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वैचारिकी

मेरे सपनों का भारत

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुक्रम 20 सर्वोदयी राज्य पीछे     आगे

मुझसे कितने ही लोगों ने संदेह से सिर डुलाते हुए कहा है : 'लेकिन आप सामान्‍य जनता को अहिंसा नहीं सिखा सकते। हिंसा का पालन केवल व्‍यक्ति ही कर सकते है। और सो भी विरले व्‍यक्ति।' मेरी राय में यह साधरण एक मोटी भूल है। यदि मनुष्‍य-जाति आदतन अहिंसक न होती, तो उसने युगों पहले अपने हाथों अपना नाश कर लिया होता। लेकिन हिंसा और अहिंसा के पारस्‍परिक संघर्ष में अंत में अहिंसा ही सदा विजयी सिद्ध हुई है। सच तो यह है कि हमने राजनीतिक उद्देश्‍य की प्राप्ति के लिए लोगों में अहिंसा की शिक्षा के प्रसार की पूरी कोशिश करने जितना धीरज ही कभी प्रकट नहीं किया।

मेरी दृष्टि में राजनीतिक सत्‍ता कोई साध्‍य नहीं है, परंतु जीवन के प्रत्‍येक विभाग में लोगों के लिए अपनी हालत सुधार सकने का एक साधन है। राजनीतिक सत्‍ता का अर्थ है राष्‍ट्रीय प्रतिनिधियों द्वारा राष्‍ट्रीय जीवन का नियम करने की शक्ति। अगर राष्‍ट्रीय जीवन इतना पूर्ण हो जाता है कि वह स्‍वयं आत्‍म -नियमन कर ले, तो किसी प्रतिनिधित्त्‍व की आवश्‍यकता नहीं रह जाती। उस समय ज्ञानपूर्ण अराजकता की स्थिति हो जाती है। ऐसी स्थिति में हर एक अपना राजा होता है। वह इस ढँग से अपने पर शासन करता हे कि अपने पड़ोसियों के लिए कभी बाधक नहीं बनता। इसलिए आदर्श अवस्‍था में कोई राजनीतिक सत्‍ता नहीं होती, क्‍योंकि कोई राज्‍य नहीं होता। परंतु जीवन में आदर्श की पूरी सिद्धि कभी नहीं होती। इसीलिए थोरी ने कहा है कि जो सबसे कम शासन करे वही उत्‍तम सरकार है।

मैं राज्‍य की सत्‍ता की वृद्धि को बड़े-से-बड़े भय की दृष्टि से देखता हूँ। क्‍योंकि जाहिरा तौर तो वह शोषण को कम-से-कम करके लाभ पहुँचाती है। परंतु व्‍यक्तित्‍व को-जो सब प्रकार की उन्‍नति की जड़ है-नष्‍ट करके वह मानव-जाति को बड़ी-से-बड़ी हानि पहुँचाती है।

राज्‍य के केंद्रित और संगठित रूप में हिंसा का प्रतीक है। व्‍यक्ति के आत्‍मा होती है, परंतु चूँकि राज्‍य एक आत्‍मा-रहित जड़ मशीन होता है, इसलिए उससे हिंसा कभी नहीं छुड़वाई जा सकती; उसका अस्तित्‍व ही हिंसा पर निर्भर है।

मेरा यह पक्‍का विश्‍वास है कि अगर राज्‍य हिंसा से पंजीवाद को दबा देगा, तो वह स्‍वयं हिंसा की लपेट में फँस जाएगा और किसी भी समय अहिंसा की विकास नहीं कर सकेगा।

मैं स्‍वयं तो यह अधिक पसंद करूँगा कि राज्‍य के हाथों में सत्‍ता केंद्रित न करके ट्रस्‍टीशिप की भावना का विस्‍तार किया जाए। क्‍योंकि मेरी राज्य में व्‍यक्तिगत स्‍वामित्‍व की हिंसा राज्‍य की हिंसा से कम हानिकारक है। किंतु अगर यह अनिवार्य हो तो मैं कम-से-कम राजकीय स्‍वामित्‍व का समर्थन करूँगा।

मुझे जो बात नापसंपद है वह है बल के आधार बना हुआ संगठन; और राज्‍य ऐसा ही संगठन हे। स्‍वेच्‍छापूर्वक संगठन जरूर होना चाहिए।

सवाल यह है कि आदर्श समाज में कोई राजसत्‍ता रहेगी या वह एक बिलकुल अराजक समाज बनेगाᣛ? मेरे खयाल में ऐसा सवाल पूछने से कुछ भी फायदा नहीं हो सकता। अगर हम ऐसे समाज के लिए मेहनत करते रहें, तो वह किसी हद तक बनता रहेगा, और उस हद तक लोगों को उससे फायदा पहुँचेगा। युक्लिड ने कहा है कि लाइन वही हो सकती है जिसमें चौड़ाई न हो। लेकिन ऐसी लाइन या लकीर न तो आज तक कोई बना पाया, न बना पाएगा। फिर भी ऐसी लाइन को खयाल में रखने से ही प्रगति हो सकती है। और, हर एक आदर्श के बारे में यही सच है।

हाँ, इतना याद रखना चाहिए कि आज दुनिया में कहीं भी अराजक समाज मौजूद नहीं है। अगर कभी कहीं बन सकता है, तो उसका आरंभ हिंदुस्‍तान में ही हो सकता है। क्‍योंकि हिंदुस्‍तान में ऐसा समाज बनाने की कोशिश की गई है। आज तक हम आखिर दरजे की बहादुरी नहीं दिख सके; मगर उसे दिखाने का एक ही रास्‍ता है, और वह यह है कि जो लोग उसे मानते हैं वे उसे दिखाएँ। ऐसा कर दिखाने के लिए, जिस तरह हमने जेलों का डर छोड़ दिया है, उसी तरह हमें मृत्‍यु का डर भी छोड़ देना होगा।

पुलिस-बल

अहिंसक राज्‍य में भी पुलिस की जरूरत हो सकती है। मैं स्‍वीकार करता हूँ कि यह मेरी अपूर्ण अहिंसा का चिह्न है। मुझमें फौज की तरह पुलिस के बारे में भी यह घोषणा करने का साहस नहीं है कि हम पुलिस की ताक के बिना काम चला सकते हैं। अवश्‍य ही मैं ऐसे राज्‍य की कल्‍पना कर सकता हूँ और करता हूँ जिसमें पुलिस की जरूरत नहीं होगी; परंतु यह कल्‍पना सफल होगी या नहीं, यह तो भविष्‍य ही बताएगा।

परंतु मेरी कल्‍पना की पुलिस आजकल की पुलिस से बिलकुल भिन्‍न होगा। उसमें सभी सिपाही अहिंसा में मानने वालें होंगे। वे जनता के मालिक नहीं, सेवक होंगे। लोग स्‍वाभाविक रूप में ही उन्‍हें हर प्रकार की सहायता देंगे और आपस के सहयोग से दिन-दिन घटने वाले दंगों का आसानी से सामना कर लेंगे। पुलिस के पास किसा न किसी प्रकार के हथियार तो होंगे, परंतु उन्‍हें क्‍वचित् ही काम में लिया जाएगा। असल में तो पुलिस वालें सुधरक बन जाएँगे। उनका काम मुख्‍यत: चोर-डाकुओं तक सीमित रह जाएगा। मजदूर और पूँजीपतियों के झगड़े और हड़तालें अहिंसक राज्‍य में यदा-कदा ही होंगी, क्‍योंकि अहिंसक बहुमत का असर इतना अधिक रहेगा कि समाज के मुख्‍य तत्‍व उसका आदर करेंगे। इसी तरह सांप्रदायिक दंगों की भी गुजाइश नहीं रहेगी।


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