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वैचारिकी

मेरे सपनों का भारत

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुक्रम 65 प्रांतों का पुनर्गठन पीछे     आगे

कांग्रेस ने 20 साल से यह तय कर लिया था कि देश में जितनी बड़ी-बड़ी भाषाएँ हैं उतने प्रांत होने चाहिए। कांग्रेस ने यह भी कहा था कि हुकूमत हमारे हाथ में आते ही ऐसे प्रांत बनाए जाएँगे। वैसे तो आज भी 9 या 10 प्रांत बने हुए हैं और वे एक केंद्र के अधीन हैं। इसी तरह से अगर नए प्रांत बनें और दिल्‍ली को मातहत रहें, तब तो कोई हर्ज की बात नहीं। लेकिन वे सब अलग-अलग होकर आजाद हो जाएँ और एक केंद्र के अधीन न रहें, तो फिर वह एक निकम्‍मी बात हो जाती है। अलग-अलग प्रांत बनने के बाद वे यह न समझ लें कि बंबई का महाराष्‍ट्र का कर्नाटक से कोई संबंध नहीं और कर्नाटक का आंध्र से कोई संबंध नहीं। तब तो हमारा काम बिगड़ जाता है। इसलिए सब आपस में एक-दूसरे को भाई-भाई समझें। इसके अलावा, भाषावार प्रांत बन जाते है, तो प्रांतीय भाषाओं की भी तरक्‍की होती है। वहाँ के लोगों को हिंदुस्‍तानी में तालीम देना वाहियात बात है और अँग्रेजी में देना तो और भी वाहियात है।

अब सीमाबंदी-कमीशनों की बात तो हमें भूल जानी चाहिए। लोग आपस में मिल-जुलकर नक्‍शे बना लें और उन्‍हें पंडित जवाहलाल जी के सामने रख दें। वे हुकूमत की तरफ से उन पर दस्‍तक दे देंगे। वास्‍तव में इसी का नाम तो आजादी है। अगर आज केंद्रीय सरकार को सीमाएँ तय करने के लिए कहें, तब तो काम बहुत कठिन हो जाएगा।

मुझे यह कबूल है कि जो उचित है उसे अब करना चाहिए। बगैर कारण के रुकना ठीक नहीं। इससे नुकसान भी हो सकता है। पाप के साथ हमारा कोई सरोकार नहीं हो सकता।

फिर भी भाषावार सूबों के विभाग में देर होती है उसका कारण है। उसका कारण आज का बिगड़ा हुआ वायुमंडल है। आज हर एक आदमी अपना ही देखता है। मुल्‍क की ओर जाने वाले, उसका भला सोचने वाले लोग हैं जरूर, लेकिन उनकी सुने कौन? अपनी ओर खीचने वाले लोग शोर मचाते हैं, इसलिए उनकी बात सब सुनते हैं। दुनिया ऐसी ही है नᣛ?

आज भाषावार सूबों का विभाग करने में झगड़े का डर रहता है। उड़िसा भाषा को ही लीजिए। उड़ीसा अलग सूबा बन गया है, फिर भी कुछ-न-कुछ खीचतानी रही ही है। एक ओर आंध्र, दूसरी ओर बिहार और तीसी ओर बंगाल है। कांग्रेस ने तो भषावार विभाग सन् 1920 में किया। बाकानून विभाग तो उड़िसा बोलने वाले सूबे का ही हुआ है। मद्रास के चार विभाग कैसे हों? बंबई के कैसे हो? आपस में मिलकर सब सूबे आवें और अपनी और बना लें, तो बाकानून विभाग आज हो बन सकते है। आज हुकूमत क्‍या यह बोझ उठा सकती है? कांग्रेस की जो ताकत 1920 में थी वह क्‍या आज हैB? आज क्‍या उसकी चलती हैᣛ?

आज तो दूसरे हकदार भील पैदा हो गए हैं। ऐसे मौके पर हिंदुस्‍तान बेहाल-सा लगता है। आज तो संप (मेल) के बदले मौत है। जब कौमी झगड़े बंद होंगे तक हम समझ सकेंगे कि सब ठीक हुआ है। ऐसी हालत में भाषावार विभाग लोग आपस में मिलक कर लें, तो कानून आसान होगा अन्‍यथा शायद नहीं।

ऐसा लगता है कि अगर यूनियन के सारे सूबों को हर दिशा में एक-सी तरक्‍की करनी हो, तो हर सूबे की नौकरियाँ, पूरे हिंदुस्‍तान की तरक्‍की के खयाल से ज्‍यादातर वहाँ के रहने वालों को ही दी जानी चाहिए। अगर हिंदुस्‍तान को दुनिया के सामने स्‍वाभिमान से सिर ऊँचा रखना है, तो किसी सूबे और किसी जाति या तबके को पिछड़ा हुआ नहीं रखा जा सकता। लेकिन अपने उन हथियारों के बल पर हिंदुस्‍तान ऐसा नहीं कर सकता, जिनसे दुनिया ऊब चुकी है। उसे अपने हर नागरिक के जीवन में और हाल में ही मेरे द्वारा बताए गए समाजवाद में प्रकट होने वाली अपनी कुदरती तहजीव या संस्‍कृति के द्वारा ही चमकना चाहिए। इसका यह मतलब है कि अपनी योजनाओं या उसूलों को जनप्रिय बनाने के लिए किसी भी तरह की ताकत या दबाव को काम में न लिया जाए। जो चीज सचमुच जनप्रिय हैं उसे सबसे मनवाने के लिए जनता की राय के सिवा दूसरी किसी ताकत की शायद ही जरूरत हो। इसलिए बिहार, उड़ीसा और आसाम में कुछ लोगों द्वारा की जाने वाली हिंसा के जो बुरे दृश्‍य देखे गए, वे कभी नहीं दिखाई देने चाहिए थे। अगर कोई आदमी नियम के खिलाफ काम करता है या दूसरे सूबों के लोग किसी सूबे में आकर वहाँ के लोगो के हम मारते हैं, तो उन्‍हें सजा देने और व्‍यवस्‍था कायम रखने के लिए जनप्रिय सरकारें सूबों में राज्‍य कर रही है। सूबों की सरकारों का यह फर्ज है कि वे दूसरे सूबों से अपने यहाँ आने वाले सब लोगों की पूरी-पूरी हिफाजत करें। 'जिस चीज को तुम अपनी समझते हो, उसका ऐसा इस्‍तेमाल करो कि दूसरे को नुकसान न पहुँचे' यह समानता का जाना-पहचाना उसूल है। यह नैतिक बरताव भी सुंदर नियम है। आज की हालत में यह कितना उचित मालूम होता है।

'रोम में रोमनों की तरह रहो, यह कहावत जहाँ तक रोमन बुराईयों से दूर रहती है वहाँ तक समझदारी से भरी फायदा पहुँचाने वाली कहावत है। एक दूसरे के साथ घुल-मिलकर तरक्‍की करने के काम में यह ध्‍यान रखना चाहिए कि बुराईयों को छोड़ दिया जाए और अच्‍छाइयों को पचा लिया जाए। बंगाल में एक गुजराती के नाते मुझे बंगाल की सारी अच्‍छाइयों को तुरंत पचा लेना चाहिए और उसकी बुराई को कभी छूना भी नहीं चाहिए। मुझें हमेशा बंगाल की सेवा करनी चाहिए; अपने फायदे के लिए उसे चूसना नहीं चाहिए। दूसरों से बिलकुल अलग रहने वाली हमारी प्रांतीयता जिंदगी को बरबाद करने वाली चीज है। मेरी कल्‍पना के सूबे की हद सी प्रांतीयता की हदों तक फैली हुई होगी, ताकि अंत में उसकी हद सारे विश्‍व की हदों तक फैली जाए। वर्ना वह खतम हो जाएगा।

मेरी राए में एक हिंदुस्‍तानी का नागरिक है और देश के हर हिस्‍से में उसे बराबर का हक हासिल है। इस‍लिए एक बंगाली को बिहार में एक बिहारी के नाते सभी हक हासिल है। मगर मैं इस बार पर जोर देना चाहता हूँ कि उस बंगाली को बिहारियों के साथ पूरी तरह घुल-मिल जाना चाहिए। उसे अपना मतलब साधने के लिए बिहारियों का उपयोग करने का गुनाह नहीं करना चाहिए, या बिहारियों के बीच अपने-आपको अजनबी समझना या उसने अजनबी-जैसा बरताव नहीं करना चाहिए। ... सारे हक उन फर्जों से निकलते है, जिन्‍हें हम पहले से पूरी तरह अदा कर चुकते हैं। एक बात पर मैं जरूर जोर दूँगा कि अगर आपको किसी तरह आगे बढ़ना है, तो हिंदुस्‍तान के दोनों उपनिवेशों में जोर-जबरदस्‍ती से अपने हक आजमाने की बात को पूरी तरह छोड़ देना होगा। इस तरह न तो बंगाली और न बिहारी तलवार के जोर से अपने हक आजमा सकते और न तलवार के जारे से सीमा-कमीशन के फैसले को बदला जा सकता। लोकशाही वाले आजाद हिंदुस्‍तान में सबसे पहले आपको यही सबक सीखना होगा। ... आजादी का यह मतलब कभी नहीं होता कि आपकी अपनी मर्जी से चाहे जो करने की छुट्टी मिल गई। आजादी का मतलब यह है कि आप बिना किसी बाहरी दबाव के अपने ऊपर काबू रखें और अनुशासन पालें; और जारी-खुशी से उन कानूनों पर अमल करें जिन्‍हें पूरे हिंदुस्‍तान ने अपने चुने हुए नुमाइंदों के जरिए बनाया है। प्रजातंत्र या लोकशाही में एकमात्र ताकत लोकमत की होती है। खुले या छिपे तौर पर जोर-जबरदस्‍ती का इस्‍तेमाल करने से सत्‍याग्रह, सिविल नाफरमानी और उपवासों का कोई सं‍बंध नहीं है। मगर लोकशाही में इनके इस्‍तेमाल पर भी काबू रखने की जरूरत है। जब सरकारें जम रही हों ओर सांप्रदायिक दंगों का रोग एक सूबे से देसरे सूबे में फैल रहा हो, तब तो इनके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता।

द्राविड़िस्‍तान?

इसके बाद गांधी जी ने द्राविड़िस्‍तान के आंदोलन का जिक्र किया। यह दक्षिण हिंदुस्‍तान का वह हिस्‍सा है, जहाँ के लोग तेलगू, तामिल, मलयालम और कन्‍नड़ चार द्राविड़ी भाषाये बोलते हैं। उन्‍होंने कहा, हिंदुस्‍तान का इन चार भाषाओं को बोलने वाला हिस्‍सा बाकी के हिंदुस्‍तान से अलग क्‍यों किया जाए? क्‍या ज्‍यादातर संस्‍कृत से निकलने के कारण ही ये भाषाएँ उन्‍नत नहीं हुई हैं? मैंने इन चारों सूबों का दौरा किया है। मुझे उनमें और दूसरे सूबों में कोई फर्क नहीं मालूम हुआ। पुराने जमाने में ऐसा माना जाता था कि विंध्याचल के दक्षिण में रहने वाले अनार्य और उसके उत्‍तर में रहने वाले आर्य हैं। पुराने जमाने में हम कोई भी रहे हों, आज तो हम इतने घुल-मिल गए हैं कि हिंदुस्‍तान के दो भाग हो जाने पर भी हम कश्‍मीर से कन्‍याकुमारी तक एक ही राष्‍ट्र हैं। देश के और ज्‍यादा टुकड़े करना मूर्खता होगी। अगर मौजूदा बँटवारे के बाद भी हम देश के छोटे-छोटे टुकड़े करते रहे, तो अनगिनत स्‍वतंत्र सार्वभौम राज्‍य बन जाएँगे, जो हिंदुस्‍तान और दुनिया के लिए बेकार साबित होंगे। दुनिया को हम अपने बारे में यह कहने का मौका न दें कि हिंदुस्‍तानी सिर्फ गुलामी में ही एक सियासी हुकूमत के मातहम रह सकते थे, लेकिन आजाद होकर वे जंगलियों की तरह जितने चाहें उतने गिरोहों में बँट जाएँगे और हर गिरोह अपने अलग रास्‍ते जाएगा। या, क्‍या हिंदुस्‍तानी ऐसे निरंकूश राज्‍य के गुलाम बनकर रहेंगे, जिसके पास उन्‍हें गुलामी में जकड़ने लायक बड़ी भारी फौज होगीᣛ?

मैं सब हिंदुस्‍तानियों और खासकर दक्षिण के लोगों से अपील करता हूँ कि वे अँग्रेजी भाषा की गुलामी को छोड़ दें, जो अंतरराष्‍ट्रीय व्‍यापार और राजनीति के लिए ही अच्‍छी भाषा है। वह हिंदुस्‍तान के करोड़ों लोगों की भाषा कभी नहीं बन सकती। अँग्रेजों का एक या डेढ़ सदी का राज्‍य भी हिंदुस्‍तानी जन-समुद्र के कुछ लाख से ज्‍यादा लोगों को अँग्रेजी बोलने वाले नहीं बना सका। अगर आप जन-गणन के आंकड़े देखें तो आपको पता चलेगा कि कई लाख आदमी हिंदी और उर्दू की मिलावट वाली और नागरी या उर्दू लिपि में लिखी जाने वाली हिंदुस्‍तानी बोलते हैं। संस्‍कृत के शब्‍दों से लदी हुई हिंदी या फारसी के शब्‍दों से भरी हुई उर्दू बहुत कम लोग बोलते हैं। मुझसे दक्षिण के लोगों ने पूछा है कि क्‍या हम अपने सूबे की लिपि में हिंदुस्‍तानी सीख सकते हैं? मुझे तो कोई एतराज नहीं हे। सच पूछा जाए तो हिंदुस्‍तानी प्रचार-सभा ने दक्षिण के लड़कों को उनके सूबे की लिपि में हिंदुस्‍तानी सीखने की इजाजत दे दी है। बाद में वे नागरी और उर्दू लिपि सीखते हैं, ताकि वे आसानी से उत्‍तर हिंदुस्‍तान के साहित्‍य की जानकारी हासिल कर सकें। देश-प्रेम का इतना तो उनसे तकाजा है ही। आज दक्षिण के लोगों के संकुचित प्रांतीय के शिकार होने का भारी खतरा है। अगर सभी संकुचित बन जाएँगे, तो हमारा प्‍यार हिंदुस्‍तान कहाँ रह जाएगा? मैं खुले तौर पर यह मंजूर करता हूँ कि अगर दक्षिण के लोगों के लिए हिंदुस्‍तानी का न सीखना गलत चीज है, जैसा कि सचमुच है, तो उत्‍तर के लोगों के लिए दक्षिण की उत्‍तम साहित्‍यवाली चार भाषाओं में से एक या अधिक भाषाएँ न सीखना भी उतना ही गलत है। मैंने दक्षिण के सदस्‍यों से अपील की है कि वे हिंदुस्‍तानियों की सभा में अँग्रेजी भाषा की कभी माँग न करने की प्रतिज्ञा कर लें। तभी वे जल्‍दी हिंदुस्‍तानी सीख सकेंगे। हमें याद रखना चाहिए कि आजाद हिंदुस्‍तान तभी एक बनकर काम कर सकेगा, जब वह नैतिक शासन को मानेगा। गुलामी के खिलाफ लड़ने वाली संस्‍था के नाते कांग्रेस अपनी नैतिक ताकत से ही आज तक संगठित रह सकी है। लेकिन जब उसने राजनीतिक आजादी करीब-करीब ले ली है, तब क्‍या उसका संगठन खतम हो जाएगा-पह बिखर जाएगी।


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