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कविता

अगर मगर

अरुण देव


तुम अगर नदी रहती तो मैं एक नाव बन तैरता रहता
अगर तुम वृक्ष रहती तो बया बन एक घोंसला बनाता तुम्हारे हरे पत्तों के बीच

अगर तुम कपास रहती बन जाता वस्त्र छापे का रंग बन चढ़ जाता
कि धोने से भी न उतरता

अगर तुम आँधी रहती तो मैं एक तिनका बन उसके भँवर में घूमता ही रहता
कभी नहीं निकलता उससे बाहर

अगर शून्य होती तो तुम्हारे आगे कोई अंक बन जुड़ जाता
हो जाती तुम अनेक

तुम्हारे हर रूप में तुम्हारे साथ रहता

 


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हिंदी समय में अरुण देव की रचनाएँ