(मैं देख रहा हूँ कि तुम मुस्कराते हुए मेरी तरफ आ रही हो। मैं सोच रहा हूँ कि मैं जो तुमसे कहूँगा, क्या उसे मुस्कराते हुए ही कहना ठीक रहेगा ?)
तुमने आईने में अपनी आँखें देखी तो तुम्हें चाहने वाले लोग नजर आए। जब चेहरा देखा तो खोने वाले लोग नजर आए। अपने उभारों को देखा तो मरने वाले लोग नजर आए। तुमने नीचे देखा और देखती गई। तुम्हें पाने, और पाने वाले लोग नजर आते गए।
तुम्हारा आईना तुम्हारे तलवे की तस्वीर नहीं दिखाता। तुमने कभी अपने तलवों को आईने में नहीं देखा। जबकि तुम्हारे तलवों में सबसे ज्यादा उत्तेजना है, एक अबूझ सी सिहरन है, सोरहों घड़ी की कँपकँपी है, जिसमें ना कोई ठंढ है ना कोई डर। लाखों अँगड़ाइयाँ हैं, करोड़ो उच्छवास हैं, सातों समुद्र का रोमांस है, हिमालय की ऊँचाई है और कुछ मेरे तलवों की छाप है और मेरे आईने में तुम्हारे तलवे हैं। मैं तुम्हारे तलवों से सबसे ज्यादा परिचित हूँ।
तुम को प्यार करने को, सोचने के बारे में सोचने से मुझे ताकत मिल रही थी। तुम शक्ति थी आदि शक्ति और रहोगी भी अनादि तक। लेकिन तुम्हारा समय तुम्हारे बारे में एक लड़की के अलावा जो जानना चाहता था वह बस इतना भर था कि तुम अपनी प्रतिभा, अपनी मेहनत, अपनी संवेदना, अपनी समझ से जो संसार रच रही हो वो खास है। तुम एक आम लड़की से खास हो गई हो। लेकिन मैं तुमसे कहना चाह रहा था कि तुम दुनिया को खास बना रही हो और मुझको तो तुमने कब का खास बना दिया है।
(मैं बैठा हूँ एक खुले रेस्तराँ के लॉन में। बगल में समुद्र हाहाकार रहा है। तीन कुर्सियाँ खाली हैं। तुम आओगी एक कुर्सी पर बैठ जाओगी। फिर भी दो कुर्सी खाली रहेंगी। तुम आ रही हो मेरी तरफ। तुम्हारे ऊपर पास के पेड़ से कुछ रंगीन पत्तियाँ गिरती हैं। तुम्हारा मुस्कराना कम हो रहा है। धीरे-धीरे एकदम कम हो जाता है।)
मैं तुम्हें याद नहीं करना चाहता और यह मैं खुद से कभी कह नहीं पाता। मैं कहने की कोशिश भी करता हूँ तो हमारे शहर चाहे वो पटना हो या बनारस, लखनऊ, इलाहाबाद, कोलकता, दिल्ली, मुगलसराय, जमेशदपुर या फिर मुंबई। वे अपनी अपनी छाप लिए जिसमें मेरे तलवों पर तुम्हारे छाप है, मुझे लड़खड़ा देते हैं। तुम्हारे तलवे हमें सँभलने नहीं देते। मैं खुद को जिबह करना चाहता हूँ तुम्हारे तलवे जिरह कर के मुझे बचा लेते हैं।
तुम्हारे तलवे जो कभी धरती से रगड़ खाए होंगे। खाए ही थे। कभी तुम पटना स्टेशन के हनुमान मंदिर में नंगे पाँव गई होगी। जाती ही थी। अभी भी कभी कभी जाती होगी। कभी माँ-पापा के कहने पर। कभी सहेलियों के कहने पर। मैं भी जब तब जाता रहता हूँ अपने डर के कहने पर। कभी संगमरमर के पत्थरों ने हमारे तलवों की छाप ले ली होगी। कभी तुम तारामंडल की सीढ़ियों पर शो के इंतजार में अपनी सैंडिल उतार कर नंगे पाँव बैठी होगी। ठीक उसके पहले मैं वहाँ से ऊब कर पान खाने या चाय पीने निकला होऊँ। तब भी हमारे तलवों के छाप मिले थे। तब भी मिले थे जब तुम गोलघर पर चढ़ कर पटना देखना चाहती थी और बीच में तुम्हारे सैंडिल का कोई सिरा निकल गया था। तुम अपने हाथ में सैंडिल लिए चढ़ रही थी। तब मैंने अपना सस्ते चमड़े का चप्पल - जो नया था और मुझे काट रहा था - अपने हाथ में ले लिया था। फिर हमारे तलवों की छाप मिली।
और पटना के गौरव अशोका में। तुम आदतन फिल्म के बीच में अपनी सीट पर पालथी मार के बैठ जाती हो। उस दिन तुम्हें सीट पर पालथी मार कर बैठने की जगह अपने पैरों को आगे वाले सीट पर रखने में मजा आ रहा था। तुम मुझ से अनजान रहना चाहती थी इसलिए इस बात से अनजान रह गई कि उस सीट ने तुम्हारे तलवों की छाप ले ली है। और अगले शो में मैं आता हूँ तो मुझे भी वही सीट मिलती है और आदतन मैं आगे की सीट पर पैर रखता हूँ। फिर हमारे तलवे मिलते हैं।
(मैं बैठा हूँ और तुम आ रही हो। तुम एक कुर्सी पर बैठोगी तो भी दो खाली रहेगी। दो खाली ही रहेगी। उस पर कही बैठी / बैठा ना तो मेरी प्रेमिका होगी ना तुम्हारा प्रेमी बस हम दोनों का खालीपन रहेगा। हो सकता है तुम्हारे साथ कोई खालीपन ना हो फिर तो दोनों पर हमारे तुम्हारे अक्स ही बैठेंगे। तुम समुद्र की तरफ देखती हो। वह शांत हो जाता है। तुम मेरी तरफ आ रही हो। तुम्हारी नजर अभी मुझसे मिली नहीं है। लेकिन तुम मेरे लिए आ रही हो। मैं ऐसा मानने लगा हूँ। तुमने मेरे अंदर मानने की अकूत चाहत ऐसी भर दी है कि मैं हर चीज को मानने लगा हूँ।)
डाकबंगला चौराहे की तो कम से कम दो छाप याद हैं। एक; दशहरे की नवमी वाली शाम थी जो रात की तरफ चढ़ रही थी। दशहरे के पंडाल और मूर्ति देखने के दौरान तुम आगे थी और मैं पीछे। मेरे पीछे एक भीड़ थी और उसका धक्का। पहले तुम्हारी सैंडिल निकल गई और तुम लड़खड़ा गई। उस दिन मैंने भी सैंडिल ही पहनी थी। और इस बार मेरी सैंडिल तुम्हारे लड़खड़ाने की वजह से निकल गई। उस दिन तुमने मुझे दुनिया के सबसे बदतमीज लड़के के रूप में देखा था। तुम अब भी याद करोगी कि तुम्हारे जीवन में सबसे बदतमीज लड़का कौन था तो मेरा चेहरा धुँधलाता हुआ नजर आएगा। बहरहाल; मेरे तलवों में तुम्हारी तलवों की छाप रेंग रही थी, या यूँ कहो कि मेरे तलवों को सहला रही थी, सो मैंने तुम्हें दुनिया की सबसे न्यारी लड़की के रूप में देखा। आज भी मैं जब याद करता हूँ तो तुम्हारा चेहरा दुनिया की सबसे न्यारी लड़की के रूप में चमकता है।
हाँ डाकबंगले की दूसरी छाप। मैं श्रीलेदर में चप्पलें नाप रहा था। कभी कभी सुंदरता इतना भाती है मुझे कि मैं भूल जाता हूँ कि मैं कहाँ पैर रख रहा हूँ। मेरे लिए सुंदरता के सारे तार तुमसे ही जुड़े हैं शायद तभी मैं भूल गया था कि जो चप्पल मैं पहन रहा हूँ असल में वह लेडिस चप्पल है जो गलती से मेल सेक्सन में आ गया था। मैंने चप्पल फाइनल कर लिया था कि सेल्समैन ने पूछा कि आपकी और आपकी बीवी की साइज एक ही है। मैं सेल्समैन की व्यंजना को तुरंत समझ न सका। मैं किसी भी व्यंजना को तुरंत नहीं समझ सकता। इसलिए सेल्समैन की बातों से मुझे दो शर्म आ रही थी और दो खुशी मिल रही थी। पहले दो शर्म वाली बात। एक तुम जानती हो। और दूसरी थी कि उस समय मेरी दाढ़ी भी ठीक से नहीं आई थी। ऐसे में शादी की बात शर्म लगी। सबसे दिक्कत की बात कि मुझे शर्म जब भी आती डूब के मरने की तरह आती। बहरहाल खुशी की बात। मैंने बीवी के रूप में तुम्हें देखते हुए तुम्हारे पैरों के नाप जाने थे। और खुशी की बात यह कि सेल्समैन ने मुझसे अदब रखा था। नहीं तो वह कह सकता था कि आपकी और आपकी बहन के चप्पलों की साइज एक ही है। यह इत्तेफाक ही था कि तुम्हारी तरह ही मुझ से चार साल बड़ी बहन की चप्पलें भी मेरे साइज की ही होती थी। खैर!
मैंने सेल्समैन से बिना कुछ कहे चुपचाप चप्पलें उतार दी थी। फिर तुम आई। तुम्हारे अंदर एक मेल सेक्सन है और इसी को दबा कर रखना तुम्हारा होना है। इसीलिए तुम मुझसे आज तक तटस्थ रहती आई हो लेकिन वो एक जोड़ी चप्पल तुम्हारे पैरों में आई ही नहीं, तुम्हें पसंद भी आई। तुम बहुत दिनों तक मेरे तलवों की छाप वाली चप्पल पहनती रही।
फिर कहाँ कहाँ नहीं मिलती रही हमारे तलवों की छाप। पटना जंक्शन पर श्रमजीवी एक्सप्रेस पकड़ने के दौरान कई बार मिले। कई बार तुम्हें दिल्ली जाना पड़ा। बार बार बनारस। कुछेक बार लखनऊ। हर बार मेरी औकात आरा जाने तक ही रही फिर भी कुछेक बार हमारे तलवे हमसाया हुए। यह मेरा दुर्भाग्य रहा कि साउथ एकस्प्रेस से जो तुम बार बार साउथ बिहार में जाती रही। कुछेक बार मैं भी साउथ बिहार एक्सप्रेस से साउथ बिहार गया फिर भी हमारे तलवे नहीं मिले। क्योंकि तुम रिजर्व बोगी में जाती रही और तुम्हारे बार बार जाने की खबरें मुझे बाद बाद में मिलती रही इसलिए अपने हिस्से जनरल ही नसीब होता रहा। बस इसी वजह से जनरल डब्बों की यात्रा मुझे अच्छी नहीं लगती। और इसीलिए मैं तुम्हारे पीछे हाथ धो कर नहीं पड़ता। हलाँकि बस मैं तुमसे इतना ही कहता कि तुम आवारा लड़कों की तरह नंगे पैर जनरल डब्बे के इस गेट से चढ़कर उस गेट से उतर जाओ। ताकि हमारे पास तुम्हारे तलवों की छाप वाली छापें कुछ और बढ़ जाएँ।
उसके बाद एन एन सिंह इंस्टिच्यूट के सभागार में। पंत भवन में। कालीदास रंगालय में। गांधी सेतु पर। गांधी मैदान के पुस्तक मेले में। अशोक राज पथ पर। पी एम सी एच में। गोलगप्पे खाने के दौरान। हमारे तलवे मिलते रहे।
(मैं बैठा हूँ। समुद्र का पानी मेरे इंतजार के रंग का होता जा रहा है। तुम सच में मेरी तरफ आ रही हो और उसका रंग समुद्र के पानी के रंग में मिल रहा है। शायद तुमने मुझे देख लिया है। शायद तुम तब से ही देख रही हो। आओ तो आज, मैं तुम्हें सजा दूँगा। तुम्हें कुर्सी पर बैठाऊँगा और खुद खड़े होकर कॉफी पियूँगा। मेरा यह व्यवहार तुम्हें असहज करेगा। मैं चाहूँगा कि तुम इस असहजता से तंग हो जाओ और घबरा कर जाने के लिए उठ जाओ। फिर मैं तुम्हें रोकने की बेचैनी से अपना हाथ तुम्हारी तरफ बढ़ा लूँगा। बढ़ा क्या लूँगा, मैं तुम्हारी हाथ को पकड़ लूँगा। दाहिना या बायाँ जो हाथ में आएगा, पकड़ लूँगा। तुम मुझे झटकना जानती हो और यह बात अपने बारे में जानी गई तमाम बातों में सबसे ज्यादा अच्छे से जानती हो। इसलिए हाथ पकड़ने से तुम्हारे अंदर डर की बात तो दूर कोई घबराहट भी नहीं होगी। लेकिन मैं जानता हूँ कि मेरे द्वारा बेहद नाजुक तरीके से पकड़े गए हाथ में भी एक चुंबकीय शक्ति है, जो आसानी से नहीं छूटने वाले। मैं तुम्हारे झटकने को तुम्हारी खुशी के लिए सम्मान करता हूँ लेकिन चुंबकीय शक्ति पर मेरा बस नहीं रहता। इसलिए हाथ झटकने और मेरे द्वारा छोड़ने पर भी तुम लड़खड़ा जाती हो। तुम्हारे पैर तुम्हारी चप्पल से बाहर आ जाते है। तुम चली जाती हो। मैं तुम्हें जाते हुए देखता रह जाता हूँ। और यह सारा कुछ हाहाकार करता समुद्र देखता है। मैं समुद्र से कहता हूँ कि तुम क्या मेरे उपर हँस रहे हो? समुद्र शांत हो कर पीछे हटने लगता है। तुम ओझल हो जाती हो। उन चार कुर्सियों के बीच तुम्हारे तलवों के छाप पड़े हैं। मैं उन छापों पर अपने तलवों को रखता हूँ। और मेरे चेहरे पर खुशी की रेखाएँ उभरने लगती हैं। लेकिन अभी तो तुम आ रही हो। मेरे पास। और मैं उन खाली पड़ी तीन कुर्सियों के बारे में सोच रहा हूँ कि किस पर तुमको बैठने के लिए कहूँ कि तुम मुझसे इतनी करीब भी न रहो कि तुम असहज हो जाऊँ और इतनी दूर भी न कि इस मिलन का आगे चल कर कोई नाता भी न बन सके। बहरहाल तुम आ रही हो मेरी तरफ और दूर हुआ समुद्र भी खुशी से उछलते हुए करीब आने लगा है।)
गांधी मैदान के बाहर पुरानी किताबों के फुटपाथ की दुकानों पर जब हमारे तलवों के छाप मिले मुझे तो हँसी आ गई थी। हुआ यह कि जिन राइटरों की किताबें तुमने पूरी कीमत चुका कर खरीदी थी वे सारे राइटर एच एल आहूजा, एम एल झिंगन, एम एल सेठ, रुद्र दत्त सुंदरम, एस पी सिंह - सभी आधी कीमत से कम में भी बिक रहे थे। तुम हड़बड़ा के उन किताबों को देखना चाहती थी कि आखिर मैं कितनी ठगी गई हूँ तभी तुम्हारे पैरों से चप्पल निकल गए थे। उस दिन मैंने हँसते हुए तुम्हारे तलवों से अपनी तलवों की छाप मिलाई थी वरना इसके पहले और बाद में भी जब कभी हमारे तलवे मिले मैं किसी गंध के आगोश में ही डूबा रहा।
(तुम आ रही हो मेरी तरफ। तुम्हारे सामने से दो जोड़े गुजरते हैं। तुम उन को अपनी नजरों को उठाकर और उसे तिरछी करते हुए देखती हो। मैं तुम्हारी नजरों को उठते हुए और तिरछी होते हुए देखता हूँ। तुम्हारे होंठ पर गुलाबी ओस की दो बूँदे गिरती हैं।)
राजकमल और वाणी की दुकानों पर जब तुम किताब खोजने के चक्कर में चेखव की किताब पढ़ने लगी थी। फिर तुम्हारे तलवों में पसीने चुहचुहाने लगे थे। चेखव के पढ़ने के चक्कर में इतनी तल्लीन हो गई कि पसीने की वजह से कब तुम चप्पल उतार दी तुम्हें पता ही नहीं चला। तुम नंगे पैर अपने चप्पल से थोड़ी दूर हो गई थी। और जब तुम वहाँ से हटी मैं वहाँ गया। चूँकि इस बार तुम्हारे तलवे पसीने की वजह से गीले थे और मेरे तलवे तुम्हारी वजह से गीले हो जाया करते थे इसलिए इस बार हमारे तलवों की छाप मिली ही नहीं, एक मासूम रति हुई उनमें जैसे दूब और शीत के साथ हुआ करती है।
तुम्हारा आईना तुम्हारे तलवे की तस्वीर नहीं दिखाता। लेकिन जब जब मैं पटना, बनारस, कोलकता, इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली जाता हूँ लड़खड़ा जाता हूँ और वहाँ से लौटने के बाद मुंबई में भी लड़खड़ाता रहता हूँ। मैं खुद को जिबह करना चाहता हूँ तुम्हारे तलवे जिरह कर के मुझे बचा लेते हैं और कहते है कि तुम्हारी लड़खड़ाहट में ही तुम्हारे चलने का राज छुपा है।
(मैं रेस्तराँ में बैठा तुम्हें देख रहा हूँ। तुम आ रही हो। आते हुए तुम अपने होंठों पर ठहरी गुलाबी ओस की दोनों बूँदों को सहेजना चाह रही हो। उन्हें सहेजने के लिए तुम सोच रही हो कि इसे मैं अपने प्रेमी के लिए कैसे छुपा कर रखूँ। ओस की उन गुलाबी बूँदों को सरेआम सहेजना तुम्हें या किसी के लिए भी कठिन है। तिस पर तुम देख रही हो कि मैं तुम्हें देखते हुए तुम्हारी राह देख रहा हूँ। सो तुम शर्म या संकोच के मारे उसे सहेज नहीं पा रही हो। चूँकि यह तुम अपने प्रेमी के लिए सहेज रही हो और मुझे देख कर संकोच कर रही हो तो मुझे प्यारा सा लगता है। यह संकोच मेरी वजह से बनता है और तुम और तुम्हारे प्रेमी के बीच में मेरे लिए एक छोटी जगह भी बनाता है इसलिए यह स्पेस मेरे लिए एक रहनुमा की तरह है। इस स्पेस को मैं सजदा करता हूँ। और तुम्हारा काम आसान करने के लिए कि तुम मुझे देखो कि मैं तुम्हें नहीं देख रहा हूँ। इसके लिए अपनी जगह पर खड़ा होता हूँ कि तुम मुझे देखो कि मैं समुद्र की तरफ पत्थर मार रहा हूँ और तुम झट से गुलाबी ओस की बूँदों को चुरा लो कहीं। तुम खुश हो जाती हो कि मेरा ध्यान समुद्र की तरफ है और झट से उन बूँदों को अपने बाएँ सीने में डाल देती हो। लेकिन मैं देख रहा हूँ कि समुद्र की एक एक बूँद गुलाबी ओस में बदल गई है और समुद्र तुम्हारी तरफ इशारा करते हुए मुझसे पूछता है कि " बस दो बूँदों के लिए ऐसी चोरी क्यों?" मैं चुप रह जाता हूँ तो वह मुझसे हाथ जोड़ कर इसरार करता है कि " उनसे कह दीजिए कि हमारी एक एक बूँद उनके बाएँ सीने में जाने के लिए बेकरार है। मैं खुश हो जाता हूँ कि आज समुद्र भी मेरे साथ है और तुम मेरी तरफ आ रही हो।)
बनारस से तुम्हें लौट जाना था। मैं भी बनारस से लौटना चाहता था। तुम्हारी तरह मैं भी बनारस को अपना नहीं पा रहा था और न ही कुछ कह रहा था। बनारस से तुम्हारे लौटने के एकाध साल पहले की बात होगी और देव दिवाली की कोई साँझ। अस्सी घाट दीपों से जगमगा रहा था। तुम अस्सी पर थी अपने सहेलियों के साथ। और लड़के लड़कियों के अंगों पर थप्पड़ मार के नंबर लेना चाहते थे। मेरी आँखों के सामने तुम्हारे अंगों पर भी नंबर लिया गया। तुम अचकचा के पीछे घूमी और समझ गई कि लड़कियों के पीछे लड़के होते हैं जो अपने सर पर अपनी घटिहाई का टोप पहने रहते हैं। तुम वहाँ से जल्दी में निकली और तुम्हारे चप्पल वहीं रह गए। अस्सी पर तुम्हारे तलवों की छाप है और यह भी कि उस छाप पर मेरे तलवों की छाया कुछ कुछ चाँद पर कलंक की तरह। मैंने जा कर उस लड़के के पिछवाड़े में उँगली डाल दी और सामने देख कर चिढ़ते हुए और माँ की गाली देते हुए कहा कि यहाँ भीड़ कितनी है! लड़का जो अब तक फूहड़ हँसी हँस रहा था उसे अब ना हँसा जा रहा था ना रोया। वह अजीब मनोदशा में हो गया था। तुम्हारी मनोदशा का मैं प्रतिसंसार रच कर लौटा था सो मेरी मनोदशा फरिश्ते के रंग से रँगी थी। मेरे इस रंग में भी तुम्हारा प्रतिसंसार है और तुम इससे अनजान हो।
ओह! ये थियेटर रोड! मैं इसका नाम बदल कर तुम्हारे नाम पर रखना चाहता हूँ। लोग इसे अब शेक्सपियर सरणी के नाम से जानने लगे हैं। हो सकता है आगे इसे कुछ और नाम से जानेंगे लेकिन मैं इस जगह पर हमेशा तुम्हारे नाम को लेकर पहुँचूँगा। आखिर यहीं तो वो जगह है जहाँ मैंने दुबारा जिंदा होने के बाद तुम्हें पहली बार देखा था। और तुमको देखने में ऐसा डूबा कि मुझे किसी तलवे और अपनी चाल का एकदम से भान ही नहीं हुआ। क्षण भर के लिए गुस्से से लाल होते तुम्हारे चेहरे को मैंने उस मदहोशी में भी महसूस किया था और मेरा संसार तार तार हो गया था। मैं आदमी हूँ और मुझे रोना आता है, इसलिए मैंने कहा कि मैं आदमी हूँ और मुझे रोना नहीं चाहिए। इसलिए मैं लॉर्ड नरसिंहा रोड से निकल कर विक्टोरिया चला गया। आने-जाने में वक्त लगा तो वक्त ने कहा कि अभी इसी वक्त में सबकुछ तय नहीं हो जाता। तुम्हें वक्त का साथ देना चाहिए। वक्त की कोई बात मेरे पल्ले नहीं पड़ रही थी। चूँकि मैं जानता था कि मैंने अपने इस संसार को तुम्हारी अनजानी छुअन से निकले रेशों से निर्मित किया है इसलिए मैं फिर से उसे बनाने में लग गया। चूँकि तुमने मुझे जिंदा किया था और तुम्हारे पैरों ने थियेटर रोड को छू लिया था इसलिए मैं एक लंबे अरसे तक इलाहाबाद, पटना, सूरतगढ़, राँची, जमशेदपुर, गोरखपुर, हाजीपुर, मुज्जफरपुर, मोतीहारी, आरा, औरंगाबाद, देवमूँगा जहाँ चलता थियेटर रोड पर ही चलता।
तुम नहीं, मेरे दोस्त नहीं, कोई नहीं कहता कि मेरे अंदर एक मजे से बैठा हुआ सामंत है जो एक लड़की की तठस्थता को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। आखिर ये कौन कहता है कि मैं साइकिक हूँ, मेरे अंदर कई वहम हैं, कुछ फितूर हैं, ढेरों पागलपन हैं, बेमतलब की जिद है। कहाँ से ये बातें उठती हैं? कहीं सच में मैं साइकिक तो नहीं हूँ जो कटघरे में खड़े होकर अपने खिलाफ खुद गवाही दे रहा है।
कहीं अब मैं खुद की जिबह करने में कामयाब तो नहीं हो रहा हूँ। लेकिन मैं कहाँ जिबह कर पा रहा हूँ। तुम्हारी उपस्थिति, तुम्हारा होना, तुम्हारी यादें, तुम्हारी बातें, तुम्हारी कहानियाँ, तुम्हारे किस्से, तुम्हारे प्रेमी, तुम्हारा रास्ता सब कुछ मुझे रोक क्यों रहे हैं? मुझे हँसा क्यों रहे हैं? क्यों मैं बार बार तुम्हें महसूस भर कर के बचता जा रहा हूँ? क्यों मेरा कद दिन प दिन बढ़ता जा रहा है? क्यों? क्यों? क्यों? और! और! कौन सा डर है जो तुम्हें रोक रहा है? आखिरकर तुम लड़की हो। क्या यह बात तुमने मान लिया है? समय के बलवान होने से तुम भी इत्तेफाक रखने लगी हो? क्या है ये? क्यों है ये?
(तुम आ रही हो मेरी तरफ। लेकिन ये क्या! तुम पीछे कब चली गई? अभी भी उस पेड़ के पास से गुजर रही हो जहाँ तुम्हारे ऊपर कुछ रंगीन पत्तियाँ गिरती हैं और तुम्हारी मुस्कराहट कम हो जाती है। धीरे-धीरे एकदम कम हो जाती है।)
एक सीधी सी बात है कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ और इस बात के लिए इतने ताने बाने क्यों? मैं कहाँ कहता हूँ कि तुम मुझे चाहो। मैं कहाँ कहता हूँ कि तुम मुझे स्वीकार करो। मैंने कब कहा कि तुम्हारे उभार मुझे पसंद है? मैंने कब कहा कि तुम्हारी आँखों में डूब जाना चाहता हूँ? मैं कहा कहता हूँ कि मैं तुम्हारी नाभि, उसके नीचे और नीचे जाना चाहता हूँ? यकीनन मैं ऐसा नहीं चाहता और कभी चाहता भी रहा होऊँगा ऐसा मैं यकीनी तौर पर नहीं कह सकता क्योंकि मेरी स्मृति में ऐसी कोई बात नहीं है। जो बात है वो तुम्हारी चुप्पी और तुम्हारे चुप्पी पर बढ़ते हुए मेरे रुके रुके से कदमों की हैं। तुम्हारी एक बार की चुप्पी ने तुम्हारी मूर्तता को भुला दिया है। अब तुम हर जगह हो गई हो ईश्वर की सर्वोदयी व्याख्या की तरह। मैं तुमसे कुछ नहीं चाहता। मैं बस इतना बता देना चाहता हूँ कि तुम अपने आईने में, अपनी आत्मा में झाँक कर जो कुछ भी देखती हो उसमें तुम्हारे तलवों की तस्वीर नहीं है। और मुझे लगता है कि तुम उसे नहीं देखोगी तो तुम्हारा बहुत कुछ छूट जाएगा। जो लगातार तुम्हारे साथ टूट रहा है। जिसे तुम शहर, दुनिया और जिंदगी की शोर समझ कर अनदेखी कर रही हो वो सब तुम्हारा अपना है। बस मेरे इस लगने का ऐसा अस्वीकार, ऐसा उपहास, ऐसी क्रूरता की एक बार पलट के देखती भी नहीं हो।
बस इस बात के लिए कि एक चप्पल खरीदने के दौरन सेल्समैन कहा कि आपके साइज की आपकी चप्पल आपकी बीवी को भी आती है तो मैंने बीवी के रूप में तुम्हारी कल्पना कर ली थी। कल्पना की मेरी दुनिया बस क्षण भर की कल्पना से घिनौनी हो जाएगी? या इसी से मुझे बीहड़ों में घसीटा जाएगा? या बस इसलिए कि तुम्हारे तलवे मुझे सबसे ज्यादा उत्तेजित करते हैं, तुम्हारे तलवों की सिहरनों की लय सबसे ज्यादा सुनी है मैंने। अपने सुनने को लेकर मेरा इतना अस्वीकार। बस इस वजह से मुझे ऐसे सपने देखने को मिलते है कि गिरगिट के मुँह वाले फुँफकारते साँप को अपने मुँह में दबा कर कच्च से काट देता हूँ। इतने घिनैने और बीभत्स सपने को प्यार में कभी किसी ने देखा होगा? देखा होगा? कोई कुछ क्यों नहीं कहता इस बारे में?
(तुम्हीं आ जाओ बताने के लिए। तुम तो बहुत कुछ कहती रहती हो। तुम आ रही हो ना। आ जाओ। और बताना कि प्यार में ऐसे घिनौने और बीभत्स सपने कोई क्यों देखता है? बताओगी न? मैं तुमसे यह पूछ कर ही रहूँगा। वैसे तुम न बताने के लिए स्वतंत्र हो। ओह यह स्वतंत्रता !!!)
मैं तो बस इतना कहता हूँ कि मैं तुम्हें बस प्रेम करता हूँ। मैं दुनिया से हार कर अपनी हत्या करना चाहता हूँ लेकिन तुम्हारे तलवे की छाप जो मेरे तलवों से हमसाया हुई है मुझ से जिरह करती है और हर बार मुझे बचा लेती है। मेरा कद बढ़ा देती है। मेरे अंदर की मासूमियत जो उम्र और दुनियादारी की उलझन से जख्मी हो रही है तुम्हारी वजह से बच जाती है।
(तुम आ रही हो मेरी तरफ। तुम फिर से उस जोड़े को पार कर रही हो लेकिन इस बार नजर उठाकर या उसे तिरछा करके नहीं देखती हो। तुम जान जाती हो कि इस जोड़े में से किसी एक का कोई चाहने वाला कहीं दूर बैठा या बैठी है। तुम्हारे कान पर गर्म शीशे की दो बूँद टपकने वाली होती है कि तुम्हारे होंठ पर पड़ी गुलाबी ओस अपनी सफेद रोएँदार पंख फड़फड़ाने लग्ती है। तुम मुस्करा देती हो। मैं तुम्हें अपनी तरफ आते देखता हूँ।)
मैं तो तुम्हें बस अपनी हर एक खुशियों के लिए शुक्रिया करना चाहता हूँ और हर बार तुमसे वेलकम सुनना चाहता हूँ। देखो तो बस एक इस चाह भर से मुझे इतनी खुशी मिल रही है कि लग रहा है कि तुम तोते रंग का सूट पहन कर मुस्कराते हुए मुझे वेलकम कहने आ रही हो। मैंने तुम्हारी ऐसी मुस्कराहट कभी नहीं देखी, कभी तुम्हारा अपनी तरफ इस तरह से आना नहीं देखा। फिर भी चाहने के बाद भी यह कहने के लिए नहीं सोचता हूँ कि तुम अपने तलवों को देखो जो मेरी आँखों के आईने में दिखेंगे, जिसमें हमारे छाप मिले थे। यह जानते हुए कि तुम जब अपने तलवे देखोगी तो यकीनन मुझे प्यार करोगी और टूट कर करोगी फिर भी जताना नहीं चाहता। मैं तो तुम्हें देर से आने के लिए सजा देना चाहता हूँ। तुम्हें असहज करना चाहता हूँ। सच में ऐसा कर पाऊँगा?
लेकिन तुम्हारी मुस्कराहट, इस तरह से तुम्हारा आना मेरी तरफ कुछ जरूर कहलवाएगा। मैं सोच रहा हूँ कि मैं तुमसे क्या कहूँ कि तुम्हारी दुनिया में हवा की दिशा बदलने भर भी खलल ना पड़े। मैं एक कप कॉफी के लिए कहूँगा। नहीं इससे पहले मेरी तरफ मुस्कराते हुए आने के लिए शुक्रिया कहूँगा। मन तो कर रहा है कि कह दूँ कि तुम आदतन फिल्म देखने के दौरान जैसे सीट पर पॉलथी मार के बैठ जाती हो वैसे मेरे सामने कुर्सी पर बैठ जाओ। फिर मैं अपनी पेन ड्राइव उठाने के बहाने से तुम्हें सॉरी, प्लीज कहते हुए उठाऊँ और तुम्हारे तलवों की छाप अपने तलवे पर ले लूँ। बहुत दिन हो गए हमारे तलवों की छाप मिले हुए।