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लेख

अँग्रेजी राज हिला चुटकी भर नमक से

शिव कुमार मिश्र


दांडी मार्च (12 मार्च, 1930) भारत के मुक्ति संग्राम की स्‍फूर्तिदायिनी परंपरा का शीर्ष है। इसी दिन महात्‍मा जी ने अपने अठहत्तर सत्‍याग्रहियों के साथ दांडी मार्च की शुरुआत की थी। सत्‍याग्रहियों में भारत के सब प्रांतों के व्‍यक्ति थे, यहाँ तक कि नेपाल के लोग भी शामिल थे। हालाँकि, सब से अधिक व्‍यक्ति गुजरात के ही थे। दो मुसलमान और एक ईसाई भी दांडी मार्च में शरीक हुए। सत्‍याग्रहियों में से कुछ धनी थे, और कुछ निर्धन। कुछ शिक्षित थे और कुछ अनपढ़, लेकिन ध्‍येय सब का एक ही था - वे भारत को आजाद देखना चाहते थे। दांडी मार्च में गांधी परिवार की तीन पीढ़ियाँ भी शामिल थीं - महात्‍मा जी, बेटा मणि लाल और पोता कांति लाल।

इस तीर्थ यात्रा में आयु में सबसे बड़े महात्‍मा जी थे, तब उनकी आयु 61 वर्ष थी और सब से छोटा सत्‍याग्रही अठारह वर्ष का था। उस 400 किलोमीटर के मार्ग पर सत्‍याग्रहियों को दांडी जाना था, दृश्‍य एक जैसा था। सड़क पर दोनों ओर उत्तेजित पर अनुशासित भीड़ जो हरेक गाँव पर सत्‍याग्रहियों का स्‍वागत करने के लिए घंटों प्रतीक्षा करती रही थी। जनता के लिए गांधी जी का एक ही संदेश था : 'विचार, शब्‍द एवं कार्य पवित्र होने चाहिए। चर्खा कातो, और खादी पहनो। शराब छोड़ दो। सामाजिक कुरीतियों को खत्‍म करो। संगठित हो जाओ, शांत रहो और अहिंसा का पालन करो एवं नमक कानून तोड़ने के लिए तैयार रहो।' संदेश सीधा साधा आर सरल था लेकिन संदेश का प्रभाव राष्‍ट्रव्‍यापी, जबरदस्‍त और विस्‍मयकारी था।

दांडी मार्च ने, जिसमें 24 दिन लगे केवल भारत के लोगों का ही नहीं बल्कि सारे संसार का ध्‍यान इस अहिंसक क्रांति की ओर आकर्षित किया।

कांग्रेस-प्रमुख जवाहरलाल नेहरू थे। नेहरू ने कहा, 'आज तीर्थ यात्री लंबी यात्रा पर जा रहा है। डंडा पकड़े वह गुजरात की धूल भरी सड़कों पर चलता है, स्‍पष्‍ट दृष्टि और दृढ़ कदमों के साथ वह अपनी वफादार टोली के साथ आगे बढ़ रहा है। भूतकाल में उन्‍होंने कई यात्राएँ की है, और कई सड़कों पर चले हैं। लेकिन और अन्‍य सब यात्राओं से जो उन्‍होंने पहले की थी, यह यात्रा, अधिक लंबी है। उनके रास्‍ते में कई बाधाएँ हैं। उनमें निश्‍चय की दृढ़ता है अपने दुखी और गरीब देशवासियों के लिए असीम प्रेम। सत्‍य के प्रति प्रेम जलाता है और स्‍वाधीनता का प्रेम प्रेरणा देता है... यह एक लंबी यात्रा है क्‍योंकि इसका ध्‍येय भारत की पूर्ण स्‍वाधीनता और भारत के करोड़ों लोगों की लूट-खसोट का अंत।'

दांडी मार्च के शुरू होने के 9 दिन बाद यानि 21 मार्च को कांग्रेस की कार्य समिति की बैठक अहमदाबाद में हुई। बैठक ने महात्‍मा गांधी के आंदोलन का अनुमोदन किया और आकांक्षा व्‍यक्‍त की कि सारा देश इसमें सहयोग देगा। बैठक ने प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों को अधिकार दिया कि महात्‍मा गांधी द्वारा नमक कानून तोड़ने के बाद वे सब अपने अपने प्रांत में नमक कानून का उल्‍लंघन नियोजित ढंग से करें।

पंडित नेहरू जंबुसर में गांधी जी से मिले। तब उनके साथ पंडित मोती लाल नेहरू भी थे।

महात्‍मा जी ने उस प्रतिज्ञा का मसविदा तैयार किया जो सत्‍याग्रह में हर सत्‍याग्रही को प्रतिज्ञा लेनी होगी। प्रतिज्ञा में कहा था :

1. मैं भारत की स्‍वतंत्रता के लिए राष्‍ट्रीय कांग्रेस द्वारा आरंभ अवज्ञा आंदोलन में भाग लेना चाहता हूँ।

2. मैं राष्‍ट्रीय कांग्रेस के सिद्धांतों से सहमत हूँ कि भारतवासियों को पूर्णस्‍वराज्‍य मिलना चाहिए। इसके लिए हम वैध और शांत तरीके अपनाएँगे।

3. इस आंदोलन के दरमियान में जेल जाने और जो भी दुख और सजा मिले, उसे झेलने को तैयार हूँ।

4. यदि मुझे जेल भेज दिया गया तो मैं अपने परिवार के लिए कांग्रेस कोष से धन की सहायता नहीं माँगूँगा।

5. मैं आंदोलन के नेताओं का आदेश मानूँगा।

दांडी मार्च की कोख से जन्‍मे सत्‍याग्रह में सारे देश में एक लाख से अधिक अहिंसक सत्‍याग्रही अँग्रेज की जेल की बैरकों को आबाद करने के लिए भेज दिए गए। इन सत्‍याग्राहियों में 17,000 से अधिक औरतें भी थी। भारतीय इतिहास की अनूठी घटना थी जिसमें आजादी की आकांक्षा लिए इतनी भारी ताहाद में महिलाओं ने हिस्‍सा लिया। दांडी मार्च की महानायिका सरोजनी नायडू ने धरसना नमक डिपो पर सत्‍याग्रह का नेतृत्‍व करते हुए कहा, 'भारत का सम्‍मान तुम्‍हारे हाथों में है। किसी भी दशा और स्थिति में हिंसा का उपयोग नहीं होना चाहिए। आप को पीटा जाएगा मगर आप इसका विरोध नहीं करेंगे। आप को उनके प्रहारों से बचने के लिए अपने हाथ भी नहीं उठाने होंगे। यद्यपि गांधी जी का शरीर कैद में है, मगर इनकी आत्‍मा तुम्‍हारे साथ है।'

एक भी सत्‍याग्रही ने अपने को बचाने के लिए हाथ नहीं उठाया तथापि पुलिस उन्‍हें बार बार पीट रही थी। दो तीन मिनट में वहाँ की धरती गिरे हुए सत्‍याग्रहियों से पट गई। उनकी खोपड़ियाँ फट गई थीं और कंधों की हड्डियाँ टूट गई थी। उनके सफेद कपड़ों पर खून के बड़े बड़े छींटे पड़ गए थे। लेकिन उन के पीछे के सत्‍याग्रही बराबर आगे बढ़ते गए जब तक उन्‍हें भी मारकर लहुलुहान न कर दिया गया।

यह था महात्‍मा जी का करिश्‍मा। महात्‍मा के अहिंसक सत्‍याग्रही हर जोर जुल्‍म सहने के लिए तत्‍पर थे, लेकिन प्रतिरक्षा और प्रतिरोध में हाथ नहीं उठा। महात्‍मा जी का यही निर्देश था, यदि तुम्‍हें जेल भेजा जाए तो तुम्‍हें धर्मनिष्‍ठा से जाना चाहिए। यदि तुम्‍हें मारा पीटा जाए तो उसे प्रसन्‍नता से सहो और तुम पर गोली चलाई जाए तो शांति से मरो।

महात्‍मा की सीख थी कि, सत्‍याग्रही भय के आगे नहीं झुकता... वह दूसरे पक्ष को नीचा दिखाने का प्रयत्‍न भी नहीं करता... वह न्‍याय के रास्‍ते से नहीं हटता और न ही असंभव शर्तें रखता है। वह अपनी माँग न बहुत ऊँची और न ही नीची रखता है। मैं वर्तमान समझौते को स्‍वीकार करता हूँ। जिसमें ये सब शर्ते पूरी होती हैं।

'हम पूर्ण स्‍वतंत्रता के सिवाय और कुछ नहीं माँगेंगे। यह हमें मिलेगी या नहीं, एक दूसरी बात है।' गांधी जी ने यह भी कहा, 'स्‍वराज्‍य अभी मिला तो नहीं है मगर उसके द्वार खुल गए है।' गांधी जी ने बताया कि 'हमारा ध्‍येय पूर्ण स्‍वराज्‍य है। भारत इस से कम में संतुष्‍ट नहीं होगा। ...भारत बीमार बालक नहीं हैं कि उसे देखभाल, बाहरी मदद या बैसाखियों की जरूरत है।

गांधी जी अपने लेखों और भाषणों में हिंदू मुसलमानों की एकता, पैक्‍ट की शर्तों का सख्‍ती से पालन, रचनात्‍मक कार्यक्रम में सक्रियता, जिसमें विदेशी वस्‍त्रों का बहिष्‍कार और शराब की दुकानों पर धरना भी शामिल था, पर बल दिया।

नमक सत्‍याग्रह आरंभ करने से पहले गांधी जी ने वायसराय लार्ड इर्विन को एक खत लिखा। इसमें महात्‍मा जी ने वायसराय को 'प्रिय मित्र' कह कर संबोधित किया और लिखा :

' असहयोग एवं सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने से पहले, जो खतरा लेने से मैं इतने वर्ष डरता रहा हूँ। मैं आप को कोई अन्‍य उपाय खोजने के लिए लिख रहा हूँ। मेरा स्‍वयं का विश्‍वास बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट है। मैं जान-बूझकर किसी जीवित प्राणी को चोट नहीं पहुँचा सकता, फिर इनसानों की तो बात ही क्‍या, चाहे वे मुझे और मेरों को कितनी हानि क्‍यों न पहुँचाएँ। यद्यपि मैं भारत में अँग्रेजी शासन को शाप समझता हूँ फिर भी मेरी इच्‍छा किसी भी अँग्रेज को हानि पहुँचाने की नहीं है...। मैं ब्रिटिश शासन को शाप क्‍यों समझता हूँ? ब्रिटिश शासन ने सैनिक और नागरिक प्रशासन की भयंकर खर्चीली व्‍यवस्‍था को हमारे ऊपर लादा है। इसने लगातार हमारा शोषण किया है और लोगों को गूँगा और कंगाल बना दिया है।

इसने हमें राजनीति रूप से खरीदे हुए गुलाम बना दिया है और हमारी संस्‍कृति की आधारशिला ही हिला दी है। मुझे शंका है कि निकट भविष्‍य में भारत को स्‍वतंत्र उपनिवेश बनाने का आप का कोई इरादा नहीं है।

मैं आप के सामने कुछ महत्‍वपूर्ण बातें रख रहा हूँ, सारी राजस्‍व पद्धति का सुधार करना होना। इसका ध्‍येय किसान का भला होना चाहिए। ब्रिटिश तरीका ऐसा है कि यह किसान का जीवन तत्‍व ही चूस लेता है। जीने के लिए जो नमक उसे चाहिए उस पर भी कर लगा दिया गया है। इस का सबसे अधिक बोझ उसी पर पड़ता है। यह कर गरीब आदमी को तब और भी खलता है जब उसे यह याद आता है कि वह इस चीज को अमीर से अधिक खाता है। शराब और गैर कानूनी चरस अफीम का राजस्‍व भी गरीबों से ही अधिक आता है।

ऐसे अन्‍याय जिनके उदाहरण ऊपर दिए गए है, हर समय किए जाते हैं जिससे दुनिया में सब से महँगा विदेशी प्रशासन चलता रहे। आप अपने वेतन को देखिए, जो 21,000 रुपये मासिक है। ब्रिटिश प्रधान मंत्री को 5000 पांऊड वार्षिक मिलते है अर्थात 5,400 रुपये मासिक। आप को 700 रुपये प्रतिदिन मिलते है जबकि एक भारतीय की औसतन आय दो आना प्रतिदिन से भी कम है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री को 180 रुपए प्रतिदिन मिलते हैं जबकि एक ब्रिटेनवासी की प्रतिदिन की औसत आय दो रुपये है। इस तरह आप की आय एक भारतीय की औसत आय से पाँच हजार गुना अधिक है। अँग्रेज प्रधानमंत्री की आय एक अँग्रेज की औसतन आय से केवल नब्‍बे गुना अधिक है। मैं घुटने टेककर कहता हूँ कि आप इस बात पर गौर करें।

जो बात वाइसराय के वेतन के लिए सच है वह सारे प्रशासन के खर्च के लिए भी सच है। राजस्‍व में कमी करने का अर्थ है प्रशासन के खर्च में कमी। यह कमी मूलभूत सुधार लाकर की जाए।

यदि भारत को एक राष्‍ट्र की तरह जीवित रहना है और यहाँ के लोगों का भूख से धीरे-धीरे मरना बंद होना है तो कोई ऐसा उपाय ढूँढ़ना होगा जिससे उन्‍हें तत्‍काल राहत मिले।

मेरे भीतर यह विश्‍वास जड़ पकड़ता जा रह है कि केवल आहिंसा ही अँग्रेजी सरकार की संगठित हिंसा को रोक सकती है। यह अहिंसा हम असहयोग आंदोलन द्वारा प्रकट करेंगे। अभी यह आंदोलन साबरमती आश्रम के सदस्‍यों तक ही सीमित होगा लेकिन अंततः यह आंदोलन जनता का आंदोलन बन कर रहेगा और इसमें जो चाहे शामिल हो सकेगा।

यदि मेरे इस पत्र ने आप के मर्म स्‍थल को न छुआ तो मेरी महत्‍वकांक्षा यह है कि अँग्रेज लोगों को अहिंसा से बदल दूँ और उन्‍हें दिखाऊँ कि वे भारत के प्रति कितना बड़ा अन्‍याय कर रहे हैं।

यदि आप ने मेरे पत्र के उत्तर में इस महीने की 19 तारीख तक कोई प्रतिक्रिया न दिखाई तो मैं अपने आश्रम में साथियों के साथ आगे बढ़कर नमक कानून का उल्‍लंघन करूँगा। मैं गरीब आदमी के दृष्टिकोण से इस कर को सब से ज्‍यादा अन्‍यायपूर्ण समझता हूँ। स्‍वतंत्रता आंदोलन इस देश के सबसे गरीब आदमी के लिए है सो मैं उस का आरंभ इस बुराई से ही करूँगा। आश्‍चर्य यह है कि हमने इस क्रूर एकाधिकार को इतने दिनों तक पनपने दिया। मैं जानता हूँ कि यह आपके हाथ में है कि आप मुझे गिरफ्तार करके इस योजना को पूरी न होने दें। लेकिन मुझे आशा है कि मेरे बाद लाखों लाख लोग अनुशासित तरीके से इस काम को पूरा करने के लिए आगे बढ़ेंगे।

यह पत्र धमकी के रूप में नहीं लिखा गया है बल्कि यह एक सत्‍याग्रही का सामान्‍य और पवित्र कर्तव्‍य है। इसलिए मैं इस को एक युवा अँग्रेज मित्र द्वारा, जो हमारे सत्‍याग्रह और अहिंसा की सत्‍यता में विश्‍वास करता है, भिजवा रहा हूँ।'

सदा आपका सच्‍चा दोस्‍त

एम. के. गांधी

गांधी जी का पत्रवाहक युवा अँग्रेज रेजिनल्‍ड रेनाल्‍डस था जो साबरमती आश्रम में रह रहा था। खादी के कपड़े पहने और अपना सिर हैलमेट से ढके हुए (अँग्रेज होने के कारण उसे सूर्य की गरमी बहुत सताती थी) वह वायसराय के यहाँ पत्र देने गया था।

वायसराय मेरठ से दिल्‍ली आया था। उसने पत्र का कोई जवाव नहीं दिया। इसके बदले उसके सचिव ने लिखा, 'महामना... को यह जानकर खेद हुआ कि आप ऐसा रास्‍ता अपना रहे हैं जिस से स्‍पष्‍ट तौर पर कानून का उल्‍लंघन और जनशांति को खतरा होगा।

जवाब से महात्‍मा जी उदास हो गए। महात्‍मा ने लिखा मैंने घुटने टेक कर रोटी माँगी, मगर मुझे पत्‍थर मिला। अँग्रेज जाति केवल ताकत से ही डरती है और उसके उत्तर में प्रतिक्रिया करना जानती है। इसलिए वायसराय का पत्र पाकर मुझे विशेष आश्‍चर्य नहीं हुआ। इस राष्‍ट्र की जनता केवल कारागार की शांति जानती है। मैं इस कानून का विरोध करता हूँ। मैं इसे अपना पवित्र कर्तव्‍य मानता हूँ कि इस अनिवार्य शांति को जो हमारी कौम का गला घोंट रही है, को तोड़ना ही ठीक है।

लार्ड डर्विन ने गांधी जी से मिलने से इनकार कर दिया। वायसराय ने गांधी जी की गिरफ्तारी का आदेश भी नहीं दिया। इस पर बापू की टिप्‍पणी थी, सरकार परेशान और उलझन में है।

सरलता, सादगी, विनम्रता, ईमानदारी और जनसेवा के प्रतीक थे, महात्‍मा गांधी। दांडी मार्च, नमक सत्‍याग्रह, धरना, सविनय अवज्ञा आंदोलन का नूतन प्रयोग गांधी जी ने किया था।

गांधी जी का भारत भूमि पर पहला अहिंसात्‍मक प्रयोग खिलाफत असहयोग कहा जा सकता है। लेकिन गोरखपुर के चौरीचौरा में हिंसा होने पर गांधी जी ने आंदोलन स्‍थगित कर दिया था। तब भी 1922 की 6 फरवरी तक 38 हजार राजबंदी जेल में थे जिनमें आठ हजार मुसलमान भी जेलबंदी बनाए गए थे। दांडी मार्च में गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद न्‍यायमूर्ति अब्‍बास तैयब जी और इसके बाद राष्‍ट्रीय आंदोलन की महानायिका सरोजनी नायडू को भी विदेशी सत्ता ने गिरफ्तार कर जेल भेजा था।

सारे देश में नमक सत्‍याग्रह ने राष्‍ट्रव्‍यापी आकार ग्रहण कर लिया था। कांग्रेस के शीर्षस्थ नेता जेल में थे। गांधी जी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, मोतीलाल नेहरू और अन्‍य बीस से अधिक कार्य समिति के सदस्‍यों को 26 जनवरी 1931 को द्वितीय स्‍वतंत्रता दिवस पर जेल से छोड़ दिया गया। गांधी जी ने तत्‍काल वायसराय को पत्र लिखा और भेंट करने के लिए समय माँगा।

लार्ड डर्विन और गांधी जी की मुलाकात 17 फरवरी 1931 को हुई। वार्ता सौहार्द और सद्भाव के वातावरण में हुई। गांधीजी का सत्‍याग्रह का अस्‍त्र कितना प्रभावी रहा है जिसमें प्रतिपक्षी से नफरत नहीं की जाती और न ही उसे कोई हानि पहुँचाई जाती है। वह तो केवल अपने विरोधी का हृदय प्रेम और अहिंसा से जीतना चाहते थे।

गांधी जी 29 अगस्‍त 1931 को एस.एस. राजपूताना नामक जहाज द्वारा लंदन के लिए रवाना हुए तब उनके साथ थे पंडित मदनमोहन मालवीय, सरोजनी नायडू, छोटा बेटा देवदास, गांधी जी की अँग्रेज शिष्‍या मैडलिन स्‍लेड। (जिन्‍हें आश्रमवासी मीरा बेन के नाम से जानते थे।)

सविनय अवज्ञा आंदोलन के दो ध्‍येय थे। नमक कर रद्द करवाना और अँग्रेजी दासता को तोड़ना जिसका प्रतीक नमक था।

नमक सत्‍याग्रह के 17 साल बाद भारत स्‍वतंत्र हुआ। स्‍वतंत्रता अपने साथ विभाजन की विपदा भी साथ लाई थी। अँग्रेज की साजिश, जिन्‍ना की जिद और हिंदू मुस्लिम सांप्रदायिकता ने स्थिति को भयावह बना दिया था। डेढ़ करोड़ लोगों की अदला-बदली, 6 लाख से अधिक निर्दोष औरत-मर्द और बालकों की हत्‍या और एक लाख से अधिक ललनाओं का अपहरण उस दर्दनाक इतिहास की खौफनाक सच्‍चाइयाँ रही हैं, स्‍वतंत्र भारत की लोकप्रिय सरकार ने शरणार्थियों के पुनर्वास की व्‍यवस्‍था कर गांधी के अरमानों पर खरा उतरने का प्रयास किया था।

महात्‍मा जी का चरम लक्ष्‍य स्‍वराज्‍य था। स्‍वराज्‍य हासिल हुआ लेकिन गांधी जी सत्ता से दूर थे। गांधी का लक्ष्‍य सत्ता नहीं थी। शास्‍त्र वचन है :

न त्‍वहं कामये राज्‍यम् न स्‍वर्ग च पुनभर्वम।
कामये दुःख तप्‍तानाम प्राणिनाम आति नाशनम्॥

(न तो मेरी राज्‍य करने की इच्‍छा है, न स्‍वर्ग जाने की और न पुर्नजन्‍म की। मैं तो केवल दुख तथा दर्द से पीड़ित प्राणियों के कष्‍ट को कम (नष्‍ट) करना चाहता हूँ।)

शायद यही गांधी की गति थी। गति ही जीवन है। सक्रियता जीवतंता का लक्षण है। प्रकृति की प्रत्‍येक छोटी-बड़ी वस्‍तु हमको यही संदेश देती है।

गोखले, महात्‍मा जी के पथ प्रदर्शक थे। दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी के सत्‍याग्रह के अनूठे प्रयोग को गोखले ने देखा था। गोखले ने वापसी के बाद मुंबई में एक सार्वजनिक भाषण में कहा था, केवल वे ही लोग जो आज के श्री गांधी जी के निजी संपर्क में आए है, उस मनुष्‍य के अद्भुत व्‍यक्तित्‍व को समझ सकते हैं। निःसंदेह वे ऐसी मिट्टी से बने हैं जिन से नायक और शहीद बने होते हैं। इतनी ही नहीं उनके अंदर अपने आस-पास के साधारण व्‍यक्तियों को भी नायकों और शहीदों में रूपांतरित करने की प्रशंसनीय आध्‍यात्मिक शक्ति मौजूद है।

पंडित नेहरू के शब्‍दों में, निर्भीकता - हाँ मैं कहूँगा कि निर्भीकता ही उनकी सब से बड़ी विशेषता थी और यह तथ्‍य है कि हड्डियों का यह कमजोर छोटा सा ढाँचा शारीरिक, मानसिक हर प्रकार से इस कदर निर्भीक था - यह ऐसी बेपनाह शक्ति थी जो दूसरों को भी व्‍यापी औ उनके भय में कमी का कारण बनी।


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