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कविता

पत्नी के लिए

अरुण देव


वह आँच नहीं हमारे बीच
जो झुलसा देती है
वह आवेग भी नहीं जो कुछ और नहीं देखता

तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा
तुम्हारा प्रेम बरसता है
और कमाल की जैसे खिली हो धूप

तुम्हारा घर
प्रेम के साथ-साथ थोड़ी दुनियावी जिम्मेदारियों से बना है
कभी आटे का खाली कनस्तर बज जाता है
तो कभी बिटिया के इम्तहान का रिपोर्ट कार्ड बाँचने बैठ जाती हो

तुम्हारे आँचल से कच्चे दूध की गंध आती है
तुम्हारे भरे स्तनों पर तुम्हारे शिशु के गुलाबी होंठ हैं
अगाध तृप्ति से भर गया है उसका चेहरा
मुझे देखता पाकर आँचल से उसे ढक लेती हो
और कहती हो नजर लग जाएगी
शायद तुमने पहचान लिया है मेरी ईर्ष्या को

बहुत कुछ देखते हुए भी नहीं देखती तुम
तुम्हारे सहेजने से है यह सहज

तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम
कई बार तुम हो जाती हो अदृश्य जब
भटकता हूँ किसी और स्त्री की कामना में
हिंस्र पशुओं से भरे वन में

लौट कर जब आता हूँ तुम्हारे पास
तुम में ही मिलती है वह स्त्री
अचरज से भर उसके नाम से तुम्हें पुकारता हूँ

तुम विहँसती हो और कहती हो यह क्या नाम रखा तुमने मेरा।

 


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