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कविता

आशा
अरुण कमल


सोचा था बसूँगा यहीं स्‍वर्णरेखा के तट पर
घाटशिला की दीप्‍त शिला से सट कर
और मुरम के लोहित पथ पर
आदि जनों परिजन के साथ शाल वनों में
घिरेंगे घन गंभीर

               सब खतम हो गया
जिसे मैं समझता था अजर अमर
नदी पहाड़ और वन और जन
सब खतम हो गए

अचानक एक तड़ित की लपक
और खड़ा खड़ा मेरा भाई राख बन जाता है
पूरी बस्‍ती जल रही तिल तिल
और तिजोरियों में सोने के गुल्‍ले

यह कैसी प्रगति है कैसा विकास
जो माँगता है अपने खप्‍पर में मेरा लहू
और माँगती है नींव मेरी देह का भस्‍म

बज रहे ढोल बजते नगाड़े बज रहा है दूर ताशा
बहो बहो स्‍वर्णरेखा तोड़ दो तटबंध
उड़ो हवा में उड़ो मेरे पर्वत
उठो उठो मेरे जन
बचाओ बचाओ इस पृथ्‍वी इस सृष्टि को आशा

वहाँ इस रास्‍ते के अंत में फूल रहा कुसुम...

 


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