स्वदेशी की भावना का अर्थ है हमारी यह भावना, जो हमें दूर को छोड़कर अपने समीपवर्ती प्रदेश का ही उपयोग और सेवा करना सिखाती है। उदाहरण के लिए इस परिभाषा के अनुसार धर्म के संबंध में यह कहा जाएगा कि मुझे अपने पूर्वजों से प्राप्त धर्म का ही पालना करना चाहिए। अपने समीपवर्ती धार्मिक परिवेष्टन का उपयोग इसी तरह हो सकेगा। यदि मैं उसमें दोष पाऊँ तो मुझे उन दोषों को दूर करके उसकी सेवा करना चाहिए। इसी तरह राजनीति के क्षेत्र में मुझे स्थानीय संस्थाओं का उपयोग करना चाहिए और उनके जाने-माने दोषों को दूर करके उनकी सेवा करनी चाहिए। अर्थ के क्षेत्र में मुझे अपने पड़ोसियों द्वारा बनाई गई वस्तुओं का ही उपयोग करना चाहिए और उन उद्योगों की कमियाँ दूर करके, उन्हें ज्यादा संपूर्ण और सक्षम बनाकर उनकी सेवा करना चाहिए। मुझे लगता है कि यदि स्वदेशी को व्यवहार में उतारा जाए, तो मानवता के स्वर्णयुग की अवतारणा की जा सकती है। ...
ऊपर स्वदेशी की जिन तीन शाखाओं का उल्लेख हुआ है, उन पर अब हम थोड़ा विचार करें। हिंदू धर्म उसकी बुनियाद में निहित इस स्वदेशी की भावना के कारण ही स्थितिशील और फलस्वरूप अत्यंत शक्तिशाली बन गया। चूँकि वह दूसरे धर्मों के अनुयायियों को अपने दायरे में खींचने को न तो इच्छा ही रखता है और न प्रयत्न ही करता है, इसलिए वह सबसे ज्यादा सहिष्णु है और आज भी वह अपना विस्तार करने की वैसी ही योग्यता रखता है जैसा कि वह भूतकाल में दिखा चुका है। कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि उसने बौद्ध धर्म को खदेड़कर भारत के बाहर भगा दिया। यह धारणा गलत है। उलटे उसने बौद्ध धर्म का आत्म सात् कर लिया है। स्वदेशी की भावना के ही कारण हिंदू अपने धर्म का परिवर्तन करने से इनकार करता है। इसका यह अर्थ नहीं कि उसे सर्वश्रेष्ठ मानता है, लेकिन वह जानता है कि वह उसमें जरूरी सुधार दाखिल कर सकता है और उसे संपूर्ण बना सकता है। और जो कुछ मैंने हिंदू धर्म के बारे में कहा है, मेरा खयाल है वह सब दुनिया के दूसरे धर्मों के लिए भी सही है। अंतर केवल यह है कि हिंदू धर्म के लिए यह विशेष रूप से सही है। यहाँ मुझे एक बात कहनी है। भारत में काम करने वाली मिशनरी संस्थाओं ने भारत के लिए बहुत-बहुत किया है और अभी भी कर रही हैं और कोई सत्य है, तो क्या यह ज्यादा अच्छा न होगा कि वे धर्म-परविर्तन का कार्य छोड़ दें और केवल परोपकार की ही प्रवृत्तियाँ जारी रखेंᣛ? क्या इस तरह वे ईसाई धर्म के आंतरिक तत्व की अधिक सेवा नहीं करेंगी?
स्वदेशी की भावना की खोज करते हुए जब मैं देश की संस्थाओं पर नजर, डालता हूँ, तो मुझे ग्राम-पंचायतें बहुत ज्यादा आकर्षित करती हैं। भारत वस्तुत:प्रजातंत्र का उपासक देश है, और वह प्रजातंत्र का उपासक है इसलिए वह उन सब चोटों को सह सका है, जो आज तक उस पर की गई हैं। राजाओं और नवाबों ने, वे भारतीय रहे हों या विदेशी, प्रजा से सिर्फ कर वसूल किया है, उसके सिवा प्रजा से उनका कोई संपर्क शायद ही रहा है। और प्रजा ने राजा को उसका प्राप्य देकर अपना बाकी जीवन-व्यवहार अपनी इच्छा के अनुसार चलाया है। वर्ण और जातियों का विशाल संघटन न केवल समाज की धार्मिक आवश्यकताएँ पूरी करता था, बल्कि उसकी राजनीतिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी करता था। गाँव वाले अपना आंतरिक कामकाज जाति-संघटन के द्वारा चलाते थे और उसी के द्वारा वे राजकीय शक्ति के अत्याचारों का भी मुकाबला करते थे। जाति-संघटन के द्वारा अपनी संघटन-शक्ति का ऐसा अच्छा परिचय जिस राष्ट्र ने दिया है, उसकी संघटन-शक्ति की क्षमता से इनकार नहीं किया जा सकता। आप हरिद्वार के कुंभ मेले को देखें। आपको पता चल जाएगा कि जो संघटन लगभग अनायास ही लाखों तीर्थयात्रियों की व्यवस्था कर सकता है, वह कितना कौशलपूर्ण न होगाᣛ? फिर भी यह कहने की फैशन हो गई है कि हम लोगों में संघटन की योग्यता नहीं है। हाँ, यह बात उनके बारे में अमुक हद तक सही हो सकती है, जो नई परंपराओं में पले और बड़े हुए हैं।
स्वदेशी की भावना से हट जाने के कारण हमें भयंकर विघ्न-बाधाओं से गुजरना पड़ा है। हम शिक्षित वर्ग के लोगों को हमारी शिक्षा विदेशी भाषा के माध्यम से मिली है। इसलिए आम जनता को हम तनिक भी प्रभावित नहीं कर सके हैं। हम जनता का प्रतिनिधित्व करना चाहते हैं, पर हम उसमें असफल सिद्ध होते हैं। वे किसी अँग्रेज अधिकारी को जितना जानते-पहिचानते हैं, उससे अधिक हमें नहीं जानते-पहिचानते। उनके दिल में क्या है, इसे न अँग्रेज शासन जानते हैं, न हम लोग। उनकी आकांक्षाएँ हमारी आकांक्षाएँ नहीं हैं। इसलिए हमारी और उनका संबंध-सूत्र टूट-सा गया है। हम प्रजा का संघटन करने में असफल सिद्ध हुए हैं, यह बात नहीं है; सच बात यह है कि प्रतिनिधियों में और प्रजा में आपस का नाता ही नहीं है। अगर पिछले पचास वर्षों में हमें अपनी ही भाषाओं के माध्यम से शिक्षा मिली होती, तो हमारी बड़े-बूढ़े, घर के नौकर और पड़ोसी, सब हमारे उस ज्ञान में हिस्सा लेते। बोस और राय जैसे वैज्ञानिकों के आविष्कार रामायण और महाभारत की तरह ही हर एक घर में प्रवेश कर जाते। अभी तो स्थिति ऐसी है कि जनता के लिए ये आविष्कार विदेश वैज्ञानिकों द्वारा किए गए आविष्कारों जैसे ही हैं। यदि विविध पाठ्य-विषयों की शिक्षा देशी भाषाओं द्वारा दी गई होती, तो मैं यह कहने का साहस करता हूँ कि हमारी इन भाषाओं की आश्यर्चजनक समृद्धि हुई होती। गाँवों की स्वच्छता आदि के सवाल वर्षों पहले हल हो गए होते। ग्राम-पंचायतें जीवित शक्ति के रूप में काम कर रही होती, भारत को जैसा स्वराज्य चाहिए वैसा स्वराज्य वह भोगता होता और उसे अपनी पुनीतभूमि पर संघटित हत्या का अपमानकारी दृश्य न देखना पड़ता। खैर, अभी भी अवसर है कि हम अपनी भूलें सुधार लें।
अब हम स्वदेशी की अंतिम शाखा पर विचार करें। यहाँ भी जनता की अधिकांश गरीबी का कारण यह है कि आर्थिक और औद्योगिक जीवन में हमारे स्वदेशी के नियम का भंग किया है। अगर भारत में व्यापार की कोई भी वस्तु विदेशों से न लाई गई होती, तो हमारी भूमि में दूध और मधु की नदियाँ बहती होती। लेकिन यह तो होना नहीं था। हमें लोभ था और इंग्लैंड को भी लोभ था। इग्लैंड और भारत का संबंध स्पष्टतया गलती पर कायम था। लेकिन यहाँ रहले में वह गलती नहीं कर रहा है। यहाँ रहने में उसकी घोषित नीति यह है कि वह भारत को अपनी संपत्ति नहीं मानता; वह उसे जनता की धरोहर के रूप में उसी के भले के लिए अपने पास रख रहा है। अगर यह सही है तो लंकाशायर को भारत में व्यापार करने का लालच छोड़ देना चाहिए। और यदि स्वदेशी का सिद्धांत सही है तो इससे लंकाशायर की कोई हालि नहीं होगी। अलबत्ता, शुरू में कुछ समय के लिए उसे कुछ अटपटा-सा लगेगा। मैं स्वदेशी को बदला लेने के लिए चलाया गया बहिष्कार का आंदोलन नहीं मानता। मैं उसे ऐसा धार्मिक सिद्धांत मानता हूँ, जिसका पालन सब लोगों को करना चाहिए। मैं अर्थशास्त्री नहीं हूँ लेकिन मैंने कुछ किताबें पढ़ी हैं, जिनमें बतलाया गया है कि इंग्लैंड आसानी से अपनी सारी जरूरतें खुद पैदा करने वाला आत्म -निर्भर देश बनि सकता था। हो सकता है यह बात हास्यास्पद हो; और वह सच नहीं हो सकती, इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि इग्लैंड दुलिया के उन देशों में है जो बाहर से सबसे ज्यादा माल आयात करते हैं। लेकिन जब तक भारत अपने जीवन का उत्तम निर्वाह करने योग्य नहीं हो जाता है, तब तक उससे यह आशा नहीं की जा सकती कि यह लंकाशायर के अथवा किसी दूसरे देश के लिए जिए। और वह अपने जीवन का उत्तम निर्वाह तभी कर सकता है जब वह-अपने प्रयत्न से या दूसरों की मदद लेकर-अपनी आवश्यकता की सारी वस्तुएँ अपनी ही सीमा में उत्पन्न करने लगे। उसे नाशकारी प्रतिस्पर्धा के उस चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए, जो आपसी लड़ाई-झगड़, ईर्ष्या और अन्य अनेक बुराइयों को जन्म देता है। लेकिन उसके बड़े सेठों और करोड़पतियों की इस विश्वव्यापी प्रतिस्पर्धा में पड़ने से कौन रोकेगा? कानून तो निश्चय ही ऐसा नहीं कर सकता। लेकिन लोकमत का बल और समुचित शिक्षा आवश्य इस दिशा में बहुत कुछ कर सकती है। हाथ-करघा उद्योग लगभग मरने की स्थिति में है। अपनी यात्राओं में... मैनें भरसक ज्यादा-से-ज्यादा बुनकरों से मिलने और उनकी कठिनाइयाँ समझने की कोशिश की और मुझे यह देखकर हार्दिक दु:ख हुआ कि किसी तरह अनेक बुनकर परिवारों को यह उद्योग-जो किसी समय तरक्की पर था और सम्मानास्पद माना जाता था-छोड़ देना पड़ा है।
अगर हम स्वेदशी के सिद्धांत का पालन करे, तो हमारा और आपका यह कर्त्तव्य होगा कि हम उन बेरोजगार पड़ोसियों को ढूँढ़े, जो हमारी आवश्यकता की वस्तुएँ, हमें देख सकते हों और यदि वे इन वस्तुओं को बनाना न जानते हों तो उन्हें उसकी प्रक्रिया सिखाएँ। ऐसा हो तो भारत का हर एक गाँव लगभग एक स्वाश्रयी और स्वयंपूर्ण इकाई बन जाए। दूसरे गाँव के साथ उन चंद वस्तुओं का आदान-प्रदान जरूर करेगा, जिन्हें वह खुद अपनी सीमा में पैदा नहीं कर सकता। मुमकिन है कुछ लोगों को यह बात व्यर्थ मालूम हो। उन लोगों से मैं कहूँगा कि भारत एक विचित्र देश है। कोई दयालु मुसलमान शुद्ध पानी पिलाने के लिए तैयार हो, तो भी हजारों परंपरावादी हिंदू ऐसे है जो प्यास से अपना गला सूखने देंगे, लेकिन मुसलमान के हाथ का पानी नहीं पिएँगे। यह बात अर्थहीन तो है, लेकिन इस देश में वह होती है। इसी तरह इन लोगों को एक बार इस बात का निश्चय करा दिया जाए कि धर्म के अनुसार उन्हें भारत में ही बने हुए कपड़े पहनना चाहिए और भारत में ही पैदा हुआ अन्न खाना चाहिए, तो फिर वे कोई दूसरे पकड़े पहनने या दूसरा अन्न खाने से इनकार कर देंगे।
भगवद्गीता का एक श्लोक है, जिसमें कहा गया है कि सामान्य जन श्रेष्ठ जनों का अनुकरण करते हैं। स्वदेशी व्रत लेने पर कुछ समय तक असुविधाएँ तो भोगनी पड़ेंगी, लेकिन उन असुविधाओं के बावजूद यदि समाज के विचारशील व्यक्ति स्वदेशी का व्रत अपना लें, तो हम उन अनेक बुराइयों का निवारण कर सकते हैं जिनसे हम पीड़ित हैं। मैं कानून द्वारा किए जाने वाले हस्तक्षेप को, वह जीवन के किसी भी विभाग में क्यों न किया जाए, बिलकुल नापसंद करता हूँ। उसके समर्थन में ज्यादा-से-ज्याद यही कहा जा सकता है कि दूसरी बुराई की तुलना में वह कम बुरी है। लेकिन अपनी इस नापसंदगी के बावजूद मैं विदेशी माल पर सख्त आया-कर लगाना न सिर्फ सह लूँगा, बल्कि मैं चाहूँगा कि ऐसा किया जाए। नेटाल एक ब्रिटिश उपनिवेश है, किंतु उसने एक दूसरे ब्रिटिश उपनिवेश मारीशस से आने वाली शक्कर पर काफी कर लगाया था और इस तरह अपनी शक्कर की रक्षा की थी। इंग्लैंड ने भारत पर स्वतंत्र व्यापार की नीति लादकर भारत के प्रति बड़ा अन्याय किया है। यह नीति इंग्लैंड के लिए आहार की तरह पोषक सिद्ध हुई होगी, किंतु भारत के लिए तो वह जहर साबित हुई है।
कहा जाता है कि भारत कम-से-कम आर्थिंक जीवन में तो स्वदेशी के नियम का आचरण नहीं कर सकता। जो लोग यह दलील देते हैं वे स्वेदशी को जीवन के एक अनिर्वाय सिद्धांत के रूप में नहीं मानते। उनके लिए वह महज देश-सेवा का कार्य है, जो अगर उसमें ज्यादा आत्मा-निग्रह करना पड़ता हो तो छोड़ भी जा सकता है। जैसा कि ऊपर बताया गया है, स्वदेशी एक धार्मिक नियम है जिसका पालन उससे होने वाले सारे शारीरिक कष्टों के बावजूद भी होना चाहिए। स्वदेशी का सच्चा प्रेम हो तो सुई या पिन जैसी चीजों का अभाव-क्योंकि वे भारत में नहीं बनती हैं-भय का कारण नहीं होना चाहिए। स्वदेशी का व्रत लेने ऐसी सैकड़ों चीजों के बिना ही अपना काम चलाना सीख लेगा, जिन्हें आज वह जरूरी समझता है। फिर यह बात भी तो है जो लोग स्वेदशी को असंभव कहकर टाल देना चाहते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि स्वदेशी आखिर एक आदर्श है जिसे लगातार कोशिश करके क्रमश: प्राप्त करना है। और यदि फिलहाल हम इस नियम को अमुक वस्तुओं तक ही मर्यादित रखें और जो वस्तुएँ देश में प्राप्त नहीं हैं उनका उपयोग जारी रखें, तो भी हम आदर्श की दिशा में बढ़ते रह सकते हैं।
अंत में मुझे स्वदेशी के खिलाफ उठाए जाने वाले एक अन्य आक्षेप पर और विचार करना है। आक्षेपकारों का कहना है कि वह एक अत्यंत स्वार्थपूर्ण सिद्धांत है और सभ्यजनों की मानी हुई नीति में उसे कोई स्थान नहीं हो सकता। वे समझते हैं कि स्वदेशी का पालन तो असभ्यता के युग की और लौटने जैसा होगा। मैं यहाँ इस कथन का विस्तृत विश्लेषण नहीं कर सकता। किंतु मैं यह कहूँगा कि नम्रता और प्रेम के नियमों के साथ एकमात्र स्वदेशी का ही मेल बैठ सकता है। यदि मैं अपने परिवार को भी यथोचित सेवा नहीं कर पाता हूँ, तो उस हालत में मेरा संपूर्ण भारत की सेवा का विचार करना दुरभिमान ही कहा जाएगा। उस हालत में तो यहीं अच्छा होगा कि मैं अपना प्रयत्न परिवार की सेवा पर ही केंद्रित करूँ और एसा समझूँ कि परिवार की सेवा द्वारा मैं पूरे देश की या यों कहो कि पूरी मानव-जाति की सेवाकर रहा हूँ। नम्रता और प्रेम इसी में है। कार्य का मूल्य उसके प्रेरक हेतु से निश्चित होता है। परिवार की सेवा मैं उससे दूसरों को होने वाले कष्टों की परवाह किए बिना भी कर सकता हूँ। उदाहरण के लिए, हम लोगों से जबरदस्ती उनका पैसा छीनने का पेश अख्तियार कर सकते हैं। उसके द्वारा हम धनवान बनकर परिवार की अनेक अनुचित माँगों को पूराकर सकते हैं। लेकिन यदि हम ऐसा करें तो उससे न तो परिवार की सेवा होगी और न राज्य की। परिवार की सेवा का दूसरा तरीका यह होगा कि मैं इस बात को पहिचान लूँ कि भगवान ने मुझे अपने आश्रितों के पोषण के लिए हाथ-पाँव दिए हैं, और मुझे उनसे काम लेना चाहिए। ऐसा हो तो मैं एकदम अपना और जिनसे मेरा सीधा संबंध है उनका जीवन सादा बनाने में लग जाऊँगा। यदि मैं ऐसा करूँ तो अपने परिवार की भी सेवा करूँगा और किसी दूसरे की कोई हानि भी नहीं करूँगा। अगर हर एक आदमी यह जीवन-पद्धति अपना ले, तो एकदम आदर्श स्थिति को एक साथ नहीं प्राप्त करेंगे। लेकिन जिन लोगों ने इस बात को समझ लिया है और इसलिए जो उसे अपने आचरण में उतारेंगे, वे स्पष्टत: उस शुभ दिन को पास लाने में बड़ी मदद करेंगे। जीवन की इस योजना में मैं केवल भारत की ही सेवा करता दिखता हूँ, फिर भी मैं किसी दूसरे देश को हानि नहीं पहुँचाता। मेरी देशभक्ति वर्जनशील भी है और ग्रहणशील भी है। वह वर्जनशील इस अर्थ में है कि मैं अत्यंत नम्रतापूर्वक अपना ध्यान अपनी जन्मभूमि पर ही देता हूँ और ग्रहणशील इस अर्थ में है कि मेरी सेवा में स्पर्धा या विरोध की भावना बिलकुल नहीं है। 'अपनी संपत्ति का उपयोग इस तरह करों कि उससे तुम्हारे पड़ोसी को को कोई कष्ट न हो' - यह केवल कानून का सिद्धांत नहीं, परंतु एक महान जीवन-सिद्धांत भी है। वह अहिंसा या प्रेम के समुचित पालन की कुंजी है।
लेकिन जो लोग चरखे से जैसे-तैसे सूत कातकर खादी पहन-पहना कर स्वदेशी-धर्म का पूरा पालन हुआ मान लेते हैं, वे बड़े मोह में डूबे हुए हैं। खादी सामाजिक स्वदेशी की प्रथम सीढ़ी है, वह स्वदेशी-धर्म की आखिरी हद नहीं है। ऐसे खादीधारी देखे गए हैं, जो और सब चीजें परदेशी खरीदते हैं। वे स्वदेशी-धर्म का पालन नहीं करते। वे तो सिर्फ चालू बहाव में बह रहे है। स्वदेशी व्रत का पालन करने वाले हमेशा अपने आस-पास निरीक्षण करेगा और जहाँ-जहाँ पड़ोसियों की सेवा की जा सके, यानी जहाँ-जहाँ उनके हाथ का तैयार किया हुआ जरूरत का माल होगा, वहाँ दूसरा छोड़कर उसे लेगा। फिर भले ही स्वदेशी चीज पहले-पहल महँगी और कम दरजे की हो। व्रत धारी उसको सुधार ने की कोशिश करेगा। स्वदेशी खराब है, इसलिए कायर बनकर वह परदेशी का इस्तेमाल करने नहीं जाएगा।
लेकिन स्वदेशी-धर्म जानने वाला अपने कुएँ में डूब नहीं जाएगा। जो चीज स्वदेशी में नहीं बनती हो या बड़ी तकलीफ से बन सकती हो, वह परदेश के द्वेष के कारण अपने देश में बनाने लग जाए तो उसमें स्वदेशी-धर्म नहीं है। स्वदेशी-धर्म पालने वाला परदेशी का द्वेष कभी नहीं करेगा। इसलिए पूर्ण स्वदेशी में किसी का द्वेष नहीं हैं। वह संकुचित धर्म नहीं है। वह प्रेम में से-अहिंसा में से-निकला हुआ सुंदर धर्म है।