फल खजूर के अपनी मर्जी से पकें और झरें
या फिर वैसा ही होगा इराक अफगानिस्तान में
कि हुक्म तो देशी हो पर फौजें विदेशी
और दिन और रात बराबर हों अवाम की जिंदगी में ?'

नए युग में साम्राज्यवादी ताकतें जहाँ नहीं दिखाई देती हैं, वहाँ भी दरअसल दखल उन्हीं का होता है, वास्तव में शासन उन्हीं की मर्जी से चलता है। ईश्वर सर्वव्यापी हो या न हो, इस भूमंडलीकृत समय में साम्राज्यवाद सर्वव्यापी हो गया है।

अमेरिका के कैलीफोर्निया में मोबियस सिंड्रोम नामक एक अजीब बीमारी से ग्रसित एक बच्ची चेल्शी थामस मुस्कुराने में असमर्थ है। मोबियस सिंड्रोम एक ऐसी बीमारी है, जिससे ग्रसित व्यक्ति के मनोभावों को उसके चेहरे से नहीं जाना जा सकता। उस बच्ची को मुस्कुराहट प्रदान करने के लिए डॉक्टरों ने दस घंटे की मेहनत की, जिसे कवि ज्ञानेंद्रपति ने 'एक मुस्कान की जन्म-कथा' नामक कविता में बेहद मार्मिक तरीके से व्यक्त किया है,

'वे चाहते हैं, मवेशियों की-सी भारवाह जिंदगी जीते हुए
बँधुआ मजूर बच्चे भी
कम-से-कम नींद में भी मुस्कुराएँ
वे चाहते हैं, जहरीली गैस से मारे जाते बच्चे
उँगली में गैस-भरे गुब्बारे की ललकती डोर लपेटे मरें
वे चाहते हैं, संसार के सारे बच्चे मिलकर
हँसी-खुशी का इतना बड़ा पर्दा बुनें
कि छुप जाए उनकी स्वार्थांध आत्मा का अपार विषाद।'

नई सदी के लोगों के बीच हड़बड़ी और जल्दबाजी किसी छूत की बीमारी की तरह फैल चुकी है। अधिक से अधिक भौतिक संसाधनों को जुटा लेना, अधिक से अधिक चीजों को भोग लेना, अपनी प्रगति के लिए किसी भी हद तक चले जाना वर्तमान सभ्यता की जीवन-शैली है। इस आबादी के समानांतर देश की एक बड़ी आबादी ऐसी है, जिसकी कहीं कोई गणना नहीं होती। जिसकी सुविधा को ध्यान में रखकर कोई नियम-कानून नहीं बनता। सत्ता के स्वप्न और कवि के स्वप्न सर्वथा भिन्न होते हैं, इसलिए सत्ता के स्वप्न और कवि के स्वप्न में हमेशा से टकराव होता रहा है। हाशिए पर जीने वाले देश के अधिसंख्य आमजन आज न कहीं के मतदाता हैं, न उनकी कहीं कोई पहचान है। सत्ता के इस चरित्र को अपनी वेधक दृष्टि से अनावृत्त करते हुए अरुण कमल कहते हैं,

'मैं वो हूँ जिसकी गिनती होने से रह गई
पूरी आबादी में जो एक कम होगा वो मैं हूँ
जिसके वास्ते किसी अदहन में नहीं डाला जाएगा चावल
जिसके नाम की रोटी नहीं पकेगी वो मैं हूँ
जब भी गिनती गलत होगी
जब भी वे हिसाब मिला नहीं पाएँगे
मैं हँसूँगा आँकड़ों के पीछे से तालियाँ देता
वो मैं हूँ वो अंक वो शंख महाशंख।'

आँकड़ों के पीछे से ताली बजाती हुई देश में जो विशाल जनसंख्या है, उसकी फिक्र सत्ता को हो या न हो, कवि को है। इस आबादी के साथ सत्ता भले खड़ी न हो, कवि सदैव उसके पक्ष में बोलने के लिए उपलब्ध रहता है। लेकिन कवि को यह करने में बेहद 'हिचक' होती है,

'जिसने सच-सच कह दी अपनी कहानी
उसे कैसे कहूँ कि इसे सजाकर लिखो।
जिसके पास कुछ नहीं सिवा इस देह के
उसे कैसे कहूँ आज बाजार का दिन है।
जो खो चुका है घर-परिवार
उसे कैसे कहूँ पानी उबालकर पियो।'

अधिनायकवादी सत्ता की निगाह में जो मनुष्य उनके साथ होता है, वही मनुष्य मित्र या मित्रवत हो सकता है और जो किन्हीं कारणों से उसके साथ नहीं होता, साथ नहीं देता, वह दुश्मन मान लिया जाता है। सत्ता इसी तरह स्याह और सफेद में सोचती है, सो लड़ाई भी हमेशा दो सत्ताओं के बीच होती है, मनुष्यों के बीच नहीं। मनुष्यों द्वारा निर्मित सत्ता ही व्यापक मानवीय विनाश और धन-जन हानि को नजरअंदाज करके नतीजों को जीत-हार के रूप में देखती है। इसलिए सत्ता की जीत के बावजूद अक्सर मनुष्यता की हार होती है। इस भूमंडलीकृत युग में जिस अनुपात में सत्ता की अमानुषिकता बढ़ी है, साम्राज्यवादी शक्तियों ने मानव-मस्तिष्क को अनुकूलित करना शुरू किया है, तब से अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने वाली जनचेतना की धार कुंद होने लगी है। लेकिन हिंदी कविता इन दुरभिसंधियों को अनावृत करती हुई एक पहरुए की तरह इस आत्मकेंद्रित होते समय में भी जन-सरोकारों के साथ मजबूती से खड़ी है।


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हिंदी समय में पंकज पराशर की रचनाएँ