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कविता

फिर भी
अरुण कमल


मैंने देखा साथियों को
हत्यारों की जै मनाते

मेरा घर नीलाम हुआ
और डाक बोलने आए अपने ही दोस्त

पहले जितना खुश तो नहीं हूँ मैं
न हथेलियों में गर्मजोशी
न ही आदमी में पहले सा भरोसा
उतनी उम्मीद भी नहीं है अब
हरापन भी पक कर स्याह पड़ गया है

फिर भी मैं जानता हूँ कि अभी-अभी
मारकोस मनीला से भागा
जहाँ तोप के मुँह में मुँह लगाए खड़ा
पंद्रह साल का एक लड़का
           व्हिसिल बजाता
जानता तो हूँ कि बेबी डॉक
जल्दी-जल्दी जाँघिया पहनता
           हवाई पट्टी पर दौड़ा
हाइती से बाहर
और जिन औरतों ने चौखट के पार कभी
           पाँव नहीं डाला
उन्होंने घेर ली देश की संसद अचानक
इसलिए उम्मीद है कि मेरा घर
           मुझे मिलेगा वापस
उम्मीद है कि जनरल डायर जिंदा नहीं बचेगा
अभी भी जलियाँवाला बाग में
अपने पति की लाश अगोरती बैठी है वो औरत
कि लोग सुबह तक आएँगे जरूर

नए दोस्त बनेंगे
नई भित्ती उठेगी
जो आज अलग है
कल एक होंगे

पत्थर की नाभि में अभी भी कहीं
           जिंदा है हरा रंग -
मुझे उम्मीद है फिर भी...

 


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