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सिनेमा

सिनेमा में प्रतिरोध का स्वरूप

किशोर वासवानी


लगभग हिंदी के हर कथा-सिनेमा (featuristic & cinema) की कथावस्तु (plot) में, अन्य रसों के साथ-साथ, किसी न किसी रूप में, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स और, नायकत्व के वीरोचित भाव को लेकर, अद्भुत रसों का समावेश रहता है। इस तरह के कथानकों में विषय-वस्तु के अनुसार उनमें, प्रतिरोध (विरोध/निषेध) बनाम प्रतिशोध (प्रतिकार/बदला-लेने) का भाव रहता है। जहाँ, प्रतिरोध का सिनेमा मुद्दों को लेकर, मूल्यों पर आधारित विरोध/निषेध जैसी प्रतिक्रिया की बात करता है वहीं, प्रतिशोध का सिनेमा ईर्ष्या, हिंसा, अपनी अन्यायी-शक्ति, अपने आतंकी-एकाधिकार के बल पर, दूसरे को गुलाम बनाने या अपने अंगूठे के नीचे रखने के भावों से परिपूर्ण रहता है। जाहिर है इस प्रकार का सिनेमा शुद्ध व्यावसायिक सिनेमा है, जो अधिकतर अव्यावहारिक और कहीं-कहीं भयानक, वीभत्स और विकृत कल्पनाओं से भरा रहता है।

कई वृत्तचित्र (documentaries) भी घटनाओं के अनुसार, प्रतिरोध अथवा प्रतिशोध को दर्शाते हैं। ये वृत्तचित्र, शुद्ध व्यावसायिक सिनेमा के विपरीत अधिकतर व्यावहारिक रूप में अपनी बात रखते हैं, बशर्ते कि इन्हें किसी श्रव्य-दृश्य चैनल 'टीआरपी' (television rating points) न बढ़ानी हो। इस तरह के वृत्तचित्र भले ही विकृत कल्पनाओं से भरे हुए न हों, परंतु, अगर इनके निर्माता/निर्देशक किसी खास विचारधारा से प्रभावित हों तो उसका असर वृत्तचित्र की प्रस्तुति पर साफ झलकता दिखाई देता है। इस तरह की प्रस्तुतियाँ शुद्ध व्यावसायिक न होते हुए भी वैचारिक रूप से तटस्थ नहीं रहतीं। हम यहाँ सिनेमा की बात करेंगे।

प्रतिरोध का सिनेमा हम यहाँ, प्रतिशोध के सिनेमा (cinema of revenge) की अधिक बात न कर, प्रतिरोध के सिनेमा (cinema of resistance) की बात करेंगे जहाँ, प्रतिशोध का सिनेमा किसी विशेष व्यक्ति, परिवार, या वर्ग पर केंद्रित रहता है, वहीं प्रतिरोध के सिनेमा के स्वर व्यक्ति के स्रोत से निकलकर समाज, देश या अंतरराष्ट्रीय फलक तक पहुँच जाते हैं। भूमंडल की प्रत्येक व्यवस्था के केंद्र में व्यक्ति है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अपने (मानव) परिवार, समाज, देश अथवा अंतरराष्ट्रीय फलक पर, वह अपने व्यवहार से, जहाँ एक और स्वयं को प्रभावित करता है वहीं वह, मानवेतर (जीव-जंतु, प्रकृति) व्यवस्था को भी अपनी चपेट में लेता है। अतः किसी मुद्दे को लेकर मानवीय-प्रतिरोध को समझना कई सामासिक संदर्भों (composite reference) की माँग करता है। परिणाम-स्वरूप, मनोवैज्ञानिक आधार पर मानवीय-प्रतिरोधी व्यवहार एवं उसके स्वरूप को समझना एक जटिल/पेचीदा कार्य है। अतः कई फिल्में प्रतिशोध के सिनेमा की तरह दिखाई देती हैं पर उन प्रतिशोधी चरित्रों के व्यवहार में भी, कई मनोवैज्ञानिक कारणों के फलस्वरूप, मूलरूप से, प्रतिरोधी भाव छिपा रहता है। तीस के दशक से ही, प्रतिरोधी भाव को भी साथ में लेकर चलने वाला सिनेमा, मसलन; 'अछूत कन्या' (1936, निर्देशक फ्रैंज ऑस्टन), 'दुनिया न माने' (1937, निर्माण-निर्देशक वी. शांताराम), 'अछूत' (1940, निर्देशक सरदार चंदूलाल शाह) आना शुरू हो गया था।

प्रतिरोधी सिनेमा का स्वरूप व्यक्ति से समष्टि की अस्मिता की लड़ाई महबूब खान की फिल्म 'औरत' (1940) के कथानक पर पुनः उन्हीं के द्वारा निर्मित, महाकाव्यात्मक (epical) फिल्म 'मदर इंडिया' (1957) का प्रतिरोधी मिजाज, सही मायने में हिंदी सिनेमा में प्रतिरोधी आवाज की राह खोल देता है। अन्याय के प्रति विरोध, अपने मानवीय आत्मसम्मान की पूरी ताकत, जुझारूपन, कानून एवं समाज की मर्यादाओं की रक्षा करते हुए प्रतिरोधी तेवर बनाए रखना, इस फिल्म की विशेषता थी।

यह फिल्म, व्यक्ति से समष्टि की अस्मिता की लड़ाई लड़ती है। संभवतः यही कारण था कि यह पहली भारतीय फिल्म थी जो ऑस्कर (1957 के लिए) पुरस्कारों के लिए नामांकन की श्रेणी तक पहुँच पाई। आगे चलकर यह फिल्म, स्त्री-अस्मिता/पहचान की लड़ाई की सशक्त मिसाल बनी, जिसने कई निर्देशकों को प्रेरित किया। फिल्म का कथानक, प्रमुख चरित्र राधा (नरगिस) को केंद्र में रखकर, आरंभ से अंत तक उसी के चारों ओर घूमता है। समाज के धूर्त-अन्यायी लोगों का विरोध करते हुए वह, पूरे गाँव के दमित लोगों के संघर्ष का प्रतीक बनकर, नैतिक मूल्यों की रक्षा करते हुए प्रतिरोध का एक आदर्श प्रतीक बन जाती है। नैतिक मूल्यों की रक्षा की लड़ाई में वह अपने लाड़ले बेटे बिरजू (सुनील दत्त) जिसे, सामंती अत्याचार/अन्याय के खिलाफ अपने हाथ में कानून लेकर बंदूक थामकर डाकू बनने पर मजबूर कर दिया, को भी नहीं बख्शती और उसे उस समय गोली मार देती है, जब वह, दुल्हन बनी लाला की बेटी को, लूट के माल के साथ उठाकर भागना चाहता है। बिरजू उस माँ को नहीं समझ पाया जो अब मदर इंडिया बन चुकी है, जहाँ पूरा गाँव उसकी अपनी संतान के समान है। माँ, बिरजू पर बंदूक ताने हुए है, बिरजू कहता भी है - 'मैं तेरा बेटा हूँ, तू मुझे नहीं मार सकती; पर माँ के स्थान पर 'मदर इंडिया' जवाब देती है, वह बेटा दे सकती है, लाज नहीं।'

गांधीजी, जो सिनेमा को एक सामाजिक बुराई समझते थे, उन्होंने भी जब 'अछूत' फिल्म देखी तो उसकी सराहना की। गांधीजी की प्रतिरोधी लड़ाई भी स्वयं के व्यक्ति से आरंभ होती हुई, समष्टि का रूप ले लेती है। हम जानते हैं, उन्होंने गुलामी और अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध के रूप में यह लड़ाई अहिंसा के हथियार से लड़ी। गांधीजी के इस जुझारू व्यक्तित्व को पूरी दुनिया ने माना। हम उनके इस चमत्कारिक व्यक्तित्व को लेकर कोई शोधात्मक/प्रभावशाली फिल्म नहीं बना सके, जबकि सर रिचर्ड एटनबरो ने यह कमाल कर दिखाया और उनकी फिल्म 'गांधी'(1982) न केवल वैश्विक स्तर सराही गई पर, आठ ऑस्कर लेकर हमारी सिनेमेटिक समझ/संप्रेषणीय-तकनीक पर कई सवाल उठा गई। इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत थी, समष्टि स्तर पर न्याय दिलवाने के लिए, अन्याय के खिलाफ गांधीजी द्वारा बहुत बड़े जनांदोलन को खड़ा करने में, गांधीजी के प्रतिरोधात्मक-जुझारू व्यक्तित्व को समझना। कहने की आवश्यकता नहीं, कि 'गांधी' में, बैरिस्टर एम.के.गांधी को 'महात्मा गांधी' के व्यक्तित्व में रूपांतरित (transformed) करने वाले जो सूक्ष्म कारकीय-अवयव (acting & ingredients) थे उनका, मनोवैज्ञानिक स्तर पर, बहुत गहराई से निरूपण किया गया है। मजेदार बात यह है कि फिल्म की पटकथा- स्क्रीन-प्ले में, यह आधारभूत मुद्दा गांधीजी की आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' (नवजीवन ट्रस्ट, अहमदाबाद, 1957)' से बहुत ही रचनात्मक तरीके से प्रभावित हुआ है -

इसे समझना बहुत जरूरी है : महात्मा गांधी जब 'महात्मा' नहीं, बैरिस्टर एम.के.गांधी थे, 1893 में एक केस के सिलसिले में बैरिस्टर के रूप में, अंग्रेजी पोशाक (कोट, पेंट, टाई) में, दक्षिण अफ्रीका की व्यावसायिक यात्रा पर; फर्स्ट-क्लास के टिकट पर, रेल से प्रथम-श्रेणी के डिब्बे में विधिवत यात्रा कर रहे थे। खूब सर्दी की रात थी, मेरित्सबर्ग नामक छोटे से स्टेशन पर, रेल अधिकारियों के साथ एक यात्री आया, जो गांधीजी से भिन्न वर्ण का (गोरा) था। उसे भी इसी केबिन में यात्रा करनी थी। उन्होंने, गांधीजी को, सिर्फ उस यात्री से भिन्न वर्ण का होने के कारण, उस प्रथम-श्रेणी के डिब्बे से निकलकर आखिरी डिब्बे में जाने का आदेश दिया।

'रेल अफसर 'इधर आओ, तुम्हें आखिरी डिब्बे में जाना है।'

गांधीजी ने कहा - 'मेरे पास पहले दर्जे का टिकट है।'

उसने (अफसर ने) जवाब दिया - 'इसकी कोई बात नहीं है। मैं तुमसे कहता हूँ कि तुम्हें आखिरी डिब्बे में जाना है।'

गांधी - 'मैं कहता हूँ कि मुझे इस डिब्बे में डरबन से बैठाया गया है और मैं इसी में जाने का इरादा रखता हूँ।'

अफसर ने कहा - 'यह नहीं हो सकता। तुम्हें उतरना पड़ेगा, और न उतरे तो सिपाही उतारेगा।'

गांधीजी ने कहा - 'तो फिर सिपाही भले उतारे, मैं खुद तो नहीं उतरूँगा।'

सिपाही आया। उसने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे धक्का देकर नीचे उतारा। मेरा सामान उतार लिया। मैंने दूसरे डिब्बे में जाने से इनकार कर दिया। ट्रेन चल दी। मैं वेटिंग रूम में बैठ गया अपना 'हैंड-बैग' साथ में रखा बाकी सामान को हाथ न लगाया। रेलवे वालों ने उसे कहीं रख दिया। सर्दी का मौसम था। दक्षिण अफ्रीका की सर्दी ऊँचाई वाले प्रदेशों में बहुत तेज होती है। मेरित्सबर्ग इसी प्रदेश में था। इससे ठंड खूब लगी। मेरा ओवर-कोट मेरे सामान में था पर माँगने की हिम्मत न हुई। फिर अपमान हो तो ठंड में मैं काँपता रहा। कमरे में दीया न था। आधी रात के करीब एक यात्री आया। जान पड़ा कि वह कुछ बात करना चाहता है, पर मैं बात करने की मनःस्थिति में नहीं था।

मैंने अपने धर्म का विचार किया : 'या तो मुझे अपने अधिकार के लिए लड़ना चाहिए या लौट जाना चाहिए, नहीं तो जो अपमान हो उन्हें सहकर प्रिटोरिया पहुँचना चाहिए और मुकदमा खतम करके देश लौट जाना चाहिए। मुकदमा अधूरा छोड़कर भागना नामर्दी होगी। मुझे जो कष्ट सहना पड़ा है, सो तो ऊपरी कष्ट है। वह गहराई तक पैठे हुए महारोग का लक्षण है। यह महारोग है 'रंग-द्वेष'। यदि मुझमें इस गहरे रोग को मिटाने की शक्ति हो, तो उस शक्ति का उपयोग मुझे करना चाहिए। ऐसा करते हुए स्वयं जो कष्ट सहने पड़े सो सब सहने चाहिए और उनका विरोध रंग-द्वेष को मिटाने की दृष्टि से ही करना चाहिए।'

यह निश्चय करके मैंने दूसरी ट्रेन में, जैसे भी हो, आगे ही जाने का फैसला किया।' कारक/विभक्ति चिह्नों का प्रयोग वैसे ही दिया गया है जैसा कि पुस्तक में है) हम जानते हैं इस घटना ने गांधीजी के मानस पर गहरा असर डाला। इस उद्धरण में जो पंक्तियाँ रेखांकित की गई हैं अथवा गहराई से दर्शाई गई हैं, वे गांधीजी के उस चिंतन को ध्वनित करती हैं, जिसने उनके मानस को आमूलचूल रूप से रूपांतरित (transformation of the psyche in toto) कर दिया। इस चिंतन प्रक्रिया में, उनके सामने तीन चीजें उभरकर आईं : 1. इस पूरे प्रकरण में क्या मेरी कोई गलती है 2. अगर मुझसे गलती हुई है तो मैं उसे मान लूँ और परिणाम भुगतने को तैयार रहूँ और 3. अगर, मुझसे कोई गलती नहीं हुई है, और सत्य मेरे पक्ष में है तो मुझे, अपने पर अकारण होने वाले अन्याय का पूरी ताकत के साथ अहिंसात्मक तरीके से प्रतिरोध करना चाहिए। इस चिंतन ने उनमें ताउम्र, अन्याय के प्रति अहिंसात्मक तरीके से प्रतिरोध करने का रचनात्मक एवं संतुलित-जज्बा मजबूत किया। जाहिर है यह प्रतिरोध किसी खास राजनीतिक या ऐसी ही एक पक्षीय-वादीय (partial & ismatic) विचारधारा से प्रतिबद्ध नहीं थी। गांधीजी की पूरी आत्मकथा इन तथ्यों से भरी हुई है।

सर रिचर्ड एटनबरो ने गांधीजी के इस करिश्माई प्रतिरोधात्मक-जुझारू व्यक्तित्व को समझा और अपनी अमर महाकाव्यात्मक कृति 'गांधी' में खूबसूरती और प्रभावशाली ढँग से उकेरा। बाद में इसी घटना को श्याम बेनेगल ने अपने धारावाहिक 'भारत एक खोज' (1986) में भी प्रस्तुत किया।

भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई हेतु, अंग्रेजों के शासन का पुरजोर प्रतिरोध दर्शाने वाली और भी फिल्में बनीं, जिनका नायक भगत सिंह रहा। भगत सिंह के किरदार में मनोज कुमार को लेकर, निर्देशक एस.राम शर्मा ने 'शहीद' (1965) फिल्म बनाई। भगत सिंह में अंग्रेजों के खिलाफ जो एक आग थी, उसका निरूपण काफी असरदार तरीके से इस फिल्म में आया है। 1962 के चीन युद्ध के बाद, 1965 के पाक युद्ध को लेकर, देश के लिए जो मर मिटने का जुनून था, उसे इस फिल्म से और भी बल मिला। वैसे तो 1965 से पहले ही शहीद भगत सिंह के किरदार ने हमारी फिल्म इंडस्ट्री को प्रभावित किया, परंतु 21वीं सदी में भी इस, सदा प्रतिरोधात्मक किरदार ने, नए/समसामयिक राजनीतिक संदर्भों/हमारी भ्रष्टाचारी व्यवस्था को लेकर, बेजोड़ सिनेमाई मुहावरे और प्रतीकात्मक शैली में फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया। 2006 में बनी फिल्म 'रंग दे बसंती' (निर्देशक राकेश मेहरा) इस दिशा में एक बहुत ही सशक्त फिल्म है। भारत के संदर्भों में, 21वीं सदी युवाओं की सदी है। उनमें बहुत कुछ करने का हौसला है। परंतु, हमारे देश, समाज की भ्रष्टाचारी, संकुचित और पिछड़ी-व्यवस्था उनके इस जज्बे को नहीं समझ पा रही है, उन्हें अपनी शक्ति का रचनात्मक उपयोग/प्रयोग करने की दिशा में अवसर नहीं दे पा रही है। परिणामस्वरूप, उनकी शक्ति का विस्फोट, स्वयं उनको ही भस्म कर रहा है। यह बात नहीं है कि वे इस भस्मासुरी मायावी प्रपंच से वाकिफ नहीं हैं, परंतु वे लाचार होकर पड़े रहने और स्वयं को गलत कामों द्वारा बरबाद करने के शाप से अभिशप्त हैं। चूँकि वे इस कुचक्र को भी भली भांति समझते हैं, अतः उन्हें जब भी अपने आक्रोश को व्यक्त करने का मौका मिलता है, बेजान हथेली पर लेकर भगत सिंह के अंदाज में सिर पर कफन-पग्गड़ बांधे, अन्याय का प्रतिरोध करने के लिए निकल पड़ते हैं। 'रंग दे बसंती' ने युवाओं की इस सोच को बहुत ही समझदारी से अभिव्यक्त किया है। न केवल ये युवा, भ्रष्टाचारी नेता का खात्मा भगत सिंह की शैली में करते हैं, परंतु उनमें से एक तो अपनी मान्यताओं की खातिर, भ्रष्टाचारियों का साथ देने वाले अपने बाप को भी नहीं बख्शता, और उसे गोली मार देता है। लड़ते-लड़ते ये युवा, पूरे समाज को, अन्याय के प्रति अपना प्रतिरोध जताने की मानसिकता से भरकर, हँसते-हँसते शहीद हो जाते हैं।

वैसे तो व्यक्ति के जरिए वर्ग में प्रतिरोधी चेतना जगाने की दिशा में, हिंदी के नए/समानांतर सिनेमा की चिंतनधारा का आगाज (1969 'भुवन शोम') करने वाले सिने-शिल्पी मृणाल सेन ने, 1976 में 'मृगया' जैसी कलात्मक फिल्म बनाकर, प्रतिरोधी चेतना के सिनेमा की नींव रखी थी, परंतु नए/समानांतर सिनेमा की वैचारिक बहसों में इसकी धार सीधे, बहुत बड़े वर्ग/समुदाय/समाज या देश के संदर्भों में, उस तरह की बृहत-सोच को दिशा न दे पाई, जो दिशा सर रिचर्ड एटनबरो ने सिनेमाई अंदाज में दी। हाँ, श्याम बेनेगल की फिल्म 'निशांत' (1975) को छोड़कर, अधिकतर नया सिनेमा गहराई के साथ व्यक्ति-चरित्रों पर केंद्रित रह कर सशक्त ढँग से प्रतिरोधी चेतना की बात कहता रहा, जहाँ, वर्ग/समुदाय/समाज या देश पर केंद्रित प्रतिरोधी चेतना प्रच्छन्न रूप से दिखाई पड़ती है। जिस पर आगे चलकर विचार होगा।

ढीले पड़ चुके, समानांतर सिनेमा के तेवरों को आँ दोलित कर देने वाली वर्ग चेतना के साथ, प्रकाश झा ने 1984 में 'दामुल' देकर, एक नए मुहावरे के साथ, उद्वेलित कर देने वाला वैचारिक सिनेमा रखा। शैवाल की कहानी पर आधारित इस फिल्म में बिहार के गाँव जहानाबाद की पृष्ठभूमि है, जिसमें नक्सली आंदोलन को लेकर, सामंतियों/बाहुबलियों के प्रतिरोध में, बंधुआ मजदूर का विद्रोह है। परंतु 2003 में आई प्रकाश झा की फिल्म 'गंगाजल' के अंत में बिहार का पूरा गाँव अन्याय के प्रतिरोध में उठ खड़ा होता है। व्यावसायिक फिल्मों की तरह अंत में तमंचों/बंदूकों की गोलियों की ठांय-ठांय न होकर विद्रोही जन सैलाब उमड़ पड़ता है। इसी तरह के प्रतिरोधी स्वर राजकुमार संतोषी की फिल्म 'हल्ला बोल' (2008) में देखने को मिलते हैं। इस फिल्म की विशेषता यह है कि, यह फिल्म जन प्रतिरोधी स्वरों को मजबूती के साथ रखने की दिशा में, अपनी पूर्व विधा 'थिएटर' की ताकत (विशेषकर नुक्कड़-नाटक) और उसकी भूमिका को पूरी शिद्दत और प्रतिबद्धता के साथ रेखांकित करती है। यह कड़वा सत्य है कि आज, सिनेमा का ग्लैमर, थिएटर की मेधा को, अपनी चकाचौंध से पागलपन की हद्द तक अपनी ओर आकर्षित कर रहा है परंतु, फिर भी साधारण जन मानस 'थिएटर' (विशेषकर नुक्कड़-नाटक) से भी प्रभावशाली ढँग से संप्रेषित हो सकता है। 'थिएटर' आज भी सिनेमा के सच्चे कलाकारों की रचनात्मक भूख को शांत करता है। यही कारण है आज भी पृथ्वी थिएटर की या नुक्कड़ नाटक करने वाले मंचों की अपनी अहम भूमिका है। इस प्रकार, व्यक्ति से समष्टि की अस्मिता की लड़ाई को दर्शाने वाली और भी कई फिल्में हमारे सामने हैं।

व्यक्ति या वर्ग अथवा बहुत बड़े समूह द्वारा व्यक्त किया गया प्रतिरोध स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, परंतु व्यक्ति द्वारा अपने स्तर पर अपनी अस्मिता/पहचान को बचाए/बनाए रखने का प्रतिरोध सिनेमा में, कई बार बहुत ही सूक्ष्म रूप में ध्वनित होता है, जहाँ, दुनिया न माने जैसी फिल्मों में प्रतिरोध मुखरित है, वहीं, बिमल राय की 'देवदास' (1955), और 'सुजाता' (1969) में यह मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक स्तरों पर हमारे सामने आता है। 'देवदास' की चाहे, पार्वती हो या चंद्रमुखी दोनों ने ही अपनी अस्मिता को लेकर, पुरुष मानसिकता पर कटाक्ष करते हुए अपने-अपने प्रतिरोधी स्वरों को, बहुत ही प्रभावशाली ढँग से व्यक्त किया है। 'देवदास' के एक दृश्य-प्रसंग में पार्वती आधी रात को देवदास के कमरे में आ जाती है, और दोनों के विवाह को लेकर, देवदास के परिवार के विरोध के बावजूद, निर्भय होकर उसे खुद को अपनाने के लिए कहती है। देवदास भी पार्वती से प्रेम करता है, परंतु अपने परिवार के विरोध के कारण, वह उनका प्रतिरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता बल्कि उल्टे वह पार्वती के इस व्यवहार से परेशान होकर, खुद भी डरता है और एक तरह से उसे भी डराते हुए कहता है :

देवदास : - 'तुमने ऐसा क्यों किया पार्वती कल को शर्म से तुम्हारा सर नीचा नहीं होगों.... 'मैं भी कैसे मुँह दिखाऊँगा

पार्वती : (व्यंग्य के साथ, प्रतिरोध व्यक्त करते हुए) - 'तुम, तुम्हारा क्या है तुम ठहरे मर्द आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों तुम्हारे कलंक की बात लोग भूल जाएँगे।'

देवदास के ठुकराने के बाद पार्वती अपने तथा अपने-परिवार के स्वाभिमान को लेकर, बाद में देवदास द्वारा पछतावा व्यक्त करने पर भी वह, भले ही उसके प्रति स्नेह भाव रखती हो, पर प्रतिरोध-स्वरूप उसकी जीवन संगिनी नहीं बनती। बाद में देवदास के जीवन में चंद्रमुखी आती है जो उसका आदर भी करती है और उससे प्रेम भी करती है। वह भी एक अवसर पर, देवदास को पूरी पुरुष जाति का प्रतिनिधि-रूप मानते हुए, हिकारत भरे अंदाज में लगभग इस तरह कहती है : 'रूप का मोह जितना पुरुषों में होता है, उतना हम स्त्रियों में नहीं। 'प्रेम करना अलग है, रूप का मोह कुछ और।'... 'किसी आड़े वक्त में जब हमारी कोई छटपटाहट बाहर निकलती है तो तुम उसे कलंकिनी, कुलक्षिणी...(कहते हो)।' देवदास लज्जित महसूस करता है।

'सुजाता' फिल्म का प्रतिरोध छुआछूत की सामाजिक बुराई को लेकर, जीव विज्ञान के वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर व्यक्त हुआ है जिसके अनुसार, मानव शरीर, वैज्ञानिक रूप से भले ही रक्त-वर्गों में बंटा हुआ हो, परजाति, वर्ण आदि के आधार पर मानव शरीर का कोई वर्ग भेद नहीं होता। सुजाता अछूत है, वह सवर्ण परिवार में आश्रय पाकर पल रही है। परिवार की मुखिया छुआछूत को मानती है। पर जब एक घटना में वह गंभीर रूप से बीमार हो जाती है और उसे रक्त की जरूरत पड़ती है तव उसके अपने स्वर्ण-परिवार जनों का रक्त उसके रक्त-वर्ग से मेल नहीं खाता; अगर उसके रक्त-वर्ग से किसी का रक्त मेल खाता है, तो वह है - अछूत सुजाता का रक्त। उसी का रक्त परिवार की मुखिया की जान बचाता है। पूरी फिल्म के सिनेमेटिक तेवर, इस संदेश को पूरी मुखरता के साथ स्थापित करते हैं।

बिमल राय की फिल्म 'बंदिनी' (1963) का प्रतिरोधी स्वर काफी पेचीदा है, जो मनोवैज्ञानिक स्तर पर, बहुत ही सूक्ष्म और बहुत ही कलात्मक तरीके से ध्वनित होता है। फिल्म की सुसंस्कृत नायिका, उस पर थोपी गई विपरीत/ संकटमय, असहनीय परिस्थितियों के कारण और अकारण अपने ('स्व') पर, अपमानित करने वाले दंश की मार से तिलमिलाकर, अपना मानसिक संतुलन खो बैठती है; और अपमानित करने वाली उस औरत को जहर दे देती है जो अब उसके पूर्व प्रेमी की पत्नी है। जब उसे पता चलता है कि उसके प्रेमी ने किन परिस्थितियों में विवाह किया था तो वह सुंदर भावी वैवाहिक जीवन को ठुकराकर पुनः अपने पूर्व प्रेमी के पास चली जाती है। बिमल राय ने गंभीरता से स्त्री की उस प्रतिरोधी वैचारिक शक्ति को रेखांकित किया है, जो अपनी शर्तों पर, बौद्धिक रूप से अर्जित की गई है।

एक ओर, देश को, आपातकालीन अजगर अपनी गिरफ्त में लेने को आतुर था, दूसरी ओर समकालीन सिनेमा सजग होकर आगे बढ़ रहा था, श्याम बेनेगल ने 1973 में 'अंकुर' देकर, अपनी फिल्मों में प्रतिरोधी स्वरों की मुखरितता को मजबूत करने का बिगुल बजा दिया। स्त्री अस्मिता, सामंतियों और सर्वहारा (दलित/मजदूर) के बीच प्रतिरोधी-संघर्ष को यथार्थ के धरातल पर विश्लेषित करने की दिशा में उनकी फिल्मों ने गहन कार्य किया। जहाँ, अंकुर में स्त्री अस्मिता, सामंतियों और सर्वहारा (दलित/मजदूर) के बीच प्रतिरोधी-संघर्ष है, वहीं 'निशांत' (1975, आपातकाल का काला वर्ष) में असहाय व्यक्ति पर, सामंतियों द्वारा लादी गई अनाचार/जुल्मों की काली निशा के, मज्लूम और सर्वहारा वर्ग के बीच हुए प्रतिरोधी-संघर्ष में, अंत (निशांत) की गाथा है। उनकी बाद की फिल्मों में भी, विशेषकर, 'मंथन' (1976), 'भूमिका' (1976), 'मंडी' (1983) 'जुबैदा' (2001) आदि में भी इन मुद्दों की गूंज पूरी शिद्दत के साथ सुनाई देती है।

एक तरह से, अत्याचारी, भ्रष्टाचारी व्यवस्था के विरोध में प्रतिरोधी-संघर्ष, नए/समानांतर/ समकालीन सिनेमा का एक अघोषित मैनीफेस्टो बन गया। आगे चलकर जिसका निर्वाह गोविंद निहालानी ने, सिनेमाई-कला/रचनात्मकता को साधते हुए प्रभावशाली तरीके से अपनी फिल्मों, 'आक्रोश' (1980), 'अर्ध-सत्य' (1989) आदि या टी.वी. धारावाहिक 'तमस' में किया। अपने, गुरुतुल्य बिमल राय के मुरीद गुलजार साहब ने अपने सिनेमा, जैसे 'माचिस' (1996), 'हु-तु-तु' (1999) में या प्रेमचंद की कहानियों पर बनी लघु फिल्मों, 'सवा सेर गेहूँ', 'कफन' आदि में प्रतिरोधी-संघर्ष को मुखर किया। इस कड़ी में और भी कई फिल्मकार, मसलन; गौतम घोष ('पार', 1984), अरुण कौल ('दीक्षा' 1991), दीपा मेहता ('फायर' 1996 ), कुमार शाहणी ('तरंग' 1984), मणिकौल और अमोल पालेकर (क्रमशः 'दुविधा' 1973 और 'पहेली' 2005) शेखर कपूर ('बैंडिट क्वीन' 1995), तिग्मांशु धूलिया ('पान सिंह तोमर', 2012, जहाँ डाकू अपने को, सामाजिक/व्यवस्था के अन्याय को लेकर किए गए प्रतिरोध स्वरूप स्वयं को 'बागी' कहलवाना पसंद करता है), सिने-मास्टर सत्यजित राय की 'शतरंज के खिलाड़ी' (1977) या लघु-फिल्म 'सद्गति' (1981), केतन मेहता का सिनेमा अथवा प्रतिरोधी संघर्ष को अलग ढँग से आश्चर्यजनक तरीके से मुखरित करने वाली, विशेष रूप से उल्लेखित फिल्म, 'ए वेडनसडे' (निर्देशक नीरज पांडे, 2008) आदि हैं; जिन्होंने, अपने-अपने तरीके से हिंदी सिनेमा में प्रतिरोधी-संघर्ष को काफी हद तक मजबूत किया है।

हम जानते हैं, हॉलीवुडी फिल्मों ने हिंदी सिनेमा को बहुत प्रभावित किया है। प्रतिरोधी सिनेमा भी इससे अछूता नहीं रहा। चाहे Jean Renoir निर्देशित This Land Is Mine (1943) लघु फिल्म हो, या D-Francis Ford Coppola की God Father (1972/1974/1990) हो, हिंदी सिनेमा को अपने प्रतिरोधी तेवरों से आकर्षित करते रहे। सलीम साहब ने तो को आधुनिक महाभारत कहा। आज, ईरानी-प्रतिरोधी-सिनेमा भी सशक्त रूप से हमारे सामने है।

हमारे पौराणिक आख्यानों में प्रतिरोधी-स्वर भरे पड़े हैं। कहीं, नैतिक मूल्यों का हवाला देकर, एक साधारण जन (धोबी) भी, अपने राजा रामचंद्रजी, जिन्होंने अपनी प्रिय संगिनी सीताजी को (जिसने, मजबूरी में रावण के यहाँ बिताए गए दुर्दिनों के बाद भी, अपनी शुद्धि के लिए अग्निपरीक्षा दी), अग्निपरीक्षा में खरा उतरने के उपरांत ही, ससम्मान अपना साथ दिया, के इस आचरण को अनैतिक बताकर उसका प्रतिरोध करते हुए, अपनी उस पत्नी का परित्याग कर देता है जो कहीं और रात बिताकर आई थी। उस नागरिक के इस तरह के प्रतिरोध से आहत होकर,अपने बंधुओं के, इस प्रतिरोध का, प्रतिरोध करने पर भी, राजधर्म की दुहाई देकर अपने राजकीय कर्तव्यों/सिद्धांतों की खातिर, प्रतिरोध करते हुए दुःखी मन से, अपनी प्रिय संगिनी सीता का त्याग कर देते हैं। राजकीय-धर्म की खातिर ही, मुगल-ए-आजम (निर्देशक के आसिफ, 1960) का बादशाह अकबर, प्यार की खातिर उनका प्रतिरोध करने वाले, अपने बेटे सलीम के साथ जंग लड़ते हैं और उसे मौत तक देने को तैयार हो जाते हैं। कृष्ण का पूरा आचरण अनीति का प्रतिरोध करता हुआ 'गीता' जैसा शाश्वत, मनोवैज्ञानिक दस्तावेज हमारे सामने रखता है, जो अर्जुन को भी अपनों से ही लड़ने/प्रतिरोध करने के लिए प्रेरित करता है।

अन्याय के प्रति तत्काल प्रतिरोध दर्ज करवाने के भाव ने ही, उस समय वाल्मीकि जैसे डाकू को भी आदि कवि बना दिया, जब उनके मुख से पहली प्रतिरोधी कविता का सोता फूटा : 'मा निषाद काम मोहितम' आज, प्रतिरोध की यह धारा, अन्ना हजारे तक, अजस्र रूप से बह रही है। आज की युवा कमसिन लड़की, किसी अधेड़ के हाथ 'बाजार' (निर्देशक सागर सरहदी, 1982) में बिकने और असहाय होकर जहर खाकर मरने के लिए विवश नहीं है; वरन, वह इस बाजार के धंधेबाजों/शोषितों को जेल पहुँचाने का जिगर भी रखती है (Month wives, The Indian Express, Dt-10/3/13 पृ. 9)। हमारी न्याय व्यवस्था भी सजग है, और उस पूरे गाँव को हिरासत में लेने से नहीं चूकती जो, किसी पर हो रहे सामूहिक पाशविक अत्याचार का मूक साक्षी बना रहता है, और प्रतिरोध नहीं करता। हमारा सिनेमा/वृत्तचित्र, नारों और वादों से ऊपर उठ कर इस तरह के कोड्स का प्रयोग करते हुए अपने अंदर और भी परिपक्वता ला सकता है।

(लेखक सुपरिचित सिनेमा विश्लेषक हैं)


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हिंदी समय में किशोर वासवानी की रचनाएँ