मैं आम लोगों को यह सिखाता कि वे पूँजीपतियों को अपना दुश्मन मानें। मैं तो उन्हें यह सिखाता हूँ कि वे आप ही अपने दुश्मन हैं।
वर्गयुद्ध भारत के मूल स्वभाव के खिलाफ है। भारत में समान न्याय और सबके बुनियादी हकों के विशाल आधार पर स्थापित एक उदार किस्म का साम्यवाद निर्माण करने की क्षमता है। मेरे सपने के रामराज्य में राजा और रंक सबके अधिकार सुरक्षित होंगे।
मैंने यह कभी नहीं कहा कि शोषकों और शोषितों में सहयोग होना चाहिए। जब जक शोषण और शोषण करने की इच्छा कायम है तब तक सहयोग नहीं हो सकता। अलबत्ता, मैं यह नहीं मानता कि सब पूँजीपति और जमींदार अपनी स्थिति कि किसी आंतरिक आवश्यकता के फलस्वरूप शोषक ही हैं और न मैं यह मानता हूँ कि उनके और जनता के हितों में कोई बुनियादी या अकाट्य विरोध है। हर प्रकार को शोषण शोषित के सहयोग पर आधारित है, फिर वह सहयोग स्वेच्छा से दिया जाता हो या लाचारी से। हम इस सच्चाई को स्वीकार करने से कितना ही इनकार क्यों न करें, फिर भी सच्चाई तो यही है कि यदि लोग शोषक की आज्ञा न मानें तो शोषण हो ही नहीं सकता। लेकिन उसमें स्वार्थ आड़े आता है और हम उन्हीं जंजीरों को अपनी छाती से लगाए रहते हैं जो हमें बाधती हैं यह चीज बंद होना चाहिए। जरूरत इस बात की नहीं हैं कि पूँजीपति और जमींदार खतम हो जाएँ; उनमें और आम लोगों में आज जो संबंध है उसे बदलकर ज्यादा स्वस्थ और शुद्ध संबंध बनाने की जरूरत है।
वर्गयुद्ध का विचार मुझे नहीं भाता। भारत में वर्गयुद्ध न सिर्फ अनिवार्य नहीं हैं, बल्कि यदि हम अहिंसा के संदेश को समझ गए हैं तो उसे टाला जा सकता है। जो लोग वर्गयुद्ध को अनिवार्य बताते हैं, उन्होंने या तो अहिंसा के फलितार्थों को समझा नहीं है, या ऊपरी तौर पर ही समझा है।
हमें पश्चिम से आए अुए मोहक नारों के असर में आने से बचना चाहिए। क्यों हमारे पास हमारी विशिष्ट पूर्वी परंपरा नहीं है? क्या हम और पूँजी के सवाल का कोई अपना हल नहीं निकाल सकतेᣛ? वर्णश्रम की व्यवस्था बड़े और छोटे का भेद दूर करने या पूँजी और श्रम में मेल साधने का एक उत्तम साधन नहीं तो और क्या है? इस विषय से संबंधित जो कुछ भी पश्चिमसे आया है वह हिंसा के रंग में रंगा हुआ है। मैं उसका विरोध करता हूँ, क्योंकि मैंने उस नाश को देखा है जो इस मार्ग में आखिरी छोर पर हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। पश्चिम के भी ज्यादा विचारवान लोग अब यह समझने लगे हैं कि उनकी व्यवस्था उन्हें एक गहरे गर्त की ओर ले जा रही है और वे उससे भयभीत हैं। पश्चिम में मेरा जो भी प्रभाव है उसका कारण हिंसा और शोषण के इस दुष्चक्र के उद्धार का रास्ता ढूँढ़ निकालने का मेरा अथक प्रयत्न ही है। मैं पश्चिम की समाज-व्यवस्था का सहनुभूतिशील विद्यार्थी रहा हूँ और मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि पश्चिम की इस बेचैनी और संघर्ष के पीछे सत्य की व्याकुल खोज की भावना ही हैं। मैं इस भावना की कीमत करता हूँ। वैज्ञानिक जाँच की उसी भावना से हम पूर्व की अपनी संस्थाओं का अध्ययन करें तो मेरा विश्वास है कि दुनिया ने अभी तक जिसका सपना देखा है उससे कहीं ज्यादा सच्चे समाजवाद और सच्चे साम्यवाद का हम विकास कर सकेंगे। यह मान लेना गलत है कि लोगों की गरीबी के सवाल पर पश्चिम समाजवाद या साम्यवाद ही अंतिम शब्द हैं।
मैं जमींदार का नाश नहीं करना चाहता, लेकिन मुझे ऐसा भी नहीं लगता कि जमींदार अनिवार्य है। मैं जमींदारों और दूसरे पूँजीपतियों का अहिंसा के द्वारा हृदय-परिवर्तन करना चाहता हूँ और इसलिए वर्गयुद्ध की अनिवार्यता को मैं स्वीकार नहीं करता। कम-से-कम संघर्ष का रास्ता लेना मेरे लिए अहिंसा के प्रयोग का एक जरूरी हिस्सा है। जमीन पर मेहनत करने वाले किसान और मजदूर ज्यों ही अपनी ताकत पहचान लेंगे, त्यों ही जमींदारी की बुराई का बुरापन दूर हो जाएगा। अगर वे लोग यह कह दें कि उन्हें सभ्य जीवन की आवश्यकताओं के अनुसार अपने बच्चों के भोजन, वस्त्र और शिक्षण आदि के लिए जब तक काफी मजदूरी नहीं दी जाएगी, तब तक वे जमीन को जोतेंगे-बोएँगे ही नहीं, तो जमींदार बेचारा कर ही क्या सकता है? सच तो यह है कि मेहनत करने वाला जो कुछ पैदा करता है उसका मालिक वही है। अगर मेहनत करने वाले बुद्धिपूर्वक एक हो जाएँ, तो वे एक ऐसी ताकत बन जाएँगे जिसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता। और इसीलिए मैं वर्गयुद्ध की कोई जरूरत नहीं देखता। यदि मैं उसे अनिवार्य मानता होता तो उसका प्रचार करने में और लोगों को उसकी तालीम देने में मुझे कोई संकोच नहीं होता।
सवाल एक वर्ग को दूसरे वर्ग के खिलाफ भड़काने और भिड़ाने का नहीं है, बल्कि मजदूर-वर्ग को अपनी स्थिति के महत्त्व का ज्ञान कराने का है। आखिर तो अमीरों की संख्या दुनिया में इनी-गिनी ही है। ज्यों ही मजदूर-वर्ग को अपनी ताकत का भान होगा और अपनी ताकत जानते हुए भी वह इमानदारी का व्यवहार करेगा, त्यों ही वे लोग भी ईमानदारी का व्यवहार करने लगेंगे। मजदूरों को अमीरों के खिलाफ भड़काने का अर्थ वर्ग द्वेष को और उससे निकलने वाले तमाम बुरे नतीजों को जारी रखना होगा। संघर्ष एक दुष्चक्र है और उसे किसी भी कीमत पर टालना ही चाहिए। वह दुर्बलता की स्वीकृति का, हीनता-ग्रंथि का चिह्न है। श्रम ज्यों ही अपनी स्थिति का महत्त्व और गौरव पहचान लेगा, त्यों ही धन को अपना उचित दरजा मिल जाएगा, अर्थात् अमीर उसे अपने पास मजदूरों की धरोहर के ही रूप में रखेंगे। कारण, श्रम धन से श्रेष्ठ है।