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कविता

शहर
अरुण कमल


कोई शहर जब सिर्फ किसी एक का होता है
तब वास्‍तव में वह शहर नहीं होता

यह शहर मुझे फख्र है अब मेरा भी है
उतरते हवाई जहाज से जब देखता हूँ
बत्तियों से खचाखच भरा शहर
तब लगता है कोई बत्ती मेरे घर की भी होगी कहीं
टिमटिमाती

और मुझे फख्र है कि यह शहर सिर्फ मेरा नहीं है
फख्र है कि यहाँ किसी का हुक्‍म नहीं चलता
और अगर कोई हुक्‍म दे भी तो कोई मानेगा नहीं
न फुटपाथों के बाशिंदे न खोंमचे वाले
न सुबह सुबह खून बेचने वाले न गंगास्‍नान
को जाती स्त्रियाँ न रात भर गप्‍प करते अभी अभी
जवान हुए लड़के
और अगर शहर का मेयर खसखसी दाढ़ी लिए
सड़क पर उतर भी जाए तो कोई उसे पहचानेगा नहीं

मेरा शहर मेरा इंतजार कर रहा है
खुल रहा है हर दरवाजा किसी न किसी के लिए -
शह!

 


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