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वैचारिकी

मेरे सपनों का भारत

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुक्रम 28 ग्राम-प्रदर्शनियाँ पीछे     आगे

अगर हम यह चाहते हैं और मानते हैं कि गाँवों को न केवल जीवित रहना चाहिए, बल्कि उन्‍हें बलवाल तथा समृद्ध बनना चाहिए, तो हमारे दृष्टिकोण में गाँव की ही प्रधानता होनी चाहिए। और यदि यह सही हो तो फिर हमारी प्रदर्शनियों में शहरों की तड़क-भड़क के लिए कोई जगह नहीं हो सकती। शहरी खेलों या मनोरंजनों की भी कोई जरूरत नहीं। हम अपनी प्रदर्शनी को 'तमाशे' का रूप नहीं दे सकते, और न उसे आय का साधन ही बना सकते हैं। उसे व्‍यापारियों के लिए उनके माल का विज्ञापन करने वाला साधन भी नहीं बनने देना चाहिए। वहाँ किसी तरह की बिक्री नहीं होनी चाहिए। प्रदर्शनी को शिक्षा का माध्‍यम होना चाहिए, उसे आकर्षक होना चाहिए और ऐसा होना चाहिए जिसे देखकर गाँव वालों को कोई ग्रामद्योग सीखने और चलाने की प्रेरणा मिले। उसे मौजूदा ग्राम-जीवन की त्रुटियाँ और कमियाँ दिखानी चाहिए और उन्‍हें सुधारने के उपाय बताने चाहिए। उसे यह भी बताना चाहिए कि जब ग्राम-सुधार के इस आंदोलन का आरंभ हुआ तब से आज तक इस दिशा में क्‍या-क्‍या किया जा चुका है। उसे यह भी सिखाना चाहिए कि ग्राम-जीवन को सुंदर और कलामय कैसे बनाया जा सकता है।

अब हम देखें कि यदि ये सब शर्तें पूरी की जाएँ तो प्रदर्शनी का रूप क्‍या हो :

1. गाँवों के दो तरह के नमूने दिखाए जाएँ-एक तो जैसे वे आज हैं उसका और दूसरा सुधरा हुआ, जैसा कि हम उसे बनाना चाहते हैं। सुधरा हुआ गाँव एकदम साफ-सुथरा होगा। उसके घर, गलियाँ और सड़कें, आस-पास की जमीन और खेत, सब स्‍वच्‍छ होंगे। मवेशियों की हालत भी आज से बेहतर होगा। किताबों, नक्‍शों और वस्‍वीरों के द्वारा यह दिखाना चाहिए कि किन उद्योग से ज्‍यादा आय हो सकती है और कैसे।

2. उसे यह जरूर बताना चाहिए कि विविध ग्रामद्योग कैसे चलाए जाए, उनके जरूरी औजार कहाँ से मिल सकते हैं, और उन्‍हें कैसे बनाया जा सकता है। हर एक उद्योग की कार्य-प्रणाली प्रत्‍यक्ष करके दिखाई जानी चाहिए। इनके सिवा नीचे लिखी बातें भी रहनी चाहिए :

(क) आदर्श ग्राम-आहार

(ख) ग्रामोद्योगों और यंत्र-उद्योगों की तुलना

(ग) पशु-पालन की आदर्श शिक्षा

(घ) कला-विभाग

(ङ) ग्रामीण पाखाने का आदर्श नमूना

(च) खेतों से मिलने वाले, यानी कूड़ा-कचरा और गोबर के योग से बनने वाले, खाद और रासयनिक खाद की तुलना

(छ) मवेशियों के चमड़े और उनकी हड्डियों आदि का उपयोग

(ज) ग्रामीण संगीत, ग्रामीण वाद्य और ग्रामीण नाटक

(झ) ग्रामीण खेल, अखाड़े और शारीरिक व्‍यायम के प्रकार

(ञ) नई तालीम

(ट) ग्रामीण दवाइयाँ

(ठ) ग्रामीण प्रसूति-ग्रह।

लेख के आरंभ में बताई गई नीति को ध्‍यान में रखकर इस सूची में और वृद्धि की जा सकती है। मैंने जो कुछ बताया है वह केवल मार्ग-दर्शन के लिए है। उसमें सब आ गया हैं, ऐसी बात नहीं है। मैंने चरखे की और दूसरे ग्रामोद्योगों की चर्चा नहीं की हैं, क्‍योंकि उनकी आवश्‍यकता तो अब एक जानी-मानी चीज हो गई है। उनके बिना प्रदर्शनी एकदम व्‍यर्थ होगी।


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