यदि भारतीय समाज को शांतिपूर्ण मार्ग पर सच्ची प्रगति करनी है, तो धनिक वर्ग को निश्चित रूप से स्वीकार कर लेना होगा कि किसान के पास भी वैसी ही आत्मा है जैसी उनके पास है और अपनी दौलत के कारण वे गरीब से श्रेष्ठ नहीं हैं। जैसा जापान के उमरावों ने किया, उसी तरह उन्हें भी अपने-आपको संरक्षक मानना चाहिए। उनके पास जो धन है उसे यह समझकर रखना चाहिए कि उसका उपयोग उन्हें अपने संरक्षित किसानों की भलाई के लिए करना है। उस हालत में वे अपने परिश्रम के कमीशन के रूप में वाजिब रकम से ज्यादा नहीं लेंगे। इस समय धनिक वर्ग के सर्वथा अनावश्यक दिखावे और फिजूल-खर्ची में तथा जिन किसानों के बीच में वे रहते हैं उनके गंदगी भरे वातावरण और कुचल डालने वाले दारिद्रय में कोई अनुपात नहीं है। इसलिए एक आदर्श जमींदार किसान का बहुत कुछ बोझा, जो वह अभी उठा रहा है, एकदम घटा देगा। वह किसानों के गहरे संपर्क में आएगा और उनकी आवश्यकताओं को जानकर उस निराशा के स्थान पर, जो उनके प्राणों को सुखाए डाल रही हैं, उनमें आशा का संचार करेगा। वह किसानों के सफाई और तंदुरुस्ती के नियमों के अज्ञान को दर्शक की तरह देखता नहीं रहेगा बल्कि इस अज्ञान को दूर करेगा। किसानों के जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए वह स्वयं अपने को दरिद्र बना लेगा। वह अपने किसानों की आर्थिक स्थिति का अध्ययन करेगा और ऐसे स्कूल खोलेगा, जिनमें किसानों के बच्चों के साथ-साथ अपने खुद के बच्चों को भी पढ़ाएगा। वह गाँव के कुएँ और तालाब को साफ कराएगा। वह किसानों को अपनी सड़कें और अपने पाखाने खुद आवश्यक परिश्रम करके साफ करना सिखाएगा। वह किसानों के बेरोक-टोक इस्तेमाल के लिए अपने खुद के बाग-बगीचे नि:संकोच भाव से खोल देगा। जो गैर-जरूरी इमारतें वह अपनी मौज के लिए रखता है, उनका उपयोग अस्पताल, स्कूल या ऐसे ही कामों के लिए करेगा।
किसानों का-फिर वे भूमिहीन मजदूर हों या मेहनत करने वाले जमीन-मालिक हों-स्थान पहला है। उनके परिश्रम से ही पृथ्वी फलप्रसू और समृद्ध हुई हैं और इसलिए सच कहा जाए तो जमीन उनकी ही है या होनी चाहिए, जमीन से दूर रहने वाले जमींदारों की नहीं। लेकिन अहिंसक पद्धति में मजदूर-किसान इन जमींदारों से उनकी जमीन बलपूर्वक नहीं छीन सकता। उसे इस तरह काम करना चाहिए कि जमींदार के लिए उसका शोषण करना असंभव हो जाए। किसानों में आपस में घनिष्ठ सहकार होना नितांत आवश्यक है। इस हेतु की पूर्ति के लिए, जहाँ वैसी समितियाँ न हों वहाँ वे बनाई जानी चाहिए और जहाँ हों वहाँ आवश्यक होने पर उनका पुनर्गठन होना चाहिए। किसान ज्यादातर अनपढ़ हैं। स्कूल जाने की उमर वालों को और वयस्कों को शिक्षा दी जानी चाहिए। शिक्षा पुरूषों और स्त्रियों, दोनों को दी जानी चाहिए। भूमिहीन खेतिहर मजदूरों को मजदूरी इस हद तक बढ़ाई जानी चाहिए कि वे सभ्य जनोचित जीवन की सुविधाएँ प्राप्त कर सकें। यानी, उन्हें संतुलित भोजन और आरोग्य की दृष्टि से जैसी चाहिए वैसे घर और कपड़े मिल सकें।
मुझे इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि हमें लोकतांत्रिक स्वराज्य हासिल हो और यदि हमने अपनी स्वतंत्रता अहिंसा से पाई तो जरूर ऐसा ही होगा- तो उसमें किसानों के पास राजनीतिक सत्ता के साथ हर किस्म की सत्ता होनी चाहिए।
अगर स्वराज्य सारी जनता की कोशिशों के फलस्वरूप आता है, और चूँकि हमारा हथियार अहिंसा है इसलिए ऐसा ही होगा, तो किसानों को उनकी योग्य स्थिति मिलनी ही चाहिए और देश में उनकी आवाज ही सबसे ऊपर होनी चाहिए। लेकिन यदि ऐसा नहीं होता है और मर्यादित मताधिकार के आधार पर सरकार और प्रजा के बीच कोई व्यवहारिक समझौता हो जाता है, तो किसानों के हितों को ध्यान से देखते रहना होगा। अगर विधान-सभाएँ किसानों के हितों की रक्षा करने में असमर्थ सिद्ध होती हैं, तो किसानों के पास सविनय अवज्ञा और असहयोग का अचूक इलाज तो हमेशा होगा ही। लेकिन ....अंत में अन्याय या दमन से जो चीज प्रजा की रक्षा करती है, वह कागजों पर लिखे जाने वाले कानून, वीरतापूर्ण शब्द या जोशीले भाषण नहीं हैं, बल्कि अहिंसक संघटन, अनुशासन और बलिदान से पैदा होने वाली ताकत हैं।