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कविता

सिसिफस

अरुण देव


धूप उठी
और उठ कर बैठ गई
नींद मेरी सोई पड़ी रही

उस पर भार था एक पत्थर का
जिसे ले चढ़ता उतरता था मैं रोज
मेरी नींद से
न जाने कहाँ चले गए महकती रातरानियों के वे फूल
जिनसे बिंधा रहता था मेरा दिन
कोई पुकार बजती रहती थी मेरे कानों में
जल के हिलते विस्तार से तारों को टिमटिमाती हुई

मेरी नींद पर खटखट नहीं करता अब
ओस से भीगा वह हरा पत्ता
जो अभी भी अंतिम आकर्षण है
इस सृष्टि का
और सृष्टि किसी शेष नाग पर नहीं
इसी की नोक पर टिकी है

मेरी नींद के जगने से पहले
उठ बैठती थी चिड़ियों की चहचहाहट
नदी से लौटी हवा के गीले केश
बिखरे रहते थे मेरे गालों पर

निरर्थक दिनचर्या की जंजीरों में जकड़ा
न जाने किस दलदल में
घिर गया हूँ मैं

एक ही रास्ते से आते-जाते
जैसे सारे रास्ते बंद हो गए हों

कौन बधिक है यह
जिसके जाल में फँस गया है मेरा दिन
और जिसके जंजाल में उलझ पड़ी हैं मेरी रातें

 


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