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सिनेमा

ऋत्विक घटक सा दूसरा न कोई

सुरेंद्र तिवारी


कोलकाता के भवानीपुर इलाके में जिस मकान में मैं रहता था, उसके ठीक सामने बाँग्ला-हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध अभिनेता उत्तम कुमार रहते थे, बाँग्ला सिनेमा के लिए तो उनकी जो लोकप्रियता थी, अमिताभ बच्चन से कम नहीं थी। उनका बेटा गौतम मेरा दोस्त था और उससे मिलने, उसके साथ कैरम आदि खेलने के लिए अक्सर मैं उस घर में जाया करता था। उत्तम कुमार की पत्नी गौरी देवी भी बहुत दयालु और मिलनसार तबीयत की थीं। गौतम बड़े बाप का बेटा था इसालिए घर से बाहर निकलकर उसका खेलना-कूदना कम ही होता था गौरी देवी शायद इसी कारण चाहती थीं कि मैं उसके साथ जरूरत से ज्यादा रहूँ। उसके और भी एक-दो बँगाली मित्र थे, जो आते रहते थे। वहीं, उस घर में मैंने एक दिन एक फिल्म देखी, 'मेघे ढाका तारा' (बादलों से ढका तारा) जिसे ऋत्विक घटक ने निर्देशित किया था। उत्तम कुमार अपने 16 एम. एम. के प्रोजेक्टर पर अपने दो-चार साथियों के साथ उस फिल्म को देख रहे थे। घर में उस फिल्म को वे क्यों देख रहे थे, मुझे नहीं पता, किंतु मैं भी वहीं बैठकर फिल्म देखने लग गया था चुपचाप। मैं तब तक बाँग्ला भाषा का अच्छा ज्ञाता हो चुका था और बाँग्ला फिल्में भी लगातार देखता था। उत्तम कुमार तो अपनी फिल्मों के 'पास' ही दे दिया करते थे, हॉल में जाकर मुफ्त में फिल्म देखो। खैर, मुख्य बात यह है कि ऋत्विक घटक की वह पहली फिल्म मैंने देखी थी और फिल्म जब खत्म हुई तो मैं कुछ अभिभूत सा ही था। उनकी चर्चा तो कई बार मैंने सुनी थी, हिंदी फिल्म 'मधुमती' की पटकथा भी उन्होंने लिखी थी, यह भी मुझे पता था, परंतु उनके द्वारा निर्देशित फिल्म पहली बार मैंने देखी थी और मन में यह आकांक्षा प्रबल हो रही थी कि कभी ऋत्विक घटक से मिलूँ।

बाद में गौतम ने ही बताया था, ऋत्विक अंकल की फिल्में पापा को बहुत पसंद हैं। सिनेमाघर में जाकर तो देख नहीं पाते, जब मौका मिलता है, घर में ही देख लेते हैं। गौतम ने ही बताया था कि हमारे घर के पीछे वाली जो सड़क है, वहीं उनका मकान है। बाहर लोहे का बड़ा गेट लगा हुआ है। तब मैं कालेज में दूसरे वर्ष का छात्र था, कुछ कहानियाँ वगैरह अवश्य छप चुकी थीं, किंतु ऋत्विक घटक जैसे आदमी के सामने जाने के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं था।

अब होता यह था कि मुझे कहीं भी आना-जाना होता, मैं उस सड़क से एक बार जरूर निकलता, जिधर उनका घर था। सिर्फ एक ही मकान ऐसा था, जिसके सामने लोहे का बड़ा गेट था और फिर भीतर जाकर मकान। यही उनका घर था, यह तो मैं समझ गया था। वहाँ जाकर, घर के सामने मैं कुछ देर तक खड़ा रहता, परंतु निराशा ही हाथ लगती। किंतु कहते हैं न, सच्ची श्रद्धा हो तो भगवान भी मिल जाते हैं, यह कहावत उस दिन मेरे साथ बिल्कुल चरितार्थ हुई जब ऋत्विक घटक को एक दिन उस गेट के बाहर मैंने खड़ा देखा। मैं उन्हें जानता-पहचानता नहीं था, फिर भी मुझे लगा कि ये ही हैं ऋत्विक घटक। उस वक्त शाम की स्याही फैल रही थी, सड़कों पर स्ट्रीट लाइट की रोशनी फैल चुकी थी। मैंने देखा, वे कुछ उकताए से खड़े हैं और इधर-उधर देख रहे हैं। छह फुटा शरीर सफेद कुर्त्ता-पायजामा और पैरों में चप्पल। पायजामा घुटनों से कुछ ही नीचे तक था आँखों पर चश्मा। कुछ अजीब-सा व्यक्तित्व। मेरे अंदर साहस नहीं हुआ कि मैं उनसे कुछ कह-पा सकूँ, बस सहमा-सहमा-सा उनके सामने से उजरने लगा ताकि कुछ और पास से उन्हें देख सकूँ। अचानक ही उन्होंने मुझे बुला लिया-'ऐ खोका सुन।' (ऐ बेटा, सुनो) मैं रूक गया और फिर उनके पास आ खड़ा हुआ-'बोलून' (बोलिए) 'कोथाय थाकिस (कहाँ रहते हो? श्इक, मैंने उन्हें पता बताया तो कुछ अचरज से बोले, बाँग्ला में ही, 'अरे, ये तो सामने ही है, तब तो तू मेरा एक काम कर दे। मैं तब से साला किसी रिक्शेवाला को खोज रहा हूँ, नहीं आ रहा है... अब इतनी दूर पैदल तो जा नहीं सकता... तू गाजा पार्क जानता है न

'जी हाँ।' मैंने कहा। इस इलाके में गाजा पार्क मशहूर जगह है। उसके पास ही देसी शराब का एक ठेका है, जहाँ शाम के वक्त काफी भीड़ लगी रहती है। छोटा-सा एक पार्क है, पर उसका नाम गाजा पार्क क्यों पड़ा, यह किसी को नहीं पता। शराब पार्क होता तो समझ में भी आता।

'ये ले बीस रुपए....। उन्होंने जेब से बीस रुपए निकालकर मुझे देते हुए कहा, 'गाजा पार्क के पास जो ठेका है, वहाँ जाकर कहना-घटक मोशाय ने माँगा है, वह दे देगा। मुझे लाकर दे देना, मेरे घर में।' मैं एकदम स्तब्ध, हतप्रभ खड़ा था-शराब की दुकान में जाकर शराब खरीदना तो दूर, मैं तो तब शराब की दुकान के सामने से भी नहीं गुजरता था। मुझे रुपए देने के बाद के फिर बोले - 'पालिए जाबी ना तो (भाग तो नहीं जाएगा? श्इक, और फिर जोर से हँस पड़े - 'जा, जा, तेरे घर का पता मुझे याद है।' उन्होंने मेरे कंधे पर अपना हाथ रखा और फिर मुस्कराते हुए गेट के अंदर चले गए।

अब यह अजीब मुसीबत थी मेरे लिए जिससे मिलने के लिए मैं इतना आतुर थ, उससे इस रूप में मुलाकात होगी, इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। मेरे पैर न आगे बढ़ रहे थे न पीछे हट रहे थे। अगर शराब खरीदते हुए किसी ने मुझे देख लिया और घर तक बात पहुँच गई तो मेरी क्या दुर्गति होगी, यह मैं ही जानता था। किसी से भी कहता कि मैं ऋत्विक घटक के लिए शराब खरीदने गया था तो भला कौन विश्वास करता।

खैर, किसी तरह काँपते पैरों मैं दुकान में पहुँचा और बीस रुपए दुकानदार की ओर बढ़ाते हुए मैंने कहा घटक साहब ने मँगाया है। दुकानदार ने कुछ आश्चर्य और हैरानी से मेरी तरफ देखा, फिर एक बोतल निकालकर, कागज में लपेटकर मुझे दे दिया। लौटते हुए मैंने देखा, गाजा पार्क में पीने वालों की अच्छी-खासी भीड़ इक्ट्ठी है। तब पार्को में बैठकर पीने की कोई मनाही नहीं थी। पास में ही चनेवाले, नमकीन मूँगफली वाले चाटवाले, खोमचे सजाए खड़े थे, जिनके आसपास भी काफी लोग थे। मैं सहमे-सहमे कदमों से ही चलते हुए वापस लौटा, लोहे का गेट खुला ही था, भीतर घुसा, मकान के भीतर जानेवाला दरवाजा बंद था, उसे खटखटाया तो एक बूढ़ा-सा नौकर बाहर आया - 'साहबेर जिनिस (साहब का सामान है? श्इक! उसने पूछा और मेरे सिर हिलाने पर उसने पैकेट मेरे हाथ से ले लिया, 'ठीक है, मैं दे दूँगा, तुम जाओ।' मैं वापस मुड़ने लगा था कि तभी भीतर से आवाज गूँजी - 'के रे सेई छेलेटा ना कि (कौन है रे वही लड़का है न क्या? श्इक और नौकर के हाँ करने पर बोले, 'उसे भीतर ले आ।'

और मैं भीतर था, उनके सामने। बोले बैठो।'

कमरे में बहुत ज्यादा सामान नहीं था। वे खुद पलंग पर लेटे थे। सामने ही दो-तीन कुर्सियाँ रखी थीं, उन्हीं में से एक पर मैं बैठ गया। सामने की दीवार पर देखा एक फोटो लटकी थी, एक औरत और तीन बच्चे। कुछ और भी इसी तरह की तस्वीरें लटकी हुई थीं। इसी बीच नौकर एक गिलास और वह बोतल उनके सामने रख गया। एक जग में पानी भी। गिलास में शराब डालते हुए बोले, 'तुम तो नहीं पीते हो न अभी तो बच्चे हो पर आज कल के बच्चे... खैर, कोशिश करना, शराब से बचकर रहो, बहुत खराब चीज है... खैर, कोशिश करना, शराब से बचकर रहो, बहुत खराब चीज है... साली एकदम नकारा बनाकर छोड़ देती है... लेकिन मेरी तो 'हैबिट' हो चुकी है, क्या करूँ वे थोड़ा गंभीर हो आए, फिर कुछ रुककर बोले, चा खाबे (चाय पियोगे मैने सिर हिलाकर ना कर दिया तो वे फिर कुछ बोले नहीं अपने गिलास को उठाकर उसे देखने लगे।)

मुझे लगा कि अब मुझे उठ जाना चाहिए। मैं उठ खड़ा हुआ तो बोले, 'जाओगे 'अच्छा, फिर आना... पास में ही तो रहते हो... कभी कभी मेरे लिए बोतल तो ला ही सकते हो... यह बूढ़ा जाता है तो उधर ही सो जाता है....तीन चार घंटे में लौटता है...बाँग्ला फिल्म देखते हो मेरे साथ चलना रालीगंज, मैं तुम्हें स्टुडियो दिखाऊँगा, हीरो-हीरोइन से मिलाऊँगा...'

मैं नमस्ते करके जल्दी से बाहर निकल आया। रास्ते भर सोचता रहा-अजीब सनकी आदमी है, पहली मुलाकात में ही बोतल मँगा लिया। क्या शराब पीकर ही फिल्में बनाता है मेघ ढाका तारा' जैसी फिल्म बनाने वाला ऋत्विक घटक क्या यही है, या मैं कहीं गलत जगह पहुँच गया था हजारों प्रश्न मेरे मन में उमड़ते रहे थे। फिर घर में कोई नहीं, एक नौकर के सिवा! पत्नी बच्चे क्या कोई नहीं फिर वह फोटो किसकी थी-एक औरत और तीन बच्चे।

मैं जानबूझकर उस रास्ते से कई दिनों तक नहीं गया। यह नहीं कि मिलने की उत्सुकता खत्म हो गई थी, बल्कि मैं डर गया था। एक दिन की बात अलग थी, रोज-रोज मैं शराब की दुकान में नहीं जा सकता था। इस बीच एक-दो बार गौतम से मुलाकात हुई थी, उससे उनके बारे में पूछना भी चाहा था, पर पूछ न सका। पता नहीं गौतम भी क्या सोचे। पर फिर वही संयोग। एक दिन शाम को गाजा पार्क के सामने से मैं यूँ ही कहीं जा रहा था। कि देखा किसी दोस्त या अपने भक्त के साथ वे पार्क के भीतर ही बैठे हैं और दोनों के हाथ में गिलास है। गिलास भी दुकानदार से ही ली होगी। उन्हें भला मना कौन करता, और फिर वे तो शायद यहाँ के नियमित ग्राहक थे। उनकी नजर भी मुझ पर पड़ गई थी और हाथ के इशारे से उन्होंने मुझे बुलाना शुरू कर दिया था। मैं हिचका, पर उनकी अवमानना करके जा भी नहीं सकता था। मैं उनके पास पहुँचकर दोनों को नमस्ते कर, उनके पास ही घास पर बैठ गया। वे अपने साथी से बोले, 'बहुत अच्छा लड़का है, मेरे घर के पास ही रहता है, पर शराब नहीं पीता' और हँस पड़े। दूसरे आदमी ने मेरे चेहरे को ध्यान से देखा फिर बोला, 'शायद इनको उत्तम बाबू के घर में भी एक-दो बार देखा है।' 'अच्छा।' ऋत्विक ने मेरी तरफ हँसती आँखों से देखा-'तो उस घर में भी तेरा आना-जाना है फिल्मों में आने का शौक है क्या मैं कुछ अचकचाए स्वर में बोला, 'जी ऐसा कुछ नहीं है...गौतम मेरा दोस्त है, इसलिए...' 'भालो, भालो, खूब भालो।' एक घूँट भरने के बाद बोले, 'स्टूडियो देखेगा कल दस बजे मेरे पास आना, रालीगंज ले आएगा तुमको, इनकी नई फिल्म का मुहुर्त है....ठीक है अच्छा, अब तुम जाओ।'

मैं दोनों को नमस्ते कर पार्क से बाहर निकल आया। उनकी विचित्रताओं से मैं और अधिक विस्मित हो रहा था। एक अजनबी लड़के पर विश्वास करना, फिर उसे आत्मीयता देना... और इस तरह अपनी सारी महानता, उपलब्धियाँ और बड़प्पन को भूलकर एक साधारण आदमी की तरह एक पार्क में बैठकर शराब पीना...।

दूसरे दिन मैं अपने को रोक नहीं पाया था। उनके साथ स्टूडियो गया-टैक्सी में। स्टूडियो के गेट पर पहुँचकर, टैक्सी से उतरकर, मुझे साथ लेकर वे सीधे भीतर चले आए थे। टैक्सी का भाड़ा किसने दिया, पता नहीं। निश्चित रूप से पहले से ही कुछ तय होगा, या जो सज्जन कल मिले थे, उन्होंने ही टैक्सी भेजी होगी। वह फिल्म कौन-सी थी यह तो मुझे याद नहीं पर उसमें सौमित्र चटर्जी नायक थे और उन्होंने ही पूजा के बाद नारियल तोड़ा था। ऋत्विकदा ने मुहुर्त शॉट को खुद कैमरे में बंद किया था।

और इसके बाद ऋत्विकदा के घर में मेरा आना-जाना शुरू हो गया। मैं उन्हें 'दादा' कहकर ही पुकारता था हालाँकि वे मेरे पिता से भी उम्र में बड़े थे। उन्हें पढ़ने का शौक था और तरह-तरह की किताबें उनके घर में थी। बँगालियों के घर में पुस्तकों का न होना ही आश्चर्य की बात है, होना नहीं। फिर वे तो साहित्य और कला से जुड़े व्यक्ति थे। फिल्म कला से संबंधित पुस्तकों के अलावा बाँग्ला और अंग्रेजी के बड़े-बड़े साहित्यकारों की कृतियाँ भी उनके पास थीं। मैं तब नेशनल लाइब्रेरी का सदस्य था, और जब उन्हें यह ज्ञात हुआ तो वहाँ से भी अपनी पसंद की पुस्तकें कई बार मँगा लेते। पढ़ने के प्रति उनका जो रुझान था, वह परंपरागत बल्कि संस्कारगत ही था। उनके पिता सुरेशचंद्र घटक जिलाधीश होने के साथ ही कवि और नाटककार भी थे। माँ इंदुबाला देवी भी शिक्षित नारी थीं। ये अपने माँ-बाप की ग्यारहवीं संतान थे, हालाँकि इनकी बहन प्रतीति जुड़वाँ थी पर इनसे कुछ मिनट पहले वह पैदा हुई थी, इस तरह ये सबसे छोटे थे। मूलतः ढाका (अब बाँग्लादेश) के रहने वाले थे किंतु 1943 के विनाशकारी अकाल और 1947 के बँगाल विभाजन के कारण ढाका से इन लोगों को पलायन करना पड़ा था। अन्य हजारों शरणार्थियों के साथ घटक-परिवार भी कलकत्ता पहुँचा था। शरणार्थी जीवन का उनका अनुभव और बंटवारे का दर्द उनके काम में बखूबी नजर आता है। 1971 का 'बाँग्लादेश मुक्ति संग्राम' ने भी, जिसके कारण और अधिक शरणार्थी भारत आए, उनके कार्यों को समान रूप से प्रभावित किया।

कलकत्ता आने के बाद सुरमा देवी से इनका परिचय हुआ, जो एक स्कूल में अध्यापिका थीं। दोनों का परिचय प्रेम में बदला और फिर इन्होंने शादी कर ली। तीन बच्चों के पिता भी बने ये- पुत्र रित्बान और दो बेटियाँ, संघिता और शुचिस्मिता। रित्बान अब खुद फिल्में बनाते हैं और 'ऋत्विक मेमोरियल ट्रस्ट' के संरक्षक भी हैं। ऋत्विक के बड़े भाई मनीष घटक कट्टरपंथी लेखक, अंग्रेजी के प्रोफेसर और सामाजिक कार्यकर्ता थे, जो इप्टा रंगमंच आंदोलन में गहरे रूप से शामिल थे और बाद में उन्होंने उत्तर बँगाल के तेभागा आंदोलन का नेतृत्व भी किया था। सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी इन्हीं मनीष घटक की पुत्री हैं।

ऋत्विकदा का एक भरा-पूरा परिवार था किंतु पति-पत्नी के बीच बहुत जल्द ही मतभेद उभरने लगे, लड़ाई-झगड़े शुरू हो गए। ऋत्विक घटक की शराबखोरी कलह का मुख्य कारण बनी। ओर एक दिन सुरमा देवी अपने, तीनों बच्चों को साथ लेकर, यह कहकर कि तुम्हारे साथ रहकर इन बच्चों का भविष्य भी बिगड़ जाएगा, अपने मायके चली गईं। पति के अनुनय के बावजूद वे वापस न लौटीं और इस तरह दोनों हमेशा के लिए एक-दूसरे से अलग हो गए। ऋत्विक शराब तो पहले से ही पीते थे, किंतु इस सदमे ने उन्हें दिन-रात शराब में डूबो दिया। यही नहीं, यह सदमा इतना भयंकर सिद्ध हुआ कि वे मानसिक रूप से विक्षिप्त हो उठे और काफी समय तक उन्हें एक मानसिक चिकित्सालय में रहना पड़ा। तब उनका फिल्मी जीवन समाप्तप्राय मान लिया गया था। तब यथार्थवादी बाँग्ला फिल्मों के क्षेत्र में सत्यजित राय के बाद किसी का नाम आता था तो ऋत्विक घटक का, किंतु उनकी विक्षिप्तता ने लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि अब दुबारा फिल्मी दुनिया में उनका लौटना संभव नहीं। परंतु ऐसा नहीं हुआ। धीरे-धीरे वे ठीक हुए और उनका आत्मविश्वास भी लौटा। स्वस्थ होने के कुछ समय बाद ही एक बाँग्लादेशी निर्माता ने उन्हें एक फिल्म निर्देशित करने के लिए तैयार कर लिया और वह फिल्म थी - 'तितास एकटी नदीर नाम'। इस फिल्म ने उनकी ख्याति में फिर चार चाँद लगा दिए। इसके बाद उन्होंने एक और फिल्म बनाई, जो उनकी अंतिम फिल्म सिद्ध हुई - 'जुक्ति, तोक्को आर गप्पो' (युक्ति, बहस और कहानी)। यह एक आत्मकथात्मक फिल्म थी जिसमें नायक नीलकंठ की मुख्य भूमिका भी उन्होंने ही निभाई थी।

वास्तव में इस फिल्म में उनका जीवन साक्षात हो उठा था। नायक नीलकंठ की पत्नी जब उसे छोड़कर चली जाती है तब वह शराब में किस तरह डूब जाता है, इसे ऋत्विक ने अपने अभिनय से यथार्थ के धरातल पर उतार दिया था। किसी भी दृश्य को वास्तविक और प्रभावशाली बनाने के प्रति वे कितने सचेत रहते थे, यह फिल्मों से जुड़े सभी लोग जानते हैं। परंतु यहाँ, एक दृश्य की शूटिंग के समय उनकी जो यथार्थवादी दृष्टि रही, उसका वर्णन मैं अवश्य करना चाहूंगा। दृश्य है - 'अकेलेपन से उकताया नीलकंठ अपना घर छोड़कर कहीं और जा रहा है, पर जाने से पहले बाहरी गेट पर पहुँचकर वह अंतिम बार शराब पीना चाहता है और फिर बोतल वहीं गेट पर पटककर चल देता है। कैमरा तैयार है। लोग शांत हैं। एक आदमी इशारा करता है - स्टार्ट! ऋत्विक धीरे-धीरे चलते हुए गेट तक आते हैं। उनके हाथ में देशी शराब की बोतल है। उन्होंने बोतल मुँह से लगाई है ओर उसे अचानक ही नीचे पटककर जोर-जोर से गालियाँ देने लगे। सभी हतप्रभ। हुआ क्या कहीं स्क्रिप्ट में उन्होंने कुछ बदल तो नहीं दिया है। वहाँ उनका कोई संवाद नहीं था, फिर इस तरह की गालियाँ तो बिलकुल नहीं हो सकती। उनके घर के गेट पर ही यह शूटिंग हो रही थी। बहुत सारे लोग खड़े थे। मैं भी! उन्होंने फिर जोर से चिल्लाकर कहा-यह नकली शराब किसने मुझे दी ऋत्विक घटक नकली शराब पीकर ऐक्टिंग करेगा और तब बात समझ में आई! होता यही है कि शराब की जगह रंगीन शरबत बोतल में भर दिया जाता है जो शराब जैसा ही दिखे! ऐसी ही बोतल ऋत्विक दा को भी दी गई थी और इसे मुँह से लगाते ही वे विफर गए थे। बाद में असली बोतल आई थी और उन्होंने दृश्य पूरा किया था। जिन लोगों ने वह फिल्म देखी होगी, शायद नीलकंठ का लड़खड़ाना उन्हें ऐक्टिंग लगा होगा, पर वह बिल्कुल वास्तविक था, ऋत्विकदा उस समय को जी रहे थे, नीलकंठ उनका ही सही प्रतिरूप था। उनके अंदर जो दर्द था, पीड़ा थी, एकाकीपन था, वह सब कुछ उनके चहरे पर जिस तरह उभरकर आया था, वह अभिनय की एक मिसाल बन गया था। शायद उन्हें आभास हो चला था कि उनकी जिंदगी अब बहुत लंबी नहीं है, इसलिए वे अपने मन की बात को, पीड़ा को, अहसास को, उस फिल्म में उड़ेल देना चाहते थे। वे अक्सर कहते थे-मुझे जिंदगी से बहुत प्यार है, परंतु इस जिंदगी को बचाने के लिए उनके पास कोई उपाय नहीं रह गया था। वे अपने बच्चों को भी बहुत प्यार करते थे, और जिंदगी के अंतिम क्षण तक पत्नी को याद करते रहे।

फिल्मों में ही नहीं, जीवन में भी यथार्थवादी दृष्टि रखने वाले ऋत्विक घटक अपने समय के सबसे बड़े यथार्थवादी फिल्मकार थे, उनके बाद ही सत्यजित राय या मृणाल सेन का नाम आता है, किंतु यह उनका दुर्भाग्य ही रहा कि राय की तरह भारत से बाहर अपनी फिल्मों के लिए वे दर्शक नहीं जुटा पाए। उनकी प्रथम फिल्म 'नागरिक' जो सन् 1952 में बनी थी, और प्रथम बाँग्ला यथार्थवादी कला फिल्म थी, बनने के बाद प्रदर्शित भी न हो पाई, उसका प्रदर्शन उनकी मौत के बाद 1977 में ही संभव हो पाया जबकि 'नागरिक' के तीन साल बाद बनी राय की फिल्म 'पथेर पांचाली' को विदेशों में अच्छी ख्याति मिली। हालाँकि यह भी सच है कि ऋत्विक घटक अपने उसूलों पर अगर टिके न होते, व्यावसायिक सफलता की चाह रखते तो व्यावसायिक फिल्मों की एक बड़ी दुनिया उनके सामने थी। विमल राय की पारखी दृष्टि ने ऋत्विक की प्रतिभा को पहचाना था और 'मधुमती' की पटकथा लिखने के लिए उन्हें तैयार कर लिया था। 'मधुमती' जबरदस्त सफल फिल्म रही थी और उसके लिए सर्वश्रेष्ठ कहानी के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए वे पहली बार नामांकित भी हुए थे। यह 1958 की फिल्म थी और ऋत्विक को तब तक बाँग्ला फिल्मों के लिए कोई बहुत ज्यादा सफलता भी नहीं मिली थी, वे चाहते तो मधुमती' की सफलता को अच्छी तरह भुना सकते थे। और हिंदी फिल्मों की दुनिया में रम सकते थे, पर ऐसा नहीं हुआ। हिंदी फिल्मों की व्यावसायिकता उन्हें भाती नहीं थी क्योंकि फिल्मों को वे सिर्फ मनोरंजन का एक साधन नहीं मानते थे बल्कि सामाजिक परिवर्तन का एक माध्यम भी मानते थें वे कहा भी करते थे - 'मैं सिनेमा को एक हथियार के रूप में प्रयोग करना चाहता हूँ।' इसी कारण हिंदी फिल्मों की चकाचौंध से भागकर वे फिर यथार्थवादी बाँग्ला फिल्मों की दुनिया में लौट आए थे। यहाँ , वे अपने मन की बात अपने ढँग से कह सकते थे। उनकी फिल्में प्रमाणित करती हैं कि वे व्यावसायिकता से बिलकुल अलग रहे। गीत, नृत्य, नाटकीयता, चकाचौंध उनके काम में नजर नहीं आती है। बड़े नायक-नायिकाओं के पीछे वे कभी नहीं भागे, शायद इसी कारण उनकी फिल्में छात्रों तथा बुद्धिजीवियों द्वारा ही ज्यादा देखी जाती थीं, साधारण लोगों द्वारा नहीं। यही नहीं, वे वही फिल्में हाथ में लेते थे जिसकी कहानी, पटकथा उन्हें पसंद होती थी। इसके लिए किसी तरह का समझौता उन्हें मंजूर नहीं था। बड़े से बड़े धन के प्रस्ताव को वे ठुकरा देते थे, अगर उन्हें कहानी पसंद नहीं होती थी या व्यावसायिकता का जहाँ दबाव होता था। कई निर्माता ऐसे रहे जो अंधाधुंध पैसा खर्च करके ऋत्विक घटक से अपनी पसंद की फिल्म बनवाना चाहते थे, उन्हें लुभाने की कोशिश करते थे, पर इन्हें निराश ही होना पड़ता था। कुछेक को बदले में गालियाँ भी मिलती थीं, क्योंकि ऋत्विक किसी की परवाह नहीं करते थे, कुछ अर्थों में मुँह फेर लेते थे, जिसके कारण ज्यादातर लोग उनके पास जाने से भी घबड़ाते थे। मन के बादशाह थे वे और आजीवन इस बादशाहत को बनाए रखा। एक कारण यह भी है कि इतनी लंबी अवधि में सिर्फ आठ फिल्में उन्होंने बनाई-'नागरिक' (1958), 'अजांत्रिक' (1958), 'बाड़ी थेके पालिए' (1958), 'मेघे ढाका तारा' (1960), 'कोमल गांधार' (1961), 'सुवर्ण रेखा' (1962), 'तितास एकटी नदीर नाम' (1973) एवं 'जुक्ति तोक्को आर गप्पो' (1974), किंतु ये आठ फिल्मों ही फिल्म के इतिहास में उन्हें अमर बनाने के लिए काफी हैं।

अपनी अंतिम फिल्म बनाते वक्त ही वे रोग की पकड़ में इस तरह आए कि फिर कभी संभल न सके। फिल्म का संपादन करना भी उनके लिए संभव नहीं रह गया था, जबकि कहा यह जाता था कि संपादन के बाद ही पता चलता है कि ऋत्विक अपनी फिल्म में क्या कहना चाहते हैं। उनके सहायकों ने फिल्म को किसी तरह पूरा किया था।

वास्तव में अपनी तमाम प्रतिभा और प्रसिद्धि के बावजूद उनका जीवन एकदम एकाकी हो गया था। पत्नी और बच्चों से अलग रहकर उन्हें अपना जीवन ही निरर्थक लगने लगा था। इस अकेलेपन से घबड़ाकर ही जैसे उन्होंनं अपना साथी बना लिया था। दिन हो या रात, शराब चाहिए तब बीस तीस रुपए में शराब की बोतल आ जाती थी। कुछ निर्माता भी उनकी इस कमजोरी को समझते हुए विदेशी शराब की बोतलें उन्हें दे जाते थे यह सोचकर कि शायद वे फिल्म बनाने के लिए तैयार हो जाएँ! पर ऐसा कभी नहीं हुआ। नशे के बावजूद कभी उन्होंने अपनी चेतना नहीं खोई, कभी कोई गलत निर्णय नहीं लिया। तंगहाल रहे पर फिल्मों के लिए कोई समझौता नहीं किया। इस अर्थ में उनकी निष्ठा और दृढ़ता अद्भुत थी, प्रशंसनीय थी। बाद में तो वे पूरी तरह आल्कोहलिक हो गए थे। लिवर दोनों खराब। खाना पचता नहीं था। शरीर में रक्त की जगह जैसे शराब बह रहा हो। फरवरी 1976 में इस शराब ने ही उन्हें हमसे जुदा कर दिया था। मुझे याद है, जब उन्हें पी.जी.अस्पताल में भर्ती करवाया गया था, डॉक्टर ने उन्हें देखकर कहा था - 'पूरा शरीर जहर हो गया है। अब शराब की एक बूंद भी इनके लिए घातक हैं।' छह फरवरी को उन्होंने अंतिम साँस ली थी किंतु उससे पूर्व की शाम को अर्द्ध बेहोशी की हालत में ही वे बड़बड़ाते रहे थे-मद दाओ, मद दाओ। (शराब दो, शराब दो? श्इक वे निरीह आँखों से इधर-उधर देख रहे थे, उनकी निरीहता देखकर जैसे डॉक्टर भी पिघल आया था और उसकी आँखों में मौन सहमति उतर आई थी! किंतु हममें से, उनके परिवारजनों में से किसी में भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि इस हालत में उन्हें शराब दे, उनकी हालत देखकर एक सज्जन तो इतने आहत-मर्माहत हुए थे कि जोर से चीख पड़े थे - 'अरे दिए दौ, ओके मद दिए दौ, ओ मरे जाछे।' (दे दो, उसे शराब दे दो, वह मर रहा है)। उस प्रतिभाशाली और ख्यातिप्राप्त व्यक्ति की आँखों की निरीहता हमें कचोट रही थी अगले दिन वे नहीं रहे, पर उनकी निरीह आँखें जैसे हमेशा हमारा पीछा करती रहती हैं।


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