मैंने समय-समय पर यह बताया है कि स्त्री में विद्या का अभाव इस बात का कारण नहीं होना चाहिए कि पुरुष से मनुष्य-समाज के स्वाभाविक अधिकार छीन ले या उसे वे अधिकार न दें। किंतु इन स्वाभाविक अधिकारों को काम में लाने के लिए, उनकी शोभा बढ़ाने के लिए और उनका प्रचार करने के लिए स्त्रियों में विद्या की जरूरत अवश्य है। साथ ही, विद्या के बिना लाखों को शुद्ध आत्मज्ञान भी नहीं मिल सकता।
स्त्री और पुरुष समान दरजे के हैं, परंतु एक नही; उनकी अनोखी जोड़ी है। वे एक-दूसरे की कमी पूरी करने वाले हैं और दोनों एक-दूसरे का सहारा हैं। यहाँ तक कि एक के बिना दूर रह नहीं सकता। किंतु यह सिद्धांत ऊपर की स्थिति में से ही निकल आता है कि पुरुष या स्त्री कोई एक अपनी जगह से गिर जाए तो दोनों का नाश हो जाता है। इसलिए स्त्री-शिक्षा की योजना बनाने वालों को यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए। दंपती के बाहरी कमों में पुरुष सर्वोपरि है। बाहरी कामों का विशेष ज्ञान उसके लिए जरूरी है। भीतरी कामों में स्त्री की प्रधानता है। इसलिए गृह-व्यवस्थ , बच्चों की देखभाल, उनकी शिक्षा वगैरा के बारे में स्त्री को विशेष ज्ञान होना चाहिए। यहाँ किसी को कोई भी ज्ञान प्राप्त करने से रोकने की कल्पना नहीं है। किंतु शिक्षा का क्रम इन विचारों को ध्यान में रखकर न बनाया गया हो, तो स्त्री-पुरुष दोनों को अपने-अपने क्षेत्र में पूर्णता प्राप्त करने का मौका नहीं मिलता।
मुझे ऐसा लगा है कि हमारी मामूली पढ़ाई में स्त्री या पुरुष किसी के लिए भी अँग्रेजी जरूरी नहीं है। कमाई के खातिर या राजनीतिक कामों के लिए ही पुरुषों को अँग्रेजी भाषा जानने की जरूरत हो सकती है। मैं नहीं मानता कि स्त्रियों को नौकरी ढूँढ़ने या व्यापार करने की झंझट में पड़ना चाहिए। इसलिए अँग्रेजी भाषा थोड़ी ही स्त्रियाँ सीखेंगी। और जिन्हें सीखना होगा वे पुरुषों के लिए खोली हुई शालाओं में ही सीख सकेगी। स्त्रियों के लिए खोली हुई शाला में अँग्रेजी जारी करना हमारी गुलामी की उमर बढ़ाने का कारण बन जाएगा। यह वाक्य मैंने बहुतों के मुँह से सुना है और बहुत जगह सुना है कि अँग्रेजी भाषा में भरा हुआ खजाना पुरुषों की तरह स्त्रियों को भी मिलना चाहिए। मैं नम्रता के साथ कहूँगा कि इसमें कही-न-कहीं भूल है। यह तो कोई नहीं कहता कि पुरुषों को अँग्रेजी का खजाना दिया जाए और स्त्रियों को न दिया जाए।
जिस साहित्य का शौक है वह अगर सारी दुनिया का साहित्य समझना चाहे, तो उसे रोककर रखने वाला इस दुनिया में कोई पैदा नहीं हुआ है। परंतु जहाँ आम लोगों को जरूरतें समझकर शिक्षा का क्रम तैयार किया गया हो, परंतु ऊपर बताए हुए साहित्य-प्रेमियों के लिए योजना तैयार नहीं की जा सकती। स्त्री या पुरुष को अँग्रेजी भाषा सीखने में अपना समय नहीं लगाना चाहिए। यह बात मैं उनका आनंद कम करने के लिए नहीं कहता, बल्कि इसलिए कहता हूँ कि जो आनंद अँग्रेजी शिक्षा पाने वाले बड़े कष्ट से लेते हैं वह हमें आसानी से मिले। पृथ्वी अमूल्य रत्नों से भरी है। सारे साहित्य-रत्न अँग्रेजी भाषा में ही नहीं है। दूसरी भाषाएँ भी रत्नों से भरी हैं। मुझे ये सारे रत्न आम जनता के लिए चाहिए। ऐसा करने के लिए एक ही उपाय है और वह यह कि हममें से कुछ ऐसी शक्तिवालें लोग ये भाषाएँ सीखें और उनके रत्न हमें अपनी भाषा में दें।
मैं स्त्रियों की समुचित शिक्षा का हिमायती हूँ, लेकिन मैं यह भी मानता हूँ कि स्त्री दुलिया की प्रगति में अपना योग पुरुष की नकल करके या उसकी प्रतिस्पर्धा करके नहीं दे सकती। वह चाहे तो प्रतिस्पर्धा कर सकती है। लेकिन पुरुष की नकल करके वह उस ऊँचाई तक नहीं उठ सकती, जिस ऊँचाई तक उठना उसके लिए संभव है। उसे पुरुष की पूरक बनना चाहिए।
सहशिक्षा
मैं अभी तक निश्चयपूर्वक यह नहीं कह सकता कि सहशिक्षा सफल होगी या नहीं होगी। पश्चिम मे वह सफल हुई हो ऐसा नहीं लगता। वर्षों पहले मैंने खुद उसका प्रयोग किया था और वह भी इस हद तक कि लड़के और लड़कियाँ उसी बरामदे में सोते थे। उनके बीच में कोई आड़ नहीं होती थी; अलबत्ता, मैं और श्रीमति गांधी भी उनके साथ उसी बरामदे में सोते थे। मुझे कहना चाहिए कि इस प्रयोग के परिणाम अच्छे नहीं आए।
...सहशिक्षा अभी प्रयोग की ही अवस्था में है और उसके परिणाम के बारे में पक्ष अथवा विपक्ष में निश्चयपूर्वक हम कुछ नहीं कह सकते। मेरा खयाल है कि इस दिशा में हमें आरंभ परिवार से करना चाहिए। परिवार में लड़के-लड़कियों को साथ-साथ स्वाभाविक तौर पर और आजादी के वातावरण में बढ़ने देना चाहिए। सहशिक्षा इस तरह अपने-आप आएगी।
मेरे बच्चे अगर बुरे भी हैं तो भी मैं उन्हें खतरे में पड़ने दूँगा। एक दिन हमें एक-प्रवृत्ति एक-प्रवृत्ति को छोड़ना होगा। हमें हिंदुस्तान के लिए पश्चिम की मिसालें नहीं ढूँढ़नी चाहिए। ट्रेनिंग स्कूलों में अगर सिखाने वाले शिक्षक लायक और पवित्र हों, नई तालीम की भावना से भरे हों, तो कोई खतरा नहीं। दुर्भाग्य से कुछ घटनाएँ ऐसी हो भी जाएँ तो कोई परवाह नहीं। वे तो हर जगह होंगी। मैं यह बात साहसपूर्वक कहता तो हूँ, लेकिन में इसके खतरों से बेखबर नहीं हूँ।