जिस रूढ़ि और कानून के बनाने में स्त्री का कोई हाथ नहीं था और जिसके लिए सिर्फ पुरुष ही जिम्मेदार है, उस कानून और रूढ़ि के जुल्मों ने स्त्री को लगातार कुचला है। अहिंसा की नींव पर रचे गए जीवन की योजना में जितना और जैसा अधिकार पुरुष को अपने भविष्य की रचना का है, उतना और वैसा ही अधिकार स्त्री भी अपना भविष्य तय करने का है। लेकिन अहिंसक समाज की व्यवस्था में जो अधिकार मिलते हैं, वे किसी-न-किसी कर्त्तव्य या धर्म के पालन से प्राप्त होते हैं। इसलिए यह भी मानना चाहिए कि सामाजिक आचार-व्यवहार के नियम स्त्री और पुरुष दोनों आपस में मिलकर और राजी-खुशी से तय करें। इन नियमों का पालन करने के लिए बाहर की किसी सत्ता या हुकूमत की जबरदस्ती काम न देगी। स्त्रियों के साथ अपने व्यवहार और बरताव में पुरुषों ने इस सत्य को पूरी तरह पहचाना नहीं है। स्त्री को अपना मित्र या साथी मानने के बदले पुरुष ने अपनेको उसका स्वामी माना है। कांग्रेस वालों का यह खास हक है कि वे हिंदुस्तान की स्त्रियों को उनकी इस गिरी हुई हालत से हाथ पकड़कर ऊपर उठावें। पुराने जमाने का गुलाम नहीं जानता था कि उसे आजाद होना है, या कि वह आजाद हो सकता है। औरतों की हालत भी आज कुछ ऐसी ही है। जब उस गुलाम को आजादी मिली तो कुछ समय तक उसे ऐसा मालूम हुआ, मानों उसका सहारा ही जाता रहा। औरतों को यह सिखाया गया है कि वे अपने को पुरुषों की दासी समझें। इसलिए कांग्रेस वालों का यह फर्ज है कि वे स्त्रियों को उनकी मौलिक स्थिति का पूरा बोध करावें और उन्हें इस तरह की तालीम दें, जिससे वे जीवन में पुरुषों के साथ बराबरी के दरजे से हाथ बँटाने लायक बनें।
एक बार मन का निश्चय हो जाने के बाद इस क्रांति का काम आसान है। इसलिए कांग्रेस वाले इसकी शुरुआत अपने घर से करें। वे अपनी पत्नियों को मन बहलाने की गुड़िया या भोग-विलास का साधन मानने के बदले उनको सेवा के समान कार्य में अपना सम्मान्य साथी समझें। इसके लिए जिस स्त्रियों को स्कूल या कॉलेज की शिक्षा नहीं मिली है, वे अपने पतियों से जितना बन पड़े सीखें। जो बात पत्नियों के लिए कहीं गई है, वही जरूरी परिवर्तन के साथ माताओं और बेटियों के लिए भी समझनी चाहिए।
यह कहने की जरूरत नहीं कि हिंदुस्तान की सित्रयों की लाचारी का यह एकतरफा चित्र ही मैंने यहाँ दिया है। मैं भलीभाँति जानता हूँ कि गाँवों में औरतें अपने मर्दों के साथ बराबरी से टक्कर लेती हैं; कुछ मामलों में वे उनसे बढ़ी-चढ़ी हैं और उन हूकूमत भी चलती हैं। लेकिन हमें बाहर से देखने वाला कोई भी तटस्थ आदमी यह कहेगा कि हमारे समूचे समाज में कानून और रूढ़ि को रूसे औरतों को जो दरजा मिला हैं, उसमें कई खामियाँ हैं और उन्हें जड़मूल से सुधारने की जरूरत है।
कानून की रचना ज्यादातर पुरुषों के द्वारा हुई है। और इस काम को करने में, जिसे करने का जिम्मा मनुष्य ने अपने ऊपर खुद ही उठा लिया है, उसने हमेशा न्याय और विवेक का पालन नहीं किया है। स्त्रियों में नए जीवन का संचार करने के हमारे प्रयत्न का अधिकांश भाग उन दूषणों को दूर करने में खर्च होना चाहिए, जिनका हमारे शास्त्रों के जन्मजात और अनिवार्य लक्षण कहकर वर्णन किया है। इस काम को कौन करेगा और कैसे करेगा? मेरी नम्र राय में इस प्रयत्न की सिद्धि के लिए हमें सीता, दमयन्ती और द्रौपदी जैसी पवित्र और दृढ़ता तथा संयम आदि से युक्तम स्त्रियाँ प्रकट करनी होंगी। यदि हम अपने बीच में ऐसी स्त्रियाँ प्रकट कर सकें, तो इन आधुनिक देवियां को वही मान्यता मिलेगी जो अभी तक हमारे शास्त्रों को प्राप्त है। उस हालत में हमारी स्मृतियों में स्त्री-जाति के संबंध में यहाँ-वहाँ जो असम्मान-सूचक उक्तियाँ मिलती हैं उन पर हम लज्जित होंगे। ऐसी क्रांतियाँ हिंदू धर्म में प्राचीन काल में हो चुकी है और भविष्य में भी होंगी और वे हमारे धर्म को ज्यादा स्थायी बनाएँगी।
स्त्री पुरुष की साथिन है, जिसकी बौद्धिक क्षमताएँ पुरुष की बौद्धिक क्षमताओं से किसी तरह कम नहीं हैं। पुरुष की प्रवृत्तियों में,उन प्रवृत्तियों के प्रत्येक अंग और उपांग में भाग लेने का उसे अधिकार है; और आजादी तथा स्वाधीनता का उसे उतना ही अधिकार है जितना पुरुष को है। जिस तरह मनुष्य अपनी प्रवृत्ति के क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान का अधिकारी माना गया है, उसी तरह स्त्री भी अपनी प्रवृत्ति के क्षेत्र में मानी जानी चाहिए। स्त्रियों पढ़ना-लिखना सीखें और उसके परिणामस्वरूप यह स्थिति आएँ, ऐसा नहीं होना चाहिए। यह तो हमारी सामाजिक व्यवस्था की सहज अवस्था ही होनी चाहिए। महज एक दूषित रूढ़ि और रिवाज के कारण बिलकुल ही मूर्ख और नालायक पुरुष भी स्त्रियों से बड़े माने जाते हैं, यद्यपि वे इस बड़प्पन के पान नहीं होते और न वह उन्हें मिलना चाहिए। हमारे कई आंदोलनों की प्रगति हमारे स्त्री-समाज की पिछड़ी हुई हालत के कारण बीच में ही रुक जाती है। इसी तरह हमारे किए हुए काम का जैसा और जितना फल आना चाहिए, वैसा और उतना नहीं आता। हमारी दशा उस कंजूस व्यापारी के जैसी है, जो अपने व्यापार में पर्याप्त पूँजी नहीं लगाता और इसलिए नुकसान उठाता है।
पुरुष की समानता
स्त्रियों के अधिकारों के सवाल पर मैं किसी तरह का समझौता स्वीकार नहीं कर सकता। मेरी राय में उन पर ऐसा कोई कानूनी प्रतिबंध नहीं लगाया जाना चाहिए, जो पुरुषों पर न लगाया गया हो। पुत्रों और कन्याओं में किसी तरह का भेद नहीं होना चाहिए। उनके साथ पूरी समानता का व्यवहार होना चाहिए।
पुरुष और स्त्री की समानता का यह अर्थ नहीं कि वे समान धंधें भी करें। स्त्री के शास्त्र धारण करने या शिकार करने के खिलाफ कोई कानूनी बाधा न होनी चाहिए। लेकिन जो काम पुरुष के करने के हैं, उनसे वह स्वाभावत: विरत होगी। प्रकृत्ति ने स्त्री और पुरुष को एक-दूसरे के पूरक के रूप में सिरजा है। जिस तर उनके आका में भेद है, उसी तरह उनके कार्य भी मर्यादित हैं।
विवाह-संस्कार
यदि हम स्त्री-पुरुष के संबंधों के सवाल को स्वास्थ और शुद्ध मन से देखें और अपने को भावी पीढ़ियों के कल्याण का ट्रस्टी मानें, तो आज इस क्षेत्र में जो दु:ख नजर आते हैं, उनमें से अधिकांश दु:ख टाले जा सकते हैं।
विवाह जीवन की एक स्वाभाविक घटना है और उसे किसी भी तरह दूषित या कुत्सित मानना गलत है। ... आदर्श यह है कि विवाह को एक पवित्र संस्कार समझा जाए और तदनुसार विवाहित अवस्था में संयम का पालन किया जाए।
परदा-प्रथा
पवित्रता स्त्रियों को बाहरी मर्यादाओं में जकड़कर रखने से उत्पन्न होने वाली चीज नहीं है। उसकी रक्षा उन्हें परदे की दीवाल से घेरकर नहीं की जा सकती। उसकी उत्पत्ति और उसका विकास भीतर से होना चाहिए। और उसकी कसौटी यह है कि वह पवित्रता किसी भी प्रलोभन से डिगे नहीं। इस कसौटी पर वह खरी सिद्ध हो तभी उसका कोई मूल्य माना जा सकता है।
और स्त्रियों की पवित्रता के विषय में पुरुष मानसिक अस्वस्थता की सूचक इतनी चिंता क्यों दिखाते हैं? क्या पुरुषों की पवित्रता के विषय में स्त्रियों को कुछ कहने का अधिकार है? पुरुषों के शील की पवित्रता के विषय में हम स्त्रियों को तो कोई चिंता करते हुए नहीं सुनते। स्त्रियों के शील की पवित्रता के नियमन का अधिकार अपने हाथों में लेने की इच्छा पुरुषों को क्यों करनी चाहिए? पवित्रता कोई ऐसी चीज नहीं है, जो ऊपर से लादी जा सके। वह तो भीतर से विकसित होने वाली और इसलिए वैयक्तिक प्रयत्न से सिद्ध होने वाली चीज है।
दहेज की प्रथा
यह प्रथा नष्ट होनी चाहिए। विवाह लड़के-लड़की के माता-पिताओं द्वारा पैसे ले-देकर किया हुआ सौदा नहीं होना चाहिए। इस प्रथा का जातिप्रथा से गहरा संबंध है। जब तक चुनाव का क्षेत्र अमुक जाति के इने-गिने लड़कों या लड़कियों तक ही मर्यादित रहेगा तब तक यह प्रथा भी रहेगी, भले इसके खिलाफ जो भी कहा जाए। यदि इस बुराई का उच्छेद करना हो तो लड़कियों को या लड़कों को या उनके माता-पिताओं को जाति के बंधन तोड़ने पड़ेंगे। इस सबका मतलब है चरित्र की ऐसी शिक्षा, जो देश के युवकों और युवतियों के मानस में आमूल परिवर्तन कर दे।
कोई भी ऐसा युवक, जो दहेज को विवाह की शर्त बनाता है, अपनी शिक्षा को कलंकित करता है, अपने देश को कलंकित करता है और नारी-जाति का अपमान करता है। देश में आजकल बहुतेरे युवक-आंदोलन चल रहे है। मैं चाहता हूँ कि ये आंदोलन इस किस्म के सवालों को अपने हाथ में लें। ऐसे संघटनों को किसी ठोस सुधार-कार्य का प्रतिनिधि होना चाहिए और यह सुधर-कार्य उन्हें अपने अंदर से ही शुरू करना चाहिए। लेकिन देखा गया है कि इस तरह के सुधार-कार्य के प्रतिनिधि होने के बजाय वे अक्सर आत्म-प्रशंसा करने वाली समितियों का रूप ले लेते हैं। ... दहेज की इस नीचे गिराने वाली प्रथा के खिलाफ बलवान लोकमत पैदा करना चाहिए; और जो युवक इस पाप के सोने से अपने हाथ गंदे करते हैं, उनका समाज से बहिष्कार किया जाना चाहिए। लड़िकयों के माता-पिताओं को अँग्रेजी डिग्रियों का मोह छोड़ देना चाहिए, और अपनी कन्याओं के लिए सच्चे और स्त्री-जाति के प्रति सम्मान की भावना रखने वाले सुयोग्य वरों की खोज में अपनी जाति के भी तंग दायरे के बाहर जाने में संकोच नहीं करना चाहिए।
विधवाओं का पुनर्विवाह
जिस स्त्री ने अपने पति के प्रेम का अनुभव किया हो, उसके द्वारा स्वेच्छा से और समझ-बूझकर स्वीकार किया गया वैधव्य जीवन को सौंदर्य और गौरव प्रदान करता है, घर को पवित्र बनाता है और धर्म को ऊपर उठाता है। लेकिन धर्म या रिवाज के द्वारा ऊपर से लादा हुआ वैधव्य एक असह्य बोझ है; वह गुप्त पापाचार के द्वारा घर को अपवित्र करता है और धर्म को गिराता है।
यदि हम पावित्र्य की और हिंदू धर्म की रक्षा करना चाहते हैं, तो इस जबरदस्ती लादे जाने वाले वैधव्य के विष से हमें मुक्त होना ही होगा। इस सुधार की शुरुआत उन लोगों को करनी चाहिए, जिनके यहाँ बाल-विधवाएँ हों। उन्हें साहसपूर्वक इन बाल-विधवाओं का योग्य लड़कों से विवाह करा देना चाहिए। बाल-विधवाओं के इस विवाह को मैं पुनर्विवाह का नाम नहीं देना चाहता, क्योंकि मैं मानता हूँ कि उनका विवाह तो कभी हुआ ही नहीं था।
तलाक
विवाह विवाह-सूत्र से बंधे हुए दोनों साथियों को एक-दूसरे के साथ शरीर-संबंध का अधिकार देता है। लेकिन इस अधिकार की एक मर्यादा है। इस अधिकार का उपभोग तभी हो जब दोनों साथी इस संबंध की इच्छा रखतें हों। एक साथी दूसरे से उसकी अनिच्छा होते हुए भी इस संबंध की माँग करे, ऐसा अधिकार विवाह नहीं देता। जब इनमें से कोई भी एक साथी नैतिक अथवा अन्य किसी कारण से दूसरे की ऐसी इच्छा का पालन करने में असमर्थ हो तब क्या करना चाहिए, यह एक अलग सवाल है। व्यक्तिगत तौर पर यदि तलाक ही इस सवाल का एक मात्र उपाय हों, ता अपनी नैतिक प्रगिति को रोकने के बजाय मैं इस उपाय को ही स्वीकार कर लूँगा-बशर्ते कि मेरे संयम का कारण नैतिक ही हो।
मैं विवाहित अवस्था को भी जीवन के दूसरो हिस्सों की तरह साधना की ही अवस्था मानता हूँ। जीवन कर्त्तव्य-पालन है, एक लगातार चलने वाली परीक्षा है। विवाहित जीवन का लक्ष्य दोनों साथियों का पारस्परिक कल्याण साधना है यहाँ इस जीवन के बाद भी। यह संस्था मानव-जाति के हित के लिए है। दो में से कोई एक साथी विवाह के अनुशासन को तोड़े, तो दूसरे को विवाह-संबंध भंग करने का अधिकार हो जाता है। यहाँ विवाह-संबंध का भंग नैतिक है, शारीरिक नहीं; लेकिन इसमें तलाक की बात नहीं है। स्त्री या पुरुष अपने साथी से अलग हो जाएगा, लेकिन उसी उद्देश्य की सिद्धी के लिए जिसके लिए वे विवाह-सूत्र में बंधे थे। हिंदू धर्म स्त्री-पुरुष दोनों को एक-दूसरे का समकक्ष मानता है; कोई किसी से नतो कम है, न ज्याद। बेशक, न जाने कब से स्त्री को छोटा और पुरुष को बड़ा मानने वाला एक भिन्न रिवाज चल पड़ा है। लेकिन ऐसी तो और कितनी ही बुराइयाँ समाज में घुस आई हैं। जो भी हो, मैं यह जरूर जानता हूँ कि हिंदू धर्म व्यक्ति को इस बात की पूरी आजादी देता है कि वह आत्म-साक्षत्कार के लिए जो कुछ करना आवश्यक हो सो करे, क्योंकि वही मानव-जन्म का सच्चा उद्देश्य है।
स्त्रियों के शील की रक्षा
मैंने हमेशा यह माना है कि किसी स्त्री की इच्छा के खिलाफ उसका शील भंग नहीं किया जा सकता। इस अत्याचार की शिकार वह तब होती है जब उसके मन पर डर छा जाता है या जब उसे अपने नैतिक बल की प्रतीति नहीं होती। अगर वह आक्रमणकारी के शारीरिक बल का मुकाबला नहीं कर सकती, तो उसकी पवित्रता उसे, आक्रमणकारी उसके शील का भंग कर सके पहले ही, मरने का इच्छाबल अवश्य दे सकती है। सीता का उदाहरण लीजिए। शारीरिक दृष्टि से रावण की तुलना में वे कुछ भी नहीं थी, किंतु उनकी पवित्रता रावण के अपार राक्षसी बल से भी ज्यादा शक्तिशाली सिद्ध हुई। रावण ने उन्हें अनेक तरह के प्रलोभन देकर जीतना चाहा, लेकिन उन्हें वासना-पूर्ति के लिए छूने की हिम्मत वह नहीं कर सका। दूसरी ओर, यदि स्त्री अपने शारीरिक बल पर या हथियार पर भरोसा करे, तो अपनी शक्ति के चुक जाने पर वह निश्चय ही हार जाएगी।
किसी स्त्री पर जब आक्रमण हो उस समय उसे हिंसा और अहिंसा का विचार करने की जरूरत नहीं। उसका पहला कर्त्तव्य आत्म रक्षा करना है। अपने शील की रक्षा के लिए उसे जो भी उपाय सूझे उसका उपयोग करने की उसे पूरी आजादी है। भगवान ने उसे दाँत और नाखून तो दिए ही हैं। उसे अपनी पूरी ताकत के साथ उसका उपयोग करना चाहिए और यदि जरूरत पड़ जाए तो प्रयत्न करते हुए मन जाना चाहिए। जिस पुरुष या स्त्री ने मरने मरने का सारा डर छोड़ दिया है, वह नकेल अपनी ही रक्षा कर सकेगी, बल्कि अपने प्राणों का बलिदान करके दूसरों की रक्षा भी कर सकेगी।
वेश्यावृत्ति
वेश्यावृत्ति दुनिया में हमेशा रही है यह सही है। लेकिन आज की तरह वह कभी शहरी जीवन का अभिन्न अंग भी रही होगी, इसमें मुझे शंका है। जो भी हो, एक समय ऐसा जरूर आना चाहिए और आएगा जब कि मानव-जाति इस अभिशाप के खिलाफ उठ खड़ी होगी; और जिस तरह उसने दूसरे अनेक बुरे रिवाजों को, भले वे कितने भी पुराने रहे हों, मिटा दिया है, उसी तरह वेश्यावृत्ति को भी वह भूतकाल की चीज बना देगी।