hindisamay head


अ+ अ-

कविता

मत पूछना

रघुवीर सहाय


मैं जब लौटा तो देखा
पोटली में बँधे हुए बूँटों ने
              फेंके हैं अंकुर।

दो दिनों के बाद आज लौटा हूँ वापस
अजीब गंध है घर में
किताबों कपड़ों और निर्जन हवा की
              फेंटी हुई गंध

पड़ी है चारों ओर धूल की एक पर्त
और जकड़ा है जग में बासी जल

जीवन की कितनी यात्राएँ करता रहा यह निर्जन मकान
             मेरे साथ
तट की तरह स्थिर, पर गतियों से भरा
सहता जल का समस्त कोलाहल -
सूख गए हैं नीम के दातौन
और पोटली में बँधे हुए बूँटों ने फेंके हैं अंकुर
निर्जन घर में जीवन की जड़ों को
             पोसते रहे हैं ये अंकुर

खोलता हूँ खिड़की
और चारों ओर से दौड़ती है हवा
मानो इसी इंतजार में खड़ी थी पल्लों से सट के
पूरे घर को जल भरी तसली-सा हिलाती
मुझसे बाहर मुझसे अनजान

जारी है जीवन की यात्रा अनवरत
बदल रहा है संसार
आज मैं लौटा हूँ अपने घर
दो दिनों के बाद आज घूमती पृथ्वी के अक्ष पर
फैला है सामने निर्जन प्रांत का उर्वर-प्रदेश
सामने है पोखर अपनी छाती पर
जलकुंभियों का घना संसार भरे।

 


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में रघुवीर सहाय की रचनाएँ