अब तो यह बात निर्विवाद सिद्ध हो चुकी है कि तंदुरुस्ती के नियमों को न जानने से और उन नियमों के पालन में लापरवाह रहने से ही मनुष्य-जाति का जिन-जि रोगों से परिचय हुआ है, उनमे से ज्यादातर रोग उसे होते हैं। बेशक, हमारे देश की दूसरे देशों से बढ़ी-चढ़ी मृत्यु संख्या का ज्यादातर कारण गरीबी है। जो हमारे देशवासियों के शरीर को कुरेदकर खा रही है; लेकिन अगर उनकी तंदुरुस्ती के नियमों की ठीक-ठीक तालीम दी जाए, तो इसमें बहुत कमी की जा सकती है।
मनुष्य-जाति के लिए साधारणत: पहला नियम यह है कि मन चंगा है तो शरीर भी चंगा है। नीरोग शरीर में निर्विकार मन का वास होता है, यह एक स्वयं सिद्ध सच्चाई है। मन और शरीर के बीच अटूट संबंध है। अगर हमारे मन निर्विकार यानी नीरोग हों, तो वे हर तरह की हिंसा से मुक्त हो जाएँ; फिर हमारे हाथों तंदुरुस्ती के नियमों का सहज भाव से पालन होने लगे और किसी तरह की खास कोशिश के बिना ही हमारे शरीर तंदुरुस्त रहने लगें। इन कारणों से मैं यह आशा रखता हूँ कि कोई भी कांग्रेसी रचनात्मक कार्यक्रम के इस अंग के बारे में लापरवाह न रहेगा। तंदुरुस्ती के कायदे और आरोग्यशास्त्र के नियम बिलकुल सरल और सादे हैं, और वे आसानी से सीखे जा सकते हैं। मगर उन पर अमल करना मुश्किल है। नीचे मैं ऐसे कुछ नियम देता हूँ:
1. हमेशा शुद्ध विचार करों और तमाम गंदे व निकम्मे विचारों को मन से निकाल दो।
2. दिन-रात ताजी-से-ताजी हवा का सेवन करो।
3. शरीर और मन के काम का तौल बनाए रखो, यानी दोनों को बेमेल न होने दो।
4. तनकर खड़े रहो, तनकर बैठो और अपने हर काम से साफ-सुथरे रहो; और इन सब आदतों को अपनी आंतरिक स्वस्थता का प्रतिबिंब बनने दो।
5. खाना इसलिए खाओं कि अपने जैसे अपने मानव-बंधुओं की सेवा के लिए ही जिया जा सके। भोग-भोगने के लिए जीने और खाने का विचार छोड़ दो। अतएव उतना ही खाओं जितने से आपका मन और आपका शरीर अच्छा हालत में रहे और ठीक से काम कर सके। आदमी जैसा खाना खाता है, वैसा ही बन जाता है।
6. आप जो पानी पीएँ, जो खाना खाएँ और जिस हवा में साँस लें, वे सब बिलकुल साफ होने चाहिए। आप सिर्फ निज की सफाई से संतोष न मानें, बल्कि हवा पानी और खुराक की जितनी सफाई आप अपने लिए रखें, उतनी ही सफाई का शौक आप अपने आस-पास के वातावरण में भी फैलाएँ।
न्यूनतम आहार
एक समय एक ही अनाज इस्तेमाल करना चाहिए। चपाती, दाल-भात, दूध-घी, गुड़ और तेल ये खाद्य-पदार्थ सब्जी-तरकारी और फलों के उपरांत आम तौर पर हमारे घरों में इस्तेमाल किए जाते हैं। आरोग्य की दृष्टि से यह मेल ठीक नहीं है। जिन लोगों को दूध, पनीर, अंडे या माँस के रूप में 'स्नायुवर्धक तत्त्व' मिल जाते हैं, उन्हें दाल की बिलकुल जरूरत नहीं रहती। गरीब लोगों को तो सिर्फ वनस्पति द्वारा ही स्नायुवर्धक तत्त्व मिल सकते हैं। अगर धनिक वर्ग दाल और तेल लेना छोड़ दे, तो गरीबों को जीवन-निर्वाह के लिए ये आवश्यक पदार्थ मिलने लगें। इन बेचारों को न तो प्राणियों के शरीर से पैदा हुए स्नायुवर्द्धक तत्त्व और न चर्बी ही मिल सकती है। अन्न को दलिया की तरह मुलायम बनाकर कभी न खना चाहिए। अगर उसको किसी रसीली या तरल चीज में डुबोए बगैर सूखा ही खाया जाए, तो आधी मात्रा से ही काम चल जाता है। अन्न को कच्ची सलाद, जैसे कि प्याज, गाजर, मूली, लेटिस, हरी पत्तियां और टमाटर के साथ खाया जाए तो अच्छा होता है। कच्ची हरी सब्जियों को सलाद के एक दो औंस ही आठ औंस पकाई हुई सब्जियों के बराबर होते हैं। चपाती या डबल रोटी दूध के साथ नहीं लेनी चाहिए। शुरू में एक वक्त चपाती या डबल रोटी और कच्ची सब्जियां, और दूसरे वक्त पकाई हुई सब्जी, दूध या दही के साथ ले सकते हैं। मिष्टान्न भोजन बिलकुल बंद कर देना चाहिए। इसकी जगह गुड़ या थोड़ी मात्रा में शक्कर अकेले या दूध या डबल रोटी के साथ ले सकते हैं।
ताजे फल खाना अच्छा है, परंतु शरीर के पोषण के लिए थोड़ा फल-सेवन भी पर्याप्त होता है। यह महँगी वस्तु है और धनिक लोगों के आवश्यकता से अत्यंत अधिक फल-सेवन के कारण गरीबों और बीमारों को, जिन्हें धनिकों की अपेक्षा अधिक फलों की जरूरत है, फल मिलना दुश्वार हो गया है।
कोई भी वैद्य या डॉक्टर, जिसने भोजन के शास्त्र का अध्ययन किया है, प्रमाण के साथ कह सकेगा कि मैंने ऊपर जो बताया है, उससे शरीर को किसी प्रकार का नुकसान नहीं हो सकता। उलटे, तंदुरुस्ती अधिक अच्छी अवश्य हो सकती है।
मनुष्य को अपनी शक्ति के सर्वोच्च स्तर पर कार्य कर सकने के लिए पूरा पोषण पहूँचाने की वनस्पति-जगत की अपार क्षमता की आधुनिक औषधि-विज्ञान ने अभी तक कोई जाँच-पड़ताल नहीं की है। उसने तो बस माँस या बहुत हुआ तो दूध और दूध से प्राप्त दूसरे पदार्थों का ही सहारा पकड़ रखा है। भारतीय चिकित्सकों का, जो परंपरा से शाकाहारी है, कर्त्तव्य है कि वे इस कार्य को पूरा करें। विटामिनों की तेजी से हो रही खोजों से, और इस संभावना से कि अधिक महत्त्व के विटामिनों को सूर्य से सीधा पाया जा सकता है, ऐसा प्रकट होता है कि आहार के क्षेत्र एक बड़ी क्रांति होने जा रही है और उसके विषय में अभी तक जो स्वीकृत सिद्धांत चले आ रहे थे तथा औषधि-विज्ञान अभी तक जिन विश्वासों का पोषण करता आ रहा था, उनमें शीघ्र ही परिवर्तन होने वाला है।
मुझे ऐसा दिखाई देता है कि इस रास्ते की विकट कठिनाइयों को पार करने और अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी इस विषय के सत्य को ढूँढ़ निकालने का काम लिष्णाता डॉक्टर लोग नहीं, बल्कि समान्य परंतु उत्साही जिज्ञासु ही करने वाले हैं। यदि सत्य के इन विनम्र शोधकों को वैज्ञानिक लोग मदद दे, तो मझे उससे ही संतोष हो जाएगा।
मेरा यह विश्वास है कि मनुष्यों को शायद ही दवा लेने की आवश्यकता रहती है। पथ्य तथा पानी, मिट्टी इत्यादी के घरेलू उपचारों से एक हजार में से 999 रोगी स्वस्थ हो सकते हैं।
शरीर का भगवान के मंदिर की तरह उपयोग करने के बजाए हम उसका उपयोग विषय भोगों के साधन की तरह करते हैं और इन विषय-सुखों को बढ़ाने की कोशिश में डॉक्टरों के पास दौड़ जाने में तथा अपने पार्थिक आवास, इस शरीर का, दुरुपयोग करने में लज्जा का अनुभव नहीं करते।
मनुष्य जैसा आहार करता है वैसा ही वह बनता है-इस कहावत में काफी सत्य है। आहार जितना तामस होगा, शरीर भी उतना ही तामस होगा।
मैं यह अवश्य महसूस करता हूँ कि आाध्यात्मिक प्रगति के क्रम में एक अवस्था ऐसी जरूर आती है, जिसकी यह माँग होती है कि हम अपने शरीर की आवश्यकताओं की पूर्तिं के लिए अपने सहजीवी प्राणियों की हत्या करना बंद कर दें। आपके साथ शाकाहार के प्रति अपने इस आकर्षण की चर्चा करते हुए मुझे गोल्डस्मिथ की ये सुंदर पंक्तियाँ याद आती है :
पहाड़ की इस घाटी में आजादी से विचरने वाले
इन प्राणियों की मैं हत्या नहीं करता।
जो परमशक्ति हमें अपनी दया का दान देती है,
उससे मैं दया की सीख लेता हूँ;
और उन्हें अपनी दया देता हूँ।
किसी भी देश में, किसी भी जलवायु में और किसी भी स्थिति में, जिसमें मनुष्यों का रहना साधारणत: संभव हो, मेरी समझ में हम लोगों के लिए माँसाहार आवश्यक नहीं है। मेरा विश्वास है कि हमारी नसल (मनुष्य-जाति) के लिए माँसाहार अनुपयुक्त है। अगर हम पशुओं से अपने को ऊँचा मानते हैं, तो उनकी नकल करने में भूल करते है। यह बात अनुभव-सिद्ध है कि जिन्हें आत्म -संयम इष्ट है, उनके लिए माँसाहार अनुपयुक्त है।
किंतु चरित्र-गठन और आत्मा-संयम के लिए भोजन के महत्त्व का अनुमान करने में अति करना भी भूल है। इस बात को भूलना नहीं होगा कि इसके लिए भोजन एक मुख्य वस्तु है। मगर जिस प्रकार भोजन में किसी तरह का संयम न रखना और मनमाना खाना-पीना अनुचित है; उसी प्रकार सभी धर्म-कर्म का सार भोजन में ही मान बैठना भीं, जैसा कि प्राय: हिंदुस्तान में हुआ करता हैं, गलत है। हिंदू धर्म के अमूल्य उपदेशों में शाकाहार भी एक है। इसे हलके मन से छोड़ देना ठीक नहीं होगा। इसलिए इस भूल का संशोधन करना परमावश्यक है कि शाकाहार के कारण दिमाग और देह से हम कमजोर हो गए हैं और कर्मशीलता में आलसी या निराग्रही बन गए हैं। हिंदू धर्म के बड़े-से-बड़े सुधारक अपने अपने जमाने के सबसे बड़े कर्मठ पुरुष हुए हैं। जैसे, शंकर या दयानंद के जमाने का कौन पुरुष उनसे अधिक कर्मशीलता दिखा सका था?
उपवास कब किया जाए?
अपने और अपने ही जैसे दूसरे प्रयोगियों के काफी विस्तृत अनुभव के आधार पर मैं बिना किसी हिचकिचाहट के यह कहता हूँ कि नीचे लिखी हालती में उपवास जरूर किया जाए :
1. यदि कब्ज की शिकायत हो, 2. यदि शरीर में रक्त का अभाव हो और उसका रंग पीला पड़ गया हो, 3. यदि बुखार मालूम होता हो, 4. यदि अपच हो, 5. यदि सिर में दर्द हो, 6. यदि संधिवात हो, 7. यदि घुटनों में और शरीर के दूसरे जोड़ों में दर्द की बीमारी हो, 8. यदि बेचैनी महसूस होती हो, 9. यदि मन उदास हो, 10. यदि अतिशय आनंद के कारण मन ठिकाने न हो।
यदि इन अवसरों पर उपवास का आश्रय लिया जाए, तो डॉक्टरों की या कोई दूसरी पेटेंट दवाइयाँ खाने की कोई जरूरत न रहेगी।
राष्ट्रीय भोजन
मेरा खयाल है कि हमें ऐसी टेव डालनी चाहिए कि अपने प्रांत के सिवा दूसरे प्रांतों में प्रचलित भोजन को भी हम स्वाद से खा सकें। मैं जानता हूँ कि यह सवाल उतना आसान नहीं हैं, जितना वह दिखाई देता है। मैं ऐसे कई दक्षिण-भारतीयों को जानता हूँ, जिन्होंने गुजराती भोजन करने की आदत डालने की बेहद कोशिश की, लेकिन जो उसमें कामयाब नहीं हो सके। दूसरी तरफ, गुजरातियों को दक्षिण-भारतीयों की विधि से बनाई गई रसोई पसंद नहीं आती। बंगाल के लोगों की बानगियाँ दूसरे प्रांत वालों को आसानी से नहीं रुचतीं। लेकिन यदि हम प्रांतीयता से ऊपर उठकर अपनी रहन-सहन की आदतों में राष्ट्रीय बनना चाहें, तो हमें अपनी भोजन-संबंधी आदतों में फर्क करने के लिए तथा उनके आदान-प्रदान के लिए तैयार होना पड़ेगा, अपनी रुचियाँ सादी करनी पड़ेंगी और ऐसी बानगियाँ बनाने और खान का रिवाज डालना होगा, जो स्वास्थ्यप्रद हों और जिन्हें सब लोग नि:संकोच लें सकें। इसके लिए पहले तो हमें विविध प्रांतों, जातियों और समुदायों के भोजन का सावधानी से अध्ययन करना होगा। दुर्भाग्य से या सौभाग्य से, न सिर्फ हर एक प्रांत का अपना विशेष भोजन है, बल्कि एक ही प्रांत के विविध समुदायों की भोजन की अपनी-अपनी शैलियाँ हैं। इसलिए राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं को चाहिए कि वे विविध प्रांतों के भोजनों में पाई जानेवाली ऐसी सामान्य, सादी और सस्ती बानगियाँ ढूँढ़ निकालें, जिन्हें सब लोग अपने पाचन-यंत्र को बिगाड़ने का खतरा उठाए बिना खा सकें। और जो भी हो, यह तो स्वीकार करना ही चाहिए कि विविध प्रांतों और जातियों के रीति-रीवाजों और रहन-सहन के तरीको का ज्ञान हमारे कार्यकर्ताओं को होना ही चाहिए और इस ज्ञान का न होना शर्म की बात मानी जानी चाहिए। ...इस कोशिश में हमार उद्देश्य सामान्य लोगों के लिए कुछ समान बानगियां ढूँढ़ निकालने का होना चाहिए। और हमारी इच्छा हो तो यह आसानी से हो सकता है। लेकिन इस संभव बनाने के लिए कार्यकर्ताओं को स्वेच्छापूर्वक रसोई करने की कला सीखनी पड़ेगी, विविध भोजनों के पोषक मूल्यों का अध्ययन करना होगा और आसानी से बनने वाली सस्ती बानगियां तय करनी पड़ेंगी।
कोढ़ का रोग
हिंदुस्तान में लाखों आदमी इस रोग के शिकार हैं। लोग कोढ़ की बीमारी से और कोढ़ियों से नफरत करते हैं। मेरी राय में जो लोग गंदे विचार रखते हैं, वे शरीर के कोढ़ियों से ज्यादा बुरे कोढ़ी हैं। किसी दूसरी बीमारी के बजाय कोढ़ की बीमारी के बारे में ही कलंक की बात क्यों समझी जानी चाहिए?
पहले सिर्फ ईसाई मिशनरी ही कोढ़ियों की सेवा का करीब-करीब सारा भार अपने ऊपर लिए हुए थे। मगर बाद में परोपकार की भावना वाले हिंदुस्तानियों ने भी (अगरचे बहुत कम तादाद में) इस सेवा के काम को अपने हाथ में लिया। मैंने ऐसी एक संस्था कलकत्ता में देखी है। इस तरह के दूसरे जनसेवक श्री मनोहर दीवान हैं। वे श्री विनोबा के शिष्य हैं और उनकी प्रेरणा से उन्होंने यह काम अपने हाथ में लिया है। मैं उन्हें सच्चा महात्मा मानता हूँ।
खुजली, हैजा, यहाँ तक कि मामूली जुकाम भी ऐसी छूत की बीमारीयां है, जिनसे कोढ़ के बारे में इतनी नफरत क्यों रहनी चाहिए? मैं आपसे कह चुका हूँ कि सच्चे कोढ़ी तो वे हैं जिनके दिल गंदे हैं। किसी इंसान को अपने से नीचा समझना, किसी जाति या फिरके को नफरत की नजर देखना बीमार दिमाग की निशानी है, जिसे मैं शरीर के कोढ़ से ज्यादा बुरा समझता हूँ। ऐसे लोग समाज के असली कोढ़ी हैं। मैं खुद तो शब्दों को ज्यादा महत्त्व नहीं देता। अगर गुलाब को किसी दूसरे नाम से पूकारा जाए, तो उसकी खुशबू चली नहीं जाएगी।