जनपदीय भाषाओं को 'बोली' और हिंदी को 'भाषा' कहा जाता है। इन पर विचार करने से पहले दोनों की व्युत्पत्ति पर विचार होना चाहिए। देखा जाय तो दोनों की व्युत्पत्ति में कोई विशेष अंतर नहीं है। 'भाषा' संस्कृत के 'भाषा' धातु से बनी तत्सम शब्द है। 'बोली' प्राकृत के 'बोल्लई' से बनी है। दोनों का अर्थ है बोलना। बोली का संस्कृत रूप नहीं मिलता। प्राकृत का बोल्लई ठेठ लोक व्यवहार का शब्द है। संस्कृत के 'वदति' से प्राकृत 'बोल्लई' की भाषावैज्ञानिक यात्रा थोड़ी कठिन मालूम होती है। अगर यह मान भी लिया जाय कि 'वदति' से 'बोल्लई' और उससे बोली बनी तब भी इतना अंतर जरूर है कि 'भाषा' तत्सम है। और बोली तद्भव। दोनों का अर्थ भले ही एक हो लेकिन मूल भिन्न होने से बोली से बोलने का जहाँ सामान्य अर्थ निकलता है, वहीं भाषा में संस्कृत के स्वाभाविक अभिजात का पुट मिलता है। बोली में वाचिक क्रिया के शारीरिक प्रयत्न का मान है जबकि भाषा में मानसिकता का विशेष योग है। इससे स्पष्ट है कि बोली वाचिक और सामान्य व्यवहार के लिए है। और भाषा प्रायः लिखित और औपचारिक प्रयोग के लिए। सभा में विद्वानों का भाषण होता है और घर में सभी बोलते हैं। भाषा में चिंतनशील लोगों, जो अत्यल्प हैं, की महान परंपरा है और बोली में विशाल संख्या वाले अचिंतनशील लोगों की छोटी सी परंपरा।
यही छोटी सी परंपरा लोक परंपरा होती है। इसी लिए संत हमेशा बोली में गाते रहे हैं। और उनके गाते रहने से भाषाओं और बोलियों ने अपनी सरहदें तोड़ दी हैं। जनपदों, भाषा-क्षेत्रों को तोड़ती हुई उनकी बानी सारे देश में पहुँच गई है। कबीर, सूर, मीरा, तुलसी, रैदास, तुकाराम, ज्ञानेश्वर, नरसी मेहता, ननका प्रसाद को बंगाल में बाउल गाते हैं तो पंजाब में रागी तो दक्षिण के कथा-काल क्षेपण में उन्हें समवेत स्वर में पूरा समाज गाता हैं। ये किस बोली के कवि हैं? इनका भाषा क्षेत्र क्या है? भाषा में दार्शनिक बोलता है। बोली में संत भक्ति है। दार्शनिक से संत महान होता है। क्योंकि तर्क के प्रभाव से दर्शन ऊपर की ओर बढ़ता है जबकि संतो की बानी लहर की तरह फैलकर ढाई आखर वाले प्रेम को अपनी अँकवार में भर लेती है। इसी लिए सारे दार्शनिक नगरों में हुए और सारे संत गाँवों में, वनों में।
भाषा में साहित्य रचा जाता है, बोली में लोक साहित्य। लोक साहित्य लोक समाज की सृष्टि है। लोगों की जुबान से रचा गया, लोगों की जुबान से प्रचारित। इस साहित्य के नेपथ्य में होता है संघबद्ध जनसमुदाय। संघबद्ध जनसमुदाय, के सुख दुःख, आशा-आकांक्षा, चिंता और विचारों का प्रतिफलन है यह साहित्य। विशुद्ध आनंद के लिए इसकी रचना नहीं होती। जरूरत के मुताबिक यह लोक समाज को शिक्षा भी देता है। कभी-कभी भाषा और बोली में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि किसी भी जीवित भाषा के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि यह भाषा है या बोली? बंगला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, असमिया, काश्मीरी, डोंगरी, भाषा भी हैं और बोली भी, क्योंकि इनका लिखित व्यवहार होता है और ये बोली भी जाती हैं। इनमें श्रेष्ठ और महान साहित्य है तो दुःख के उद्वेग और सुख के संवेग से भरा हुआ लोक साहित्य भी।
जनपदीय या लोकभाषा की सबसे बड़ी शक्ति है प्रतिरोध। प्रतिरोध उस समाज से, जिसने जीने की स्थितियाँ छीन ली हैं, सत्ता से, जिसने लगातार शोषण किया है, ईश्वर से, जिसने हमारी रक्षा नहीं की, बंगाल के माल्टा जिले से संग्रहीत एक 'गंभीरा' गीत में दुस्सह, दुर्बल, असहाय मनुष्य, अपने देवता भोलेनाथ के दरबार में प्रतिकार की आशा में गुहार लगाता है -
हमारी क्या दशा कर दी
भोलेनाथ !
पेट में दाने नहीं / न तन पर कपड़े
दोनों बैलों को ले गया साहूकार
अब क्या करें हम ?
हाड़-मांस के हम बन गए हैं गुलगुली घास
लोग गुजर जाते हैं हमारे ऊपर से
क्या करें हम ?
एक ओर भोलेनाथ हैं, वहीं दूसरी ओर अल्लाह भी है। भूख से पीड़ित असहाय लोग अल्लाह की शरण में जाते हैं -
खोदता हूँ मिट्टी / पर पेट नहीं भरता
दिन ढले लौटता हूँ / झुकाए अपना सिर
आग जल रही है
पेट और चूल्हे में
पर हाँड़ में है केवल पानी
बीवी बच्चों की आँखों में आँसू
मेरे भीतर भी खौल रहा है पानी
छोटा बेटा रोते हुए माँगता है भात !
अपना फैसला सुना दे अल्लाह !
खेत में फसल नहीं हुई इस बार / सूने हैं खेत
इस तरह
कितने दिन आँख से बहता रहेगा पानी !
रिक्त, निःस्व, वंचित मनुष्यों ने अपने अंतिम सहारे शिव और मेहरबान अल्लाह को याद किया है। लोक समाज के चारों ओर सुनवाई की जो आवाज नीरव सन्नाटे में अकेली रोती है, उसका अंतिम सहारा होती है वह भाषा, जिसमें वह रोता है या ईश्वर या अल्लाह - जो अस्तित्व को मिटाने पर तुला हुआ है। बोली, जलधार है पर्वत से गिरती हुई - जल प्रपात, जहाँ बूँद-बूँद नाच रही है। यही नाचती हुई बूँदें जब धारा बनकर बहती हैं, तब बहता हुआ नीर बनती है भाषा, भाषा में विषय होता है, बोली में विश्वास!
बहुत पहले से इस देश में दो तरह की भाषा का प्रयोग होता आ रहा है। लोक भाषा और अभिजात भाषा। बहुत बार लोक भाषा में बहुत अच्छा साहित्य लिखा गया। उसमें थोड़ा सा बचा, बाकी नष्ट हो गया। इसका कारण यह था कि बोलियों की परंपरा वाचिक थी, भाषाओं की लिखित। बौद्धों और जैनों का विपुल साहित्य तत्कालीन लोक भाषा पालि में लिखा गया। फिर प्राकृत में, फिर अपभ्रंश में। मगर जब तक धार्मिक उपदेश, कुछ प्रेम, कुछ नीति की बात रही, तब तक काम चलता रहा। लेकिन जब दर्शन और सूक्ष्म चिंतन की बात आई तो संस्कृत में लिखा जाने लगा। कई बार दोहा लिखा गया अपभ्रंश में, मगर टीका लिखी गई संस्कृत में। जैसे कृष्णपाद के 'दोहाकोश' की 'मेखला टीका'। कवि अब्दुल रहमान का 'संदेश रासक' भारतीय साहित्य की एक धरोहर है। उसमें कवि ने कहा है -
जिण मुक्खु न पंडिय मन्झियार।
तिण पुरुउ पढ़िब्बइ सब्बवार।।
जो न मूर्ख होगा, न पंडित, उन्हीं लोगों के सामने यह बार-बार पढ़ा जाएगा। इसके बाद भी 'संदेश रासक' की तीन टीकाएँ मिलती हैं।
ऐसा क्यों हुआ? इसके दो कारण है। पहले तो जैसे ही आवेग तरल मनोभाव के क्षेत्र से उठकर विचार के बारीक क्षेत्र में हम पहुँचे, वैसे ही हमें अनुभव हो गया कि शुद्ध जनपदीय भाषा यह करने के लिए राजी नहीं होगी। इसके लिए कटी-छँटी, मानकीकृत, व्याकरण सम्मत कसावट वाली भाषा चाहिए। अर्थात संस्कारवती भाषा चाहिए। दूसरा कारण यह था कि बोली का क्षेत्र सीमित होता है। दूर-दूर तक विभिन्न भाषा बोलने वालों तक विचार पहुँचाने के लिए सार्वदेशिक भाषा का सहारा लेना पड़ेगा। इसी लिए लोक भाषा का साहित्य अपने क्षेत्र से बाहर पहुँचा तो उसका माध्यम भाषा बनी। इसी लिए लोक भाषा का साहित्य बहुत दिनों तक जीवित नहीं रहा। उसमें उतना ही बचा, जितने को किसी बड़े धार्मिक आंदोलन का सहारा मिला। दक्षिण के अलवार, कश्मीर की लल्ला, उत्तर के कबीर, रैदास, तुलसी, सूर, मीरा, सुंदरदास, सेन, रज्जब, जगजीवन साहब, धन्ना, महाराष्ट्र के नामदेव, एकनाथ, ज्ञानेश्वर, नरसी मेहता, - पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण - पूरे भारत के भक्ति आंदोलन की यह विशेषता रही कि अलग-अलग क्षेत्र की बोलियों ने इसे गाया तो भारत की समस्त भाषाओं ने इनका अध्ययन किया।
आधुनिक हिंदी भी पहले लोक भाषा थी लेकिन जैसे-जैसे उसमें ज्ञान विज्ञान के उच्चतर सूक्ष्म विचार आने लगे वैसे-वैसे मूल गुणों का ह्रास हाने लगा। अब धीरे-धीरे उसे वही स्थान मिलने लगा जो पहले संस्कृत के पास था। जिसे विशाल हिंदी प्रदेश कहा जाता है उसमें बहुत सी बोलियाँ बोली जाती हैं - भोजपुरी, अवधी, ब्रजभाषा, मैथिली, मगही, अंगिका, हरियाणवी, राजस्थानी, आदि। इनमें कई में साहित्य सृजन की स्वतंत्र लंबी परंपरा रही है। विशेषकर ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, और राजस्थानी में महान साहित्य मिलता है। डिंगल के चंद्रवरदाई, मैथिली के विद्यापति, भोजपुरी के कबीर, अवधी के जायसी और तुलसी, ब्रजभाषा के सूर, मीरा, और रीतिकाल के सभी कवि हिंदी के कवि माने जाते हैं लेकिन इनके अध्ययन में कठिनाई यह है कि कामता प्रसाद गुरू के 'हिंदी व्याकरण' की कसौटी इनके लिए नहीं है। न रामचंद्र वर्मा के 'मानक हिंदी शब्दकोश' में इनके द्वारा व्यवहृत शब्द हैं। वह शब्दकोश खड़ीबोली के शब्दों का है। अन्य भाषा भाषी हिंदी व्याकरण के आधार पर इनका अध्ययन नहीं कर सकते।
हिंदी को केवल पुराने, मध्ययुगीन और आधुनिक साहित्य के रूप में नहीं समझा जा सकता। उसे समझने के लिए देश की कौन भाषा कब केंद्राभिमुख और सबसे अधिक व्यापक प्रसारवाली भाषा कब-कब रही, किन भाषाओं की विरासत हिंदी को मिली, उस विरासत के रूप में कौन-कौन साहित्य हिंदी साहित्य में समाया हुआ है, यह समझना भी आवश्यक है। डॉ. धीरेंद्र वर्मा कहते थे कि भारत के मध्य प्रदेश (जिसे हिंदी भाषी क्षेत्रों का समुदाय कहा जाता है) की भाषा बराबर ऐसी रही जो दूसरी भाषाओं से संबंध स्थापित करती थी और परस्पर संयोजित करती थी। पहले संस्कृति ने यह भूमिका निभाई और शास्त्रीय ज्ञान के प्रसार के रूप में बराबर निभाती रही।
एक प्रकार से संस्कृत भारत की समस्त भाषाओं की सहवर्ती संस्कृति-भाषा है। उसके बाद पालि जो कोशल, मगध, कौशांबी, उज्जैनी में बोली जाने वाली जनपदीय भाषाओं के मानक के रूप में विकसित हुई, मध्यदेशीय भाषा होते हुए भी सार्वदेशिक भाषा हुई। थेरवाद बौद्ध संप्रदाय की वही पवित्र भाषा भारत के बाहर श्रीलंका, वर्मा, थाईलैंड, और लाओस में इसी प्रकार आज भी प्रतिष्ठित है। इसके अनंतर प्राकृत न केवल साहित्य की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हुई बल्कि वह जैन संप्रदाय और शासन की भाषा के रूप में भी प्रतिष्ठित हुई। इसके बाद नागर अपभ्रंश (जो मध्यदेशीय ही है) साहित्य की भाषा के रूप में सम्मानित हुआ। भारतीय रचनाकार छह-छह भाषाओं में निष्णात होते थे। उनसे अपेक्षा की जाती थी कि केवल संस्कृत में दक्षता काम नहीं आएगी, प्राकृत और अपभ्रंश में भी रचना कौशल चाहिए। कालिदास, अश्वघोष से लेकर विद्यापति तक के रचना-संसार की समृद्धि एकभाषीय न होकर बहुभाषीय है।
हिंदी का उदयकाल इसी भाषिक उदारता और व्यापकता की आकांक्षा से हुआ। इसके भीतर उपनिषदों का ज्ञान, योग के रहस्य, कालिदास जैसे कवियों का उक्ति-सौष्ठव बराबर छन-छन कर आता रहा। प्रकृति और संस्कृति में संतुलन एक प्रकार से हिंदी का स्वभाव रहा है। यह सब छन कर आता रहा, साथ ही अपने समय की जनता की सीधी अटपटी बानी का रस भी उसमें आता रहा। आदान-प्रदान और भाषाओं से सामंजस्य हिंदी का दूसरा पर्याय बन गया। यह आदान-प्रदान सत्ता के भाव से नहीं, यह शुद्ध आत्मदान के भाव से आया। कुछ रजवाड़ों में हिंदी सत्रहवीं शती के उत्तरार्द्ध से राजकाज की भाषा जरूर रही, पर इससे अधिक यह भाषा रही रमता जोगियों, साधु-संतों, तीर्थयात्रियों और बनिज के लिए दूर-दूर जाने वाले सौदागरों की अथवा हृदय को छूने वाले साहित्य की। यह हिंदी को चलाने वाला वर्ग नहीं था, हिंदी इनकी गतिशीलता का आधार बनी। गतिशीलता हिंदी का दूसरा पर्याय है।
लचीलापन, उछाल लिए लचीलापन हिंदी की एक और महत्वपूर्ण विशेषता है। वह बराबर दबावों में रही है। केवल दबाव सहने की क्षमता बड़ी बात नहीं है, दबाव में उमंगित रहना बड़ी बात है। सत्ता के दरबार में चाहे किसी भाषा का बोल-बाला हो, उमड़ती हुई सुरसरि की भाषा हिंदी थी। जनाकांक्षा की भाषा हिंदी थी। ऐसा नहीं होता तो संस्कृत के पंडित तुलसी 'भाषाभनिति' को इतना महत्व नहीं देते और पंडितों के पंडित मधुसूदन सरस्वती तक उन्हें आनंदकानन का 'जंगमतुलसीतरु' नहीं कहते। केवल लचीलापन होता तो हिंदी भी फारसी के रंग में रँग गई होती।
इस समय हिंदी नदी के भीतर पहाड़ खिसक जाने से जो होता है, उस स्थिति में है। 'न ययौ न तस्थौः' न आगे बढ़ पाती है न कुंड बनकर रह पाती है। यह पहाड़ अंग्रेजी का है। हिंदी के वे स्रोत जिनसे वह अपना जल भंडार भरती थी, उन जनपदीय भाषाओं के अविरल स्रोत को भी रोका जा रहा है यह तर्क देकर कि जनपदीय भाषाओं के उत्थान में हिंदी का पतन छिपा है। अब तो यह भी माँग हो रही है कि हिंदी का आरंभ भारतेंदु से माना जाय और उसके पूर्व का साहित्य चूँकि जनपदीय भाषाओं का है इसलिए उन्हें न पढ़ाया जाय। सत्ता के लिए हिंदी बाधक है क्योंकि यह जनभाषा है और सत्ताएँ हमेशा जनभाषाओं के विरोध में रही हैं। राजनीति ने उसे राष्ट्रभाषा का नाम दिया फिर राजभाषा, फिर संपर्क भाषा, फिर ऑफिसियल लैंग्वेज। देखते-देखते हिंदी का सगुण साकार रूप निर्गुण निराकार होता जा रहा है। पहले सुना था कि 'अमरकोश' सामने रखकर कविगण पर्याय तुकांत कविता में बैठाते थे। अब किसी विषय की पाठ्यपुस्तक लिखनी हो शब्दावली आपको सरकारी टकसाल से दी गई इस्तेमाल करनी पड़ेगी। इस प्रकार एक ओर मुँह पर ताला लगाया जा रहा है। दूसरी ओर अभियोग भी लगाया जा रहा है कि कृत्रिम हिंदी नहीं चलेगी। यह हिंदी नहीं चलेगी, इसे कुछ आसान बनाओ। लेकिन साहित्य ने इस दबाव को अस्वीकार कर दिया। यही हिंदी की जीवंतता है।
कहा जा रहा है कि अंग्रेजी हमारी अमानत है। अब वह सहचरी नहीं रही, वह कंधे पर सवार है। इसका एहसास कराया जाता है कि हिंदी है अंग्रेजी की कृपा से, साहित्य रचना में भी दबाव अंग्रेजी के द्वारा पहचान पाने का बढ़ रहा है। यह उलझन रचनात्मक संकट पैदा कर रही है। इस लिए यह याद कराना जरूरी है कि हिंदी केवल महावीर प्रसाद द्विवेदी की कसकर दुरुस्त की हुई हिंदी नहीं है। वह अपने भीतर संस्कृत की विचार क्षमता, विश्वमात्र को देखने वाली दृष्टि और अपने देशकाल से बाहर जाने की क्षमता समेटे हुए है। पालि-प्राकृत की जन-जन तक पहुँचने की प्यास समेटे हुए है। अवधी का प्रबंध रस भरे हुए है। ब्रजभाषा की मिठास और रवानगी लिए हुए है। वह डेढ़ सौ वर्षों में अन्य भाषाओं के साथ संपर्क निरंतर बढ़ाने का और स्वराज की भूमिका में उतरने का दायित्व सँभाले हुए हैं। अन्य भाषाओं के अंतःसंबंध से उसे शक्ति मिली है। किसी भाषा से उसका अंतर्विरोध नहीं है क्योंकि यह उसके स्वभाव में ही नहीं है।
हिंदी को एक ओर भोजपुरी, अवधी, बघेली, बुंदेली, ब्रज, कौरवी, गढ़वाली, कुमाऊँनी, हरियाणवी, पहाड़ी, राजस्थानी, मालवी, निमाड़ी, छत्तीसगढ़ी, मगही, और नगपुरिया बोलियों की उर्वरक्षमता को दुहने की अपेक्षा उनकी सर्जनात्मक प्रतिभा को विकसित करने में अपनी भूमिका निभानी है। इन सब की निधि हिंदी की निधि है। यह भाव तभी उचित होगा जब हम इस निधि की विशिष्टता की पहचान और साथ ही इस निधि की दूसरी जन-भाषाओं के साथ साझेदारी की पहचान कराने का दायित्व पूरी तरह सँभालें। इधर लेखन में आंचलिकता के नाम पर देशी परिवेश के साथ शब्दराशि तो आई है, पर इन लोकभाषाओं में रचना उपेक्षित होने के कारण एकांगी हो रही है। यह हिंदी का दायित्व है कि उनकी उपेक्षा न करके इन सोतों की तमाम प्रदूषणों से केवल रक्षा ही नहीं, इनके मर्म की पहचान व्यापक रूप से कराए। ये भाषाएँ निरी कौतुक या तमाशा नहीं, युगों-युगों के अनुभव की जीती-जागती दीप शिखाएँ हैं। ऐतिहासिक दाय के साथ हिंदी का वर्तमानकालीन दाय भी बड़ा है और उसे सँभालना बड़े मन से ही संभव है। यह मन विजेता होने की स्मृति में नहीं जीता, न उसके स्वप्न में। यह विजेता नहीं अपराजेय मन होता है। निराला के राम के मन की तरह - जो नहीं झुका - बराबर आत्मीयता का आवाहन करके अपने भीतर शक्ति भरता रहा। हिंदी का मन शाही मन नहीं, फकीरी मन है। वह अपनी टाट पर सब के लिए जगह बना लेता है। भाषा का बोली से कोई विरोध नहीं है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते थे कि दाहिनी आँख का बाईं आँख से क्या विरोध हो सकता है? यही समझ लेना चाहिए कि दोनों आँखें सही रहें तभी हम पूरा देख पाएँगे - उस मिट्टी की, जो बोली का बिछौना है, या उस भवन को जिसे उस मिट्टी ने बनाया है जो भाषा का घर है।
एक मुंडा लोकगीत है जिसमें मुंडा आदिवासी कहता है -
मैं सोता हूँ धरती पर
बादल ओढ़े घास के बिछौने पर
सोता हूँ मैं
इसलिए
कि मेरे कान धरती से सटे रहें।
जब रात गहराती है
तब कानों में धरती माता / अपनी रहस्यकथाएँ सुनाती है
दुलारती है / लोरी गा-गा सुलाती है
जिनके कान होते हैं
उससे दूर
धरती उनसे कुछ नहीं कहती
कभी नहीं कहती।
बोली की धरती पर हिंदी के कान होंगे तभी वह धरती की पीड़ा जान सकेगी या उसके उल्लास का अनुभव कर सकेगी। भाषा के कानों में जब बोली गुनगुनाती है तभी साहित्य का जन्म होता है। हिंदी के समस्त सर्जनात्मक साहित्य को इस आँख से देखा जा सकता है।