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कविता

तमगा
अरुण कमल


वे हद से हद मुझे मार देंगे
इससे अधिक कोई किसी का कुछ कर भी नहीं सकता
वे एक भिखमंगे को उसके पुरखों के पाप की सजा देंगे
एक लोथ को फाँसी

उन्‍हें डालने दो सूखी नदी पर जाल
बादलों को किसका डर है
मुझे किसी का डर नहीं
जो कुछ खोना था खो चुका
जो कुछ पाना है वह कोई देगा नहीं

बहुत दुनिया मैंने देख ली
मोक्ष की फिर भी चाह नहीं
चौरासी लाख योनियों में भटकता फिरूँगा
ऐसे ही भोग और राग में लिप्‍त
अन्‍न और औरत के मोह में पागल

वे काँसा भी नहीं पाएँगे सोना तो दूर
मैं हीरे का तमगा छाती में खोभ
खून टपकाता फिरूँगा महँगे कालीनों पर -
निशाने को बेधने के बाद यह गोली
राँगे का टुकड़ा ही तो है।

 


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