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आँख की पलकों में दबे
मर्मांतक कोह में से निकलता
काकुस्थ और विचलित,
नहीं जानती
नक्सल की गोली से मृत पति को
कितने मिले हर्जाने के
कागजों में स्वीकारोक्ति पाँच लाख प्राप्ति
ले चुकी सरकार।
अँगूठे से छूट रहा स्याही का रंग
बस्ते से चावल
पड़ोसी के मन से संवेदना
बच्चों के खाली पेट में
नाचते भूख के सियार
लंबे केंचुवे दुर्दशा के
चला रहे संसार
स्वच्छ रहे सरकार।
सचिवालय में, थाने-कचहरी में
मूक और निर्वेद पड़े लाखों अँगूठे के निशान
किस जमाने के खोए नाम
जब बिसूर-बिसूर रोते,
मुझे लगता कभी मैं भी
उनकी आँख की निरीहता में
ढीरा लगा बैठती,
सुनती उनका मर्मभेदी हाहाकार,
विकल चीख-पुकार,
प्रश्न पर प्रश्न बन जाती मैं,
वे उत्तर
कोलाहल में भर जाता हाट-बाट
रोम रोम जाग उठते, समय के।
यह रुलाई बदल जाती
दुर्घर्ष और मुक्तिखोर
जीवंत और भयंकर साँप सारे
सहज ही मिथ्या प्रमाणित हो सकने के
चौंकानेवाले बयान।
हर अँगूठे की छाप से उठ आते
सलिला मरांडी, दुखी नायक
डंबरु तांड़ी, गजानन आचार्य
कहते जोर जबरदस्त
हम से लिए गए हैं अँगूठे के निशान
हमें लौटा दो
हमारा मैला और बेतरतीब भाग्य
हम मृत नहीं, हम जीवित
हम मृत नहीं, हम जीवित !!
अनुवाद : शंकरलाल पुरोहित
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