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लाल किले के परकोटे
और जामा मस्जिद की सीढ़ियों से दूर
महबूब के दीवार के साए तले
टुक रोते रोते सो गया है मीर
टूटे दिल और खुले चेहरे वाला वह शायर
जिसकी आवाज अब भी भग्न महलों में गूँजती रहती है
जिसमें हिंदुस्तान की दूर तक पसरी धरती का तांबई रंग है
जहाँ गौरया फुदकती है
मोर नाचते हैं
और आम रस से भरकर टपक जाते हैं
यह वही सूफी है जिसके विरह के ताप से टूट कर गिर पड़ी थी कभी पूरी की पूरी शताब्दी
इतिहास के बाहर जिसका मलबा आज भी पसरा है
जहाँ से रह-रह दुरार्नियों के लश्कर के लौटते घोड़ों के टापों की आवाजें आती हैं
उजाड़ बस्तियों में दरवेश की तरह भटकती रहती है कोई पुकार
हर ईंट की जबान पर दुख भरा एक किस्सा है
क्या पता...
समय का, सल्तनत का कि खुद शायर का
कसका खींचे उसे कितनी ही बार देवालय में देखा गया था
काबे और कैलास का रास्ता
तब इतना जुदा नहीं दिखता
अगर कोई दिल के रास्ते चले
काबे का रास्ता कैलास से जा मिलता था
उसके शेरों ने अपनी नाजुक अँगुलिओं से जो सवाल उठाए
उसकी चोट से निरुत्तर हो जाते थे कई बार शेख ओ ब्रहम्न
जिस कवि के लिए पेड़ के साए का बोझ भी कई बार असह्य हो जाता
उसकी जबान ने अपने लिए ऐसे शब्द चुने जो अब्र की तरह
अर्थ की बंजर धरती पर बरस जाते थे
वह भाषा जो सिंधु को पार करके खुद एक नदी थी
उस भाषा को भी क्या इल्म
कि कभी उसके भी दो हिस्से होंगे
अल्फाज कहीं
मायने कहीं और।
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