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कविता

खुदरा
अरुण कमल


मेरी खरीददारी तो ऐसे ही चलेगी भाई मोरे
सुबह उठूँगा और पुराने पैंट को काट कर सिला झोला हाथ में लिए
बाहर निकलूँगा और गली के मोड़ पर जा खरीदूँगा
एक गोल हरी-सफेद प्‍यारी सी लौकी जो एक औरत
अपने घर की छानी से उतार कर लाई है सुबह सुबह
                       (डंटी से चूता है रस) -
और पंसारी की दूकान से पाव भर तेल शीशी में और नमक
एक पुड़िया चाय और चीनी और उस लड़के से नींबू (जो
हर शनिवार को नींबू मिर्च का टोटका बेचता है) लिए
किराए की कोठरी में इंतजार करती अधेड़ पर सुंदर पत्‍नी को दे
बगल के घर से आज का अखबार जरा माँग वापिस तख्‍त पर
बैठ इंतजार करूँगा दूधवाले का

शाम भी मेरी इतनी ही रंगीन होती है जब सैर को निकलता हूँ
नाले पर
        बन ठन के
और चौराहे पर जाकर भूँजा खरीदता हूँ
और जेब में भरे टहलता रहता हूँ (वैसा चटकदार नमक
राजस्‍थान में भी नहीं बनता) और लौटती में एक खास दूकान से
थोड़ा मदनानंद मोदक खरीद (नगद, क्‍योंकि यहाँ नगद
का दस्‍तूर है) अपने पड़ोस वाले साव जी से (जहाँ उधारी चलता है)
चावल दाल उठाते वापिस घर आता हूँ जहाँ पत्‍नी
लाल मिर्च के अँचार का मसाला लगभग बना चुकी है
और पूरा घर उसकी झाँस से जगजगा रहा है -
(दुनिया में इससे ज्‍यादा मादक गंध कोई है क्‍या) जो न
लेते बने न छोड़ते (जो नाक फेफड़ा पेट पूरी देह से ली जाती है)

बात ये है कि मैं खुद एक खुदरा आदमी हूँ
(मोटे लोग थोक होते हैं दुबले खुदरा) खुदरा जो भिखमंगों के
कटोरे में होता है, गरीबों की गाँठ में, बनिए की चट में
वही खुदरा चिल्‍लर टूटा
एक खुदरा आदमी जो कविता भी खुदरा ही लिखता है
और उम्‍मीद करता है विदेशी निवेश की

 


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