12 बरस की उमर तक मैंने जो भी शिक्षा पाई वह अपनी मातृभाषा गुजराती में ही पाई थी। उसक समय गणित, इतिहास और भूगोल का मुझे थोड़ा-थोड़ा ज्ञान था। इसके बाद मैं एक हाईस्कूल में दाखिल हुआ। इसमें भी पहले तीन साल तक तो मातृभाषा ही शिक्षा का मध्यम रही। लेकिन स्कूल-मास्टर का काम तो विद्यार्थिंयों के दिमाग में जबरदस्ती अँग्रेजी ठूसना था। इसलिए हमारा आधे से अधिक समय अँग्रेजी और उसके मनमाने हिज्जों तथा उच्चारण पर काबू पाने में लगाया जाता था। ऐसी भाषा का पढ़ना हमारे लिए एक कष्टपूर्ण अनुभव था, जिसका उच्चारण ठीक उसी तरह नहीं होता जैसी कि वह लिखी जाती है। हिज्जों को कंठस्थ करना एक अजीब-सा अनुभव था। लेकिन यह तो मैं प्रसंगवश कह गया, वस्तुत: मेरी दलील से इसका कोई संबंध नहीं है। मगर पहले तो तीन साल तो तुलना में ठीक ही निकल गए।
जिल्लत तो चौथे साल से शुरू हुई। अलजबरा (बीजगणित), केमिस्ट्री (रसायनशास्त्र), एस्ट्रानॉमी (ज्योतिष), हिस्ट्री (इतिहास), ज्यॉग्राफी (भूगोल) हर एक विषय मातृभाषा के बजाय अँग्रेजी में ही पढ़ना पड़ा। कक्षा में अगर कोई विद्यार्थी गुजराती, जिसे कि वह समझता था, बोलता तो उसे सजा दी जाती थी। हाँ, अँग्रेजी को, जिसे न तो वह समझता था, बोलता तो वह पूरी तरह समझ सकता था और न शुद्ध बोल सकता था, अगर वह बुरी तरह बोलता तो भी शिक्षक को कोई आपति नहीं हाती थी। शिक्षक भला इस बात की फिक्र क्यों करे? क्योंकि खुद उसकी ही अँग्रेजी निर्दोष नहीं थी। इसके सिवा और हो भी क्या सकता था? क्योंकि अँग्रेजी उसके लिए भी उसी तरह विदेशी भाषा थी, जिस तरह कि उसके विद्यार्थियों के लिए थी। इससे बड़ी गड़बड़ होती थी। हम विद्यार्थियों को अनेक बातें कंठस्थ करनी पड़ती, हालांकि हम उन्हें पूरी तरह समझ नहीं सकते थे और कभी-कभी तो बिलकुल ही नहीं समझते थे। शिक्षक के हमें ज्यॉमेटरी (रेखागणित) समझाने की भरपूर कोशिश करने पर मेरा सिर घूमने लगता था। सच तो यह है कि युक्लिड (रेखागणित) की पहली पुस्तक के 13वें साध्य तक हम न पहुँच गए, तब तक मेरी समझ में ज्यॉमेटरी बिलकुल नहीं आई। और पाठकों के सामने मुझे यह मंजूर करना ही चाहिए कि मातृभाषा के अपने सारे प्रेम के बावजूद आज भी मैं यह नहीं जानता कि ज्यामेटरी, अलजबरा आदि की पारिभाषिक बातों को गुजराती में क्या कहते हैं। हाँ, यह अब मैं जरूर देखता हूँ कि जितना गणित, रेखागणित, बीजगणित, रसायनशास्त्र और ज्योतिष सीखने में मुझे चार साल लगे, अगर अँग्रेजी के बजाय गुजराती में उन्हें पढ़ा होता तो उतना मैंने एक ही साल में आसानी से सीख लिया होता। उसे हालत में मैं आसानी और स्पष्टता के साथ इन विषयों को समझ लेता। गुजराती का मेरा शब्द ज्ञान कहीं ज्यादा समृद्ध हो गया होता, और उस ज्ञान का मैंने और मेरे कुटुंबियों केबी, जो कि अँग्रेजी स्कूलों में नहीं पढ़े थे एक अगम्य खाई खड़ी कर दी। मेरे पिता को कुछ पता न था कि मैं क्या कर रहा हूँ। मैं चाहता तो भी अपने पिता की इस बात में दिचस्पी पैदा नहीं कर सकता था कि मैं क्या पढ़ रहा हूँ। क्यों कि यद्यपि बुद्धि की उनमें कोई कमी न थी, मगर वे अँग्रेजी नहीं जानते थे। इस प्रकार मैं अपने ही घर आदमी बन गया था। यहाँ तक कि मेरी पोशक भी अपने-आप बदलने लगी। लेकिन मेंरा जो हाल हुआ वह कोई असाधारण अनुभव नहीं था, बल्कि अधिकांश लोगों का यहीं हाल होता है।
हाईस्कूल के प्रथम तीन वर्षों में मेरे सामान्य ज्ञान में बहुत कम वृद्धि हुई। यह समय तो लड़कों को हर एक चीज अँग्रेजी के जरियें सीखने की तैयारी का था। हाईस्कूल तो अँग्रेजी की सांस्कृति विजय के लिए थे। मेरे हाईस्कूल के तीन सौ विद्यार्थियों ने जो ज्ञान प्राप्त किया वह तो हमीं तक सीमित रहा, वह सर्व-साधारण तक पहुँचाने के लिए नहीं था।
एक-दो शब्द साहित्य के बारे में भी। अँग्रेजी गद्य और पद्य की हमें कई किताबें पढ़नी पड़ी थी। इसमें शक नहीं कि यह बढ़िया साहित्य था। लेकिन सर्व-साधारण की सेवा या उसके संपर्क में आने में उस ज्ञान का मेरे लिए कोई उपयोग नहीं हुआ है। मैं यह कहने में असमर्थ हूँ कि मैंने अँग्रेजी गद्य और पद्य न पढ़ा होता तो मैं एक बेशक कीमती खजाने से वंचित रह जाता। इसके बजाय सच तो यह है कि अगर वे साल साल मैंने गुजराती पर प्रभुत्व प्राप्त करने में लगाए होते और गणित, विज्ञान तथा संस्कृत आदि विषयों को गुजराती में पढ़ा होता, तो इस तरह प्राप्त किए हुए ज्ञानमें अपने अड़ोसी-पड़ोसियों को आसानी से हिस्सेदार बनाया होता। उस हालत में मैंने गुजराती साहित्य को समृद्ध किया होता, और कौन कह सकता है कि अमल में उतारने की अपनी आदत तथा देश और मातृभाषा के प्रति अपने बेहद प्रेम के कारण सर्व-साधारण की सेवा में मैं और भी अधिक अपनी देन क्यों न दे पाताᣛᣛ?
यह हरगिज समझना चाहिए कि अँग्रेजी या उसके श्रेष्ठ साहित्य का मैं विरोधी हूँ। 'हरिजन' अँग्रेजी-प्रेम का पर्याप्त प्रमाण है। लेकिन उसके साहित्य की महत्ता भारतीय राष्ट्र के लिए उससे अधिक उपयोग नहीं, जितना कि इंग्लैंड का समशीतोष्ण जलवायु या वहाँ के सुंदर दृश्य हो सकते हैं। भारत को तो अपने ही जलवायु, दृश्यों और साहित्य में तरक्की करनी होगी, फिर चाहे वे अँग्रेजी जलवायु, दृश्यों और साहित्य से घटित दरजे के ही क्यों न हों। हमें और हमारे बच्चों को तो अपनी ही विरासत बनानी चाहिए। अगर हम दूसरों की विरासत लेंगे तो हमारी अपनी नष्ट हो जाएगी। सच तो यह है विदेशी सामग्री पर हम कभी उन्नति नहीं कर सकतें। मैं तो चाहता हूँ कि राष्ट्र अपनी ही भाषा का भंडार भरे और इसके लिए संसारकी अन्य भाषाओं का भंडार भी अपनी ही देशी भाषाओं में संचित करे। रवीन्द्रनाथ की अनुपम कृतियों का सौंदर्य जानने के लिए मुझे बंगाली पढ़ने की कोई जरूरत नहीं, क्यों कि सुंदर अनुवादों के द्वारामैं उसे पा लेता हूँ। इसी तरह टॉल्स्टॉय की संक्षिप्त कहानियों की कदर करने के लिए गुजराती लड़के-लड़़कियों को रूसी भाषा पढ़ने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि अच्छे अनुवादों के जरिए वे उन्हें पढ़ लेते हैं। अँग्रेजों को इस बात का गर्व है कि संसार की सर्वोत्तम साहित्यिक रचानाएँ प्रकाशित होने के एक सप्ताह के अंदर-अंदर सरल अँग्रेजी में उनके हाथों में आ पहुँचती हैं। ऐसी हालत में शेक्सपियर और मिल्टन के सर्वोत्तम विचारों और रचनाओं के लिए मुझे अँग्रेजी पढ़ने की जरूरत क्यों हो?
यह एक तरह की अच्छी तिमव्ययिता होगी कि ऐसे विद्यार्थियों का अलग ही एक वर्ग कर दिया जाए, जिनका काम यह हो कि संसार की विभिन्न भाषाओं में पढ़ने लायक जो सर्वोत्तम सामग्री हो उसकी पढ़ें और देशी भाषाओं में उसनका अनुवाद करें। हमारे प्रभुओं ने तो हमारे लिए गलत ही रास्ता चुना है और आदत पड़ जाने के कारण गलती ही हमें ठीक मालूम पड़ने लगी है।
हमारी इस झूठी अभारती शिक्षा से लाखों आदमियों का दिन-दिन जो अधिकाधिक नुकसान हो रहा है, उसके प्रमाण मैं रोज ही पा रहा हूँ। जो ग्रेज्युएट मेरे आदरणीय साथी हैं, उन्हें जब अपने आंतरिक विचारों को व्यक्त करना पड़ता है तब वे खुद ही परेशान हो जाते हैं। वे तो अपने ही घरों में अजनबी बन गए हैा। अपनी मातृभाषा के शब्दों का उनका ज्ञान इतना सीमित है कि अँग्रेजी शब्दों और वाक्यों तक सहारा लिए बगैर वे अपने भाषण को समाप्त नहीं कर सकते। और न अँग्रेजी किताबों के बगैर वे रह सकते हैं। आपस में भी वे अक्सर अँग्रेजी में ही लिखा-पढ़ी करते है। अपने साथियों का उदाहरण मैं यह बताने के लिए दे रहा हूँ कि इस बुराई ने कितनी गहरी जड़ जमा ली है। क्योंकि हम लोगों ने अपने को सुधारने का खुद जान-बूझकर प्रयत्न किया है।
हमारे कॉलेजों में जो सयम की बरबादी होती है, उसके पक्ष में दलील यह दी जाती है कि कॉलेजों पढ़ने के कारण इतने विद्यार्थियों में से अगर एक जगदीश बसु भी पैदा हो सकें, तो हमें इस बरबादी की चिंता करने की जरूरत नहीं। अगर यह बरबादी अनिवार्य होती तो मैं जरूर इस दलील का समर्थन करता। लेकिन मैं आशा करता हूँ कि मैंने यह बतला दिया है कि यह न तो पहले अनिवार्य है। क्योंकि जगदीश बसु कोई वर्तमान शिक्षा की उपज नहीं थे। वे तो भयंकर कठिनाइयों और बाधाओं के बावजूद अपने परिश्रम की बदौलत ऊँचे उठे, और उनका ज्ञान लगभग ऐसा बन गया जो सर्व-साधारण तक नहीं पहुँच सकता। बल्कि मालूम ऐसा पड़ता है कि हम यह सोचने लगे हैं कि आशा नहीं कर सकता। यह ऐसी मिथ्या धारणा है जिससे अधिक बड़ी की मैं कल्पना ही नहीं कर सकता। जिस तरह हम अपने को लाचार समझते मालूम पड़ते हैं, उस तरह एक भी जापानी अपने को नहीं समझता।
शिक्षा का माध्यम तो एकदम और हर हालत में बदला जाना चाहिए और प्रांतीय भाषाओं को उनका न्यायसंगत स्थान मिलना चाहिए। यह जो दंडनीय बरबादी रोज-बरोज हो रही है उसके बजाए तो मैं अस्थायी रूप से अव्यवस्था हो जाना भी ज्यादा पसंद करूँगा।
प्रांतीय भाषाओं का दरजा और व्यावहारिक मूल्य बढ़ाने के लिए मैं चाहूँगा कि अदालतों की कार्रवाई अपने-अपने प्रांत की भाषा में हो। प्रांतीय धारासभाओं की कार्रवाई भी प्रांतीय भाषा में या जहाँ एक से अधिक भाषाएँ प्रचलित हों वहाँ उनमें होनी चाहिए। धारासभाओं के सदस्यों से मैं कहना चाहता हूँ कि वे चाहे तो एक महीने के अंदर-अंदर अपने प्रांतों की भाषाएँ भलीभाँति समझ सकते हैं। तामिल-भाषी के लिए ऐसी कोई रुकावट नहीं कि वह तेलगू, मलयालम और कन्नडा का, जो कि सब तामिल से मिलती-जुलती ही हैं, मामूली व्याकरण और कुछ सौ शब्द आसानी से न सीख सके। केंद्र में हिंदुस्तानी का प्रमुख स्थान रहना चाहिए।
मेरह सम्मति में यह कोई ऐसा प्रश्न नहीं है, जिसका निर्णय साहित्यज्ञों के द्वारा हो। वे इस बात का निर्णय नहीं कर सकते कि किस स्थान के लड़के-लड़कियों की पढ़ाई किस भाषा में हो। क्योंकि इस प्रश्न का निर्णय तो हर एक देश में पहले से ही हो चुका है। न वे यही निर्णय कर सकते हैं कि किन विषयों की पढ़ाई हो। क्योंकि यह उस देश की आवश्यकताओं पर निर्भर करता है, जिस देश के बालकों को शिक्षा देनी हो। उन्हें तो बस यही सुविधा प्राप्त है कि राष्ट्र की इच्छा को यथासंभव रूप में अमल में लाएँ। अत: जब हमारा देश वस्तुत: स्वतंत्र होगा तब शिक्षा के माध्यम का प्रश्न केवल एक ही तरह से हल होगा। साहित्यिक लोग पाठयक्रम बनाएँगे और फिर उसके अनुसार पाठ्य-पुस्तके तैयार करेंगे। और स्वतंत्र भारत की शिक्षा पाने वाले लोग देश की जरूरते उसी तरी पूरी करेंगे। जिस तरह आज वे विदेशी शासकों की जरूरतें पूरी करते है जब तक हम शिक्षित वर्ग इस प्रश्न के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे तब तक मुझे इस बात का बहुत भय है कि हम जिस स्वतंत्र और स्वस्थ भारत का स्वप्न देखते हैं उसका निर्माण नहीं कर पयोगे। हमें जी-तोड़ प्रयत्न करके अपने बंधन से मुक्त होना चाहिए, चाहे वह शिक्षणात्मक हो, आर्थिक हो, सामाजिक हो या राजनीतिक हो। हमारी तीन-चौथाई लड़ाई तो वह प्रयत्न होगा जो कि इसके लिए किया जाएगा।