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कविता

सुख

अरुण कमल


वास्‍तुशांति नहीं है देवि

यहाँ जो भी रहेगा दुख भोगेगा
सुख होगा तो शांति नहीं
शांति तो सुख नहीं
कोई कार्य निर्विघ्‍न नहीं

इसमें भाग्‍य का दोष नहीं
न कोई दैवी विधान है
आधारभूमि का कोप है देवि
सब कुछ है फिर भी कुछ नहीं

जहाँ तुम्‍हारा शयनकक्ष है वहीं
ठीक उसके नीचे याद करो
कोई वृक्ष था जामुन का
नींव पड़ने के पहले
छोटी गुठली वाले काले जामुनों का वृक्ष
वही वृक्ष तुम्‍हें हिला रहा है
एक पक्षी अभी भी ढूँढ़ता है वही अपना नीड़
वे चींटियाँ खोजती हैं अपना वाल्‍मीक
इस ब्रह्मांड में सबका अधिकार है देवि

और उधर जो दीवार है बाईं ओर
उसके नीचे कुआँ था पति से पूछना
खूब बड़ा पुराना कुआँ जिसका जल
हल्‍का और मीठा था
एक उद्गार था पृथ्‍वी का तुमने उसे भी
घोंट दिया
और जहाँ मुख्‍य द्वार है वहाँ से
तिर्यक वाम दिशा में खोदो तो मिलेगा
कंकाल
एक यात्री कभी टिका था यहाँ एक रात

उसके पास कुछ द्रव्‍य था
यह द्रव्‍य ही काल हुआ
और वहीं गाड़ी गई लाश
इस वृद्ध तांत्रिक से अब और कुछ
न पूछो देवि
कोई मंत्र कोई उपचार नहीं जानता
मुझे कुछ भी सिद्ध नहीं -
लगता है बरसेंगे देव
रात यहीं रुक जाऊँ देवि?

 


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