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वैचारिकी

मेरे सपनों का भारत

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुक्रम 61 अस्पृ्श्यता का अभिशाप पीछे     आगे

आजकल हिंदू धर्म में जो अस्‍पृश्‍यमा देखने में आती है, वह उसका एक अमिट कलंक है। मैं यह मानने से इनकार करता हूँ कि वह हमारे समाज में स्‍मरणातीत काल से चली आई है। मेरा खयाल है कि अस्‍पृश्‍यता की यह घृणित भावना हम लोगों में तब आई होगी जब हम अपने पतन की चरम सीमा पर रहे होंगे। और तब से यह बुराई हमारे साथ लग गई और आज भी लगी हुई है। मैं मानता हूँकि यह एक भयंकर अभिशाप है। और यह अभिशाप जब तक हमारे साथ रहेगा तब तक मुझे लगता है कि इस पावन भूमि में हमें जब जो भी तकलीफ सहना पड़े वह हमारे इस अपराध का, जिसे हम आज भी कर रहे हैं, उचित दंड होगी।

मेरी राय में हिंदू धर्म में दिखाई पड़ने वाला अस्‍पृश्‍यता का वर्तमान रूप ईश्‍वर और मनुष्‍य के खिलाफ किया गया भयंकर अपराध है और इसलिए वह एक ऐसा विष है जो धीरे-धीरे हिंदू धर्म के प्राण को ही नि:शेष किए दे रहा है। मेरी राय में शास्‍त्रों में, यदि हम सब शास्‍त्रों में एक तरह की हितकारी अस्‍पृश्‍यता का विधान जरूर है, लेकिन उस तरह की अस्‍पृश्‍यता तो सब धर्मों मे पाई जाती है। वह अस्‍पृश्‍यता तो स्‍वच्‍छता के नियम का ही एक अंग है। वह तो सदा रहेगी। लेकिन भारत में हम एक प्रांत में, यहाँ तक कि हर एक जिले में, अलग-अलग कितने ही रूप हैं। उसने अस्‍पृश्‍यों और स्‍पृश्‍यों, दोनों को नीचे गिराया है। उसने लगभग चार करोड़ मनुष्‍यों का विकास रोक रखा है। उन्‍हें जीवन की सामान्‍य सुविधाएँ भी नहीं दी जाती। इसलिए इस बुराई को जितनी जल्‍दी निर्मल कर दिया जाए, उतना ही हिंदू धर्म, भारत और शायद समग्र मानव-जाति के लिए वह कल्‍याणकारी सिद्ध होगा।

यदि हम भारत की आबादी के पाँच वे हिस्‍से को स्‍थायी गुलामी की हालत में रखना चाहते हैं और जान-बूझकर राष्‍ट्रीय संस्‍कृति के फलों से वंचित रखना चाहते है, तो स्‍वराज्‍य एक अर्थहीन शब्‍द मात्र होगा। आत्‍म शुद्धि के इस महान आंदोलन में हम भगवान की मदद की आकांक्षा रखते हैं, लेकिन उसकी प्रजा के सबसे ज्‍यादा सुपात्र अंश को हम मानवता के अधिकारों से वंचित रखते हैं। यदि हम स्‍वयं मानवीय दया से शून्‍य हैं, तो उसके सिंहासन के निकट दूसरों की निष्‍ठुरता से मुक्ति पाने की याचना हम नहीं कर सकते।

इस बात से कभी किसी ने इनकार नहीं किया है कि अस्‍पृश्‍यता एक पुरानी प्रथा है। लेकिन यदि वह एक अनिष्‍ट वस्‍तु है, तो उसकी प्राचीनता के आधार पर उसका बचाव नहीं किया जा सकता। यदि अस्‍पृश्‍य लोग आर्यों के समाज के बाहर हैं, तो इसमें उस समाज की ही हानि है। और यदि यह कहा जाए कि आर्यों ने अपनी प्रगति-यात्रा में किसी मंजिल पर किसी वर्ग-विशेष को दंड के तौर पर समाज से बहिष्‍कृत कर दिया था, तो उनके पूर्वजों को किसी भी कारण से दण्डित किया गया हो, परंतु वह दंड उस वर्ग की संतान को देते रहने का कोई कारण नहीं हो सकता। अस्‍पृश्‍य लोग भी आपस में अस्‍पृश्‍यता का जो पालन करते हैं, उससे इतनी ही सिद्ध होता है कि किसी अनिष्‍ट वस्‍तु को सीमित नहीं रखा जा सकता और उसका घातक प्रभाव सर्वत्र फैल जाता है। अस्‍पृश्‍यों में भी अस्‍पृश्‍यता का होना इस बात के लिए एक अतिरिक्‍त कारण है कि सुसंस्‍कृत हिंदू समाज को इस अभिशाप से जल्‍दी-से-जल्‍दी मुक्‍त हो जाना चाहिए। यदि अस्‍पृश्‍यों को अस्‍पृश्‍य इसलिए माना जाता है कि वे जानवारों को मानते हैं और माँस, रक्‍त, हडिडयां और मैला आदि छूते हैं, तब तो हर एक नर्स और डॉक्‍टर को भी अस्‍पृश्‍य माना जाना चाहिए; और इसी तरह मुसलमानों, ईसाइयों और तथाकथित ऊँचे वर्गों के उन हिंदुओं को भी अस्‍पृश्‍य माना जाना चाहिए, जो आहार अथवा बलि के लिए जानवरों की हत्‍या करते हैं। कसाई खाने, शराबकी दुकानें, वेश्‍यालय आदि बस्‍ती से अलग होते हैं या होने चाहिए, इसलिए अस्‍पृश्‍यों को भी समाज से दूर और अलग रखा जाना चाहिए-यह दलील अस्‍पृश्‍यों के खिलाफ लोगों के मन में चले आ रहे उत्‍कट पूर्वाग्रह को ही बताती है। कसाई खाने और ताड़ी-शराब की दुकानें आदि जरूर बस्‍ती से दूरतथा अलग होते हैं और होने चाहिए। लेकिन कसाइयों और ताड़ी अथवा शराब के विक्रेताओं को शेष समाज से अलग नहीं रखा जाता।

हम आंतरिक प्रलोभनों तथा मोह में लिप्‍त हैं और अत्‍यंत अस्‍पृश्‍य और पापपूर्ण विचारों के प्रवाह हमारे मन में चलते हैं और उसे कलुषित करते हैं। हमें समझना चाहिए कि हमारी कसौटी हो रही है। ऐसी स्थिति में हम अभिमान के आवेश में अपने उन भाइयों के स्‍पर्श के प्रभावके बारे में, जिन्‍हें हम अक्‍सर अज्ञानवश और ज्‍यादातर तो दुरभिमान के कारण अपने से नीचा समझते हैं, अत्‍युक्ति न करें। भगवान के दरबार में हमारी अच्‍छाई-बुराई का निर्णय इस बात से नहीं किया जाएगा कि हम क्‍या खाते-पीते रहे हैं या हमें किस-किसने छुआ है; उसका निर्णय तो इस आधार पर किया जाएगा कि हमने किन-किन की सेवा की है और किस तरह की है। यदि हमने एक भी दीन-दुखी आदमी की सेवा की होगी, तो हमें भगवान की कृपादृष्टि प्राप्‍त होगी। ... अमुक वस्‍तुएँ न खाने की बात का उपयोग हम कपट-जाल, पाखंड और उससे भी अधिक पापपूर्ण कार्यों को छिपाने के लिए नहींकर सकते। इस आशंका से कि कहीं उनका स्‍पर्श हमारी आध्‍यात्मिक उन्‍नति में बाधक न हो, हम किसी पतित अथवा गंदी रहन-सहन वाले भाई-बहन की सेवा से इनकार नहीं कर सकते।

भंगी

जिस समाज में भंगी का अलग पेशा माना गया है। वहाँ कोई बड़ा दोष पैठ गया है, ऐसा मुझे तो बरसों से लगता रहा है। इस जरूरी और तंदुरुस्‍ती बढ़ाने वाले काम को सबसे नीच काम पहले-पहल किसने माना, इसका इतिहास हमारे पास नहीं है। जिसने भी माना उसने हम पर उपकार तो नहीं ही किया। हम सब भंगी है, वह यह भावना हमारे मन में बचपन से ही जम जानी चाहिए; और उसका सबसे आसान तरीका यह है कि जो समझ गए हैं वे जात-मेहनत का आरंभ पाखाना-सफाई से करें। जो समझ-बूझकर ज्ञानपूर्वक यह करेगा,वह उसी क्षण से धर्म को निराले ढँग से और सही तरीके से समझने लगेगा।

आरंभ में अस्‍पृश्‍यता स्‍वच्‍छता के नियमों में से एक थी और भारत के बाहर दुनिया के कई हिस्‍सों में आज भी उसका यही रूप है। वह नियम यह है कि चीज गंदी हो गई हो या आदमी किसी कारण गंदा हो गया हो तो उसे छूना नहीं चाहिए, लेकिन ज्‍यों ही उसका गंदापन दूर हो जाए या कर दिया जाए त्‍यों ही उसे छू सकते हैं। इसलिए भंगी काम करने वाले व्‍यक्ति-‍फिर चाहे वह भंगी हो जिसे कि उस काम का पैसा मिलता है या माँ हो जिसे अपने इस काम का कोई पैसा नहीं मिलता तब तक गंदे और अस्‍पृश्‍य माने जाएँगे, जब तक वे नहा-धोकर इस गंदगी को दूर नहीं कर देते। इसलिए भंगी हमेशा के लिए अस्‍पृश्‍य न माना जाए, बल्कि उसे हम अपना भाई मानें। वह समाज की एक ऐसी सेवा करता है, जिसमें उसका शरीर गंदा हो जाता है; हमें चाहिए कि हम उसे इस गंदगी को साफ करने का का मौका दें, बल्कि उस कार्य में उसकी सहायता करें और फिर उसे समाज के किसी भी सदस्‍य की तरह स्‍वीकार करें।


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