वह भी एक समय था, जब हिंदी फिल्मों में भोजपुरी का इस्तेमाल महज नौकर का किरदार निभाने वाले कलाकार की भाषा के रूप में होता था। हिंदी फिल्म निर्माताओं के लिए
भोजपुरी एक गंवारू भाषा थी, जिसकी जगह कलाकारों, निर्माताओं के आलीशान ड्राइंग रूम में नहीं, बल्कि सर्वेंट क्वार्ट्स में हुआ करती थी। अनपढ़ों की भाषा के रूप
में भी भोजपुरी का ही इस्तेमाल होता रहा था। लेकिन आज स्थिति बदल चुकी है और अब भोजपुरी भाषा सर्वेंट क्वार्टर से निकल कर ड्राइंग रूम तो क्या, बड़े-बड़े
निर्माताओं, नायक-नायिकाओं के बेड रूम के गद्देदार गलीचों पर भी पसर चुकी है। अब वह नौकरों, गंवारों की भाषा नहीं रही, बल्कि एक ऐसी दुधारू गाय में तब्दील हो
चुकी है, जिसकी दो लात सहने के लिए फिल्मी दुनिया के बड़े-बड़े दिग्गज तैयार रहते हैं। अब भोजपुरी नौकरानी नहीं, महारानी बन गई है, जिसके सामने दूसरी भाषाओं की
फिल्में पानी भरती नजर आती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि भोजपुरी फिल्मों ने अपनी यह हैसियत खुद के बूते पर बनाई है, उस पर किसी खुदा की मेहरबानी नहीं
रही लेकिन उसकी यह हैसियत यूँ ही आमद नहीं हुई है, बल्कि इसके लिए उसे भगीरथ प्रयत्न करने पड़े हैं। राहें कठिन थीं और साधन सीमित, लेकिन उठते-गिरते और
लड़खड़ाते हुए भोजपुरी सिनेमा ने अपना मुकाम हासिल कर ही लिया। आज भोजपुरी फिल्में गाँव की गलियों और खेत-खलिहानों से निकलकर सिंगापुर, हाँगकांग, लंदन और
न्यूयॉर्क जैसे चमचमाते विदेशी शहरों तक में धमक दे रही हैं, दुबई में बिरहा दंगल हो रहा है।
यूं तो भोजपुरी की पहली फिल्म 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो' थी, लेकिन मुंबइया फिल्मों में भोजपुरी का प्रवेश गीतों के माध्यम से पहले ही हो चुका था। वर्ष 1948
में किशोर साहू के निर्देशन में बनी फिल्म 'नदिया के पार' रिलीज हुई। यह फिल्म मछुआरों की जिंदगी पर आधारित थी और इसके संवाद अवधी भाषा में थे। इस फिल्म के आठ
गीत भोजपुरी में थे, जिन्हें मोती बी. ए. ने लिखा था। इन गीतों की धुन इतनी प्यारी बन पड़ी थी कि जो सुनता, सुनते ही रह जाता। राह चलते लोग खड़े होकर गीतों की
बारिश में भींगने लगते। इसी तरह 1951 में बनी 'माया' तथा 1962 में बनी 'गोदान' फिल्म में भी भोजपुरी गीत का इस्तेमाल किया गया था। दरअसल, भोजपुरी गीतों की
लोकप्रियता को भुनाने के लिए ही उसका इस्तेमाल हिंदी फिल्मों में किया जाता था। यानी भोजपुरी गीत हिंदी फिल्मों की सफलता की सीढ़ी हुआ करती थी।
हिंदी फिल्मों के माध्यम से भोजपुरी गीतों की खुशबू तो जरूर फैल रही थी, लेकिन कोई निर्माता संपूर्ण भोजपुरी फिल्म बनाने को तैयार नहीं था। बहरहाल, वह शुभ घड़ी
आखिरकार आ ही गई, जिसका इंतजार एक लंबे समय से किया जा रहा था। छठें दशक के शुरुआती दिन थे। खांटी भोजपुरिया नाजिर हुसैन भोजपुरी में फिल्म बनाने के लिए बेचैन
थे। इसकी प्रेरणा उन्हें भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद से मिली थी। इस सिलसिले में नाजिर हुसैन अनेक निर्माताओं से मिले, लेकिन सभी ने उन्हें
हतोत्साहित ही किया। बहुत प्रयास के बाद उन्हें एक निर्माता तो मिला, लेकिन कहानी सुनने के बाद उसने कहा कि कहानी अच्छी है, लेकिन बेहतर यही होगा कि आप इसे
हिंदी में बनाइए। उसकी इस बात पर नाजिर हुसैन का जवाब था, 'फिलिमवा तो बनबे करी बाकी भोजपुरिए में बनी (फिल्म तो बनेगी ही, लेकिन भोजपुरी में ही बनेगी)।' इसके
बाद नाजिर हुसैन 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो' की स्क्रिप्ट लेकर निर्माताओं के दरवाजे खटखटाने लगे और आखिरकार विश्वनाथ शाहाबादी के रूप में उन्हें भोजपुरी
फिल्मों का पहला निर्माता मिल ही गया। इस फिल्म के निर्देशक बने कुंदन कुमार, जबकि नायक-नायिका के रूप में सुजीत कुमार और कुमकुम का अवतार हुआ। इसके गीत लिखे थे
महान गीतकार स्वर्गीय शैलेंद्र ने और संगीत से संवारा था चित्रगुप्त ने। 16 फरवरी, 1961 को पटना के शहीद स्मारक में इस फिल्म का मुहूर्त समारोह संपन्न हुआ और
दूसरे दिन से इसकी शूटिंग शुरू हो गई। फिल्म के लिहाज से यह भोजपुरी की एक लंबी छलांग थी और इसी के साथ नाजिर हुसैन को भोजपुरी फिल्म के पितामह की पदवी मिल गई।
1962 में रिलीज हुई और महज पाँच लाख रुपए में बनी इस फिल्म ने 75 लाख रुपए की कमाई की। यह फिल्म जबर्दस्त रूप से सफल रही। लोगों ने इसे सर आँखों पर लिया। इसकी
लोकप्रियता का आलम यह था कि इसे देखने के लिए गाँव-गाँव से बहू-बेटियाँ बैलगाड़ियों में बैठकर शहर के सिनेमा हॉल्स में जाती थीं। जहाँ तक गीतों की बात है, तो वे
इतने सुमधुर और कर्णप्रिय थे कि सुनने से लोगों का मन ही नहीं भरता था। इस फिल्म के गीतों से पूरा उत्तर भारत गुँजायमान हो उठा।
'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो' की सफलता से प्रेरित होकर अनेक निर्माताओं ने भोजपुरी फिल्मों का रुख किया और कई फिल्मों का निर्माण किया, 'जैसे लागी नाहीं छूटे
रामा', 'हमार संसार', 'बिदेसिया', 'मीतवा', 'कब होइहें गवनवा हमार', 'नइहर छुटल जाए', 'भौजी' आदि लेकिन 'लागी नाहीं छूटे रामा' और 'बिदेसिया' को छोड़कर अन्य
फिल्मों को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। बहरहाल, कुल मिलाकर भोजपुरी फिल्मों की सफलता का दौर जारी रहा। इस दौर की फिल्मों की सफलता का कारण यह था कि वे भोजपुरी
वातावरण में रची-बसी थीं और उनमें गँवई संस्कृति को सूक्ष्मता से दर्शाया गया था। इन फिल्मों में गीत-संगीत, खेत-खलिहान और खेल से लेकर मुहावरे, लोकोक्तियाँ और
कहावतें भोजपुरी अंचल के जीवंत दस्तावेज की तरह हैं। इतना ही नहीं, ये फिल्में सार्थक संदेश देने में भी कामयाब रहीं। संक्षेप में कहें तो इस दौर की फिल्मों में
भोजपुरिया माटी की सोंधी खुशबू थी, जो अनायास लोगों को अपने से जोड़ लेती थी। नाजिर हुसैन की 'हमार संसार' तो एक ऐसी फिल्म थी, जो किसी हिंदी कला फिल्म से कतई
कमतर नहीं थी, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर वह कोई कमाल नहीं कर पाई। इस फिल्म में चित्रित यथार्थ को दर्शक स्वीकार नहीं पाए और फिल्म फ्लॉप हो गई। यह भोजपुरी फिल्म
निर्माताओं के लिए एक ऐसा झटका था कि इसके बाद किसी भी निर्माता ने लीक से हटकर फिल्म बनाने की कोशिश नहीं की। इसका परिणाम यह हुआ कि भोजपुरी यथार्थ पर आधारित
फिल्म बनाने की संस्कृति भोजपुरी में पनप ही नहीं पाई। इसके विपरीत भेड़चाल वाली फिल्मों का बाजार बढ़ता रहा।
भोजपुरी फिल्मों का दूसरा दौर (1967 से 1976) बड़ा ही निराशाजनक रहा। इस काल खंड में भोजपुरी फिल्में लगभग अनुपस्थित रहीं। ऐसा लगने लगा, जैसे भोजपुरी सिनेमा की
मौत हो गई। वैसे सच तो यह है कि इस दौरान हिंदी सिनेमा उद्योग भी मंदी के दौर से गुजर रहा था। इसके अलावा सिनेमा के क्षेत्र में अनेकानेक प्रयोग हो रहे थे।
हिंदी सिनेमास्कोप और 70 एमएम की फिल्में बनने लगीं थीं और निर्माण भी महंगा हो गया था। यह रंगीन फिल्मों का दौर था। भोजपुरी सिनेमा इस बदलती दुनिया के साथ कदम
से कदम मिलाकर चलने की ताकत पैदा करने में नाकामयाब रहा। जिस तकनीकी बदलाव की जरूरत थी, उसके लिए भोजपुरी निर्माताओं के पास पर्याप्त धन नहीं था, इसलिए भोजपुरी
फिल्में पिछड़ती गईं लेकिन उनके पिछड़ने का सबसे बड़ा कारण था विषय-वस्तु का दोहराव। लगभग हर फिल्म की पटकथा एक जैसी होने लगी। ऐसे में दर्शक भोजपुरी फिल्मों से
ऊब गए और उन्हें देखना बंद कर दिया। 1967 से लेकर 1977 तक भोजपुरी फिल्मों का बाजार ठप ही रहा। अब भोजपुरी फिल्म निर्माताओं को इस तथ्य का पूरी तरह एहसास हो गया
कि यदि उन्हें बाजार में टिकना है, तो नई तकनीक अपनाने और रंगीन फिल्म बनाने के सिवा उनके पास कोई अन्य राह नहीं है। लेकिन इस कठिन राह पर चलने के लिए अधिकांश
निर्माता तैयार नहीं थे। ऐसे समय में यह जिम्मेदारी उठाने का जोखिम लिया बच्चू साह ने, जिन्होंने 'बिदेसिया' फिल्म बना कर काफी नाम कमाया था। बच्चू साह ने सुजीत
कुमार और मिस इंडिया प्रेमा नारायण को लेकर 1977 में दंगल फिल्म का निर्माण किया। यह भोजपुरी की पहली रंगीन फिल्म थी और इसी के साथ भोजपुरी फिल्मों का दूसरा दौर
भी शुरू हो गया,जो 1982 तक चला। चूँकि एक लंबे अर्से के बाद कोई भोजपुरी फिल्म आई थी और वह भी रंगीन, लिहाजा दंगल ने बॉक्स ऑफिस पर भी दंगल जीत लिया। नदीम-श्रवण
के संगीत ने सोने में सुहागा का काम किया। फिर क्या था, भोजपुरी फिल्म निर्माण का सिलसिला एक बार फिर शुरू हो गया और देखते ही देखते 'बलम परदेसिया', 'धरती मइया'
और 'गंगा किनारे मोरा गाँव' जैसी भोजपुरी फिल्में सुनहले पर्दे पर धमाल मचाने लगीं। भोजपुरी फिल्मों के दूसरे दौर का सफर काफी कामयाब रहा और फिल्मों ने खूब कमाई
की। इसके साथ ही भोजपुरी फिल्मों का फलक बड़ा होने लगा। अब भोजपुरी फिल्में उन जगहों पर भी दिखाई जाने लगीं, जहाँ पहले उनका कोई वजूद नहीं था। इस दूसरे दौर में
सैकड़ों फिल्में बनीं और कुछ फिल्मों ने जबर्दस्त व्यावसायिक सफलता भी अर्जित की, लेकिन कुल मिलाकर इसे बुरा दौर कहना ही उचित होगा। 1983 में ग्यारह फिल्में
बनीं, जबकि 1984 में नौ, 1985 में छह और 1986 में 19 फिल्में बनीं। इनमें से मोहन प्रसाद की 'हमार भौजी', राज कटारिया की 'भैया दूज', लालजी गुप्त की 'नइहर के
चुनरी', मुक्तिनारायण पाठक की 'पिया के गाँव' और रानीश्री की 'दुल्हा गंगा पार के', ने बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी के परचम लहराए। इस सफलता के बावजूद इस दौरान
भोजपुरी फिल्में सिनेमा हॉल्स में कब लगीं और कब उतर गईं, पता ही नहीं चलता था। जो फिल्में चलीं भी, वे इसलिए नहीं चलीं कि उनकी कथावस्तु विशेष थी या उनमें कोई
कमाल था, बल्कि सिर्फ इसलिए चलीं कि उनके गीत-संगीत कर्णप्रिय थे।
भोजपुरी फिल्मों का तीसरा और वर्तमान दौर 2003 में मनोज तिवारी तथा रानी चटर्जी अभिनीत 'ससुरा बड़ा पैसे वाला' से शुरू होता है। इस फिल्म ने व्यावसायिक सफलता के
सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर डाले। महज 30 लाख रुपए की लागत से बनी इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 9 करोड़ रुपए बटोरे। 'ससुरा बड़ा पैसे वाला' की सफलता से प्रेरित होकर
मोहनजी प्रसाद ने रवि किशन को लेकर 'सैयाँ हमार' और 'सैयाँ से कर द मिलनवा हो राम' फिल्में बनाईं। ये फिल्में हिट रहीं, लेकिन उनकी अगली फिल्म 'पंडित जी बताईं
ना बियाह कब होई' को दर्शकों ने सिर-आँ खो पर बिठाया। भोजपुरी फिल्मों की सफलता की कहानी अब हिंदी फिल्मी कलाकारों तक पहुँचने लगी और वे भोजपुरी फिल्मों की ओर
रुख करने लगे। अमिताभ बच्चन, अजय देवगन, जूही चावला, मिथुन चक्रवर्ती आदि जैसे नामी-गिरामी सिने कलाकार भी अब भोजपुरी फिल्मों की ओर रुख करने लगे। सुभाष घई,
सायरा बानू और राजश्री प्रोडक्शन भोजपुरी फिल्में बनाने लगे। जो फिल्म निर्माता और अदाकार कल तक भोजपुरी फिल्मों के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ा करते थे, अब वे उसमें
अपनी सफलता और व्यवसाय की तलाश करने लगे। कोई यह न समझे कि इन कलाकारों व निर्माताओं का उद्देश्य भोजपुरी फिल्मों को बढ़ावा देना था, उनके लिए तो यह महज कमाई का
एक बेहतर जरिया था। अब भोजपुरी फिल्में अपने परिवेश से अलग अपने लिए एक नया संसार रचने लगीं। इस नए संसार की केवल भाषा भोजपुरी थी, बाकी सबकुछ अनचिह्वा और
अनजाना था। इस दौर में न सिर्फ भोजपुरी फिल्मों का बजट बढ़ गया, बल्कि उनकी शूटिंग आरा, छपरा, बलिया में न होकर सिंगापुर, हाँगकांग, लंदन और न्यूयॉर्क तक होने
लगी, दुबई में भोजपुरी की दुकान सजने लगी। अपने परिवेश और संस्कृति से कटे होने के बावजूद यदि भोजपुरी फिल्में सफल होती रहीं, तो इसका कारण यह लगता है कि
भोजपुरी अंचल ने भी वैश्विक मूल्यों को स्वीकार कर लिया है। अब इन दर्शकों को यह देखकर अटपटा नहीं लगता कि उनका हीरो बिलकुल आधुनिक परिधान में नजर आता है और
तमाम लटके-झटकों के साथ रहता है। भोजपुरी फिल्मों की सफलता से तो ऐसा लगता है, जैसे इसके सामने कोई चुनौती है ही नहीं। बहरहाल, तो क्या मान लिया जाए कि भोजपुरी
फिल्मों की राह बड़ी सुगम है और उसके पथ में कोई बाधा नहीं है
ठीक है कि भोजपुरी फिल्मों ने एक लंबा सफर तय किया है और अपने लिए जमीन भी बनाई है, लेकिन कुल मिलाकर आज भी उसका सफर प्रचार-प्रसार तक ही सीमित है। इसमें कोई शक
नहीं कि भोजपुरी फिल्मों का भूगोल बढ़ा है, लेकिन उसका समाजशास्त्र तो कुंद ही हुआ है। आज की भोजपुरी फिल्में भले ही व्यावसायिक सफलता हासिल कर रही हों, लेकिन
इस सफलता में उसकी पहचान और अस्मिता भी तिरोहित होती जा रही है। भाषा और भाव दोनों ही स्तरों पर भोजपुरी मार खा रही है। आज फिल्मों में जिस भोजपुरी भाषा का
इस्तेमाल हो रहा है, वह न जाने कहाँ की भोजपुरी है। अजीब तो यह लगता है कि भोजपुरी फिल्मों में एक ही परिवार के सदस्य अलग-अलग तरह की भोजपुरी बोलते नजर आते हैं।
इतना ही नहीं, उसे भोजपुरी कहना भी भोजपुरी भाषा का अपमान है। संवाद का तो कहना ही क्या वे इतने अश्लील और फूहड़ होते हैं कि सुनने में भी शर्म आती है।
द्विअर्थी और भोंडे संवादों के चलते भोजपुरी फिल्में अश्लीलता का पर्याय बनकर रह गई हैं। वास्तव में भोजपुरी फिल्में हिंदी फिल्मों की निकृष्ट फोटोकॉपी बन गई
हैं, जहाँ न तो संस्कृति के लिए कोई जगह है और न बेहतर करने का कोई दबाव। यही कारण है कि आज की भोजपुरी फिल्में अपने परिवेश और सामाजिक सरोकारों से पूरी तरह कटी
हुई हैं।
पहले की अपेक्षा आज अधिक भोजपुरी फिल्में बन रही हैं, लेकिन उनकी विषय वस्तु लगभग समान ही रहती है। फिल्मों की सफलता मूल रूप से आइटम सांग पर ही निर्भर करती है।
वैसे भोजपुरी फिल्मों में आइटम सांग शुरू से ही रहा है और वह भोजपुरी समाज की सहज संस्कृति से ही आई है। भोजपुरी प्रदेशों में माँगलिक या विशेष अवसरों पर
नाच-गान की एक समृद्ध परंपरा रही है। भोजपुरी फिल्म निर्माताओं ने उस परंपरा को ही फिल्मों में सजाया है। लेकिन आजकल जो आइटम सांग प्रदर्शित हो रहे हैं, वे
हिंदी फिल्मों के घटिया वर्जन लगते हैं। ऐसे में सबसे पहली जरूरत यह है कि भोजपुरी फिल्में अपनी सभ्यता, संस्कृति से संपृक्त हों और प्रगतिशील परंपराओं का
उन्नयन हो, अन्यथा उनका प्रसार तो जरूर होगा, लेकिन पैठ कभी नहीं बनेगी। भोजपुरी की सफल फिल्मों पर यदि नजर डालें, तो यह जल्दी ही स्पष्ट हो जाता है कि वे ही
फिल्में अधिक सफल रही हैं, जिनकी जड़ें भोजपुरी समाज में रही हैं। भोजपुरी फिल्मों की राह में एक बहुत बड़ी बाधा यह है कि भोजपुरी प्रदेशों में फिल्म शूटिंग की
कोई सुविधा नहीं है। यानी भोजपुरी फिल्मों ने अपने लिए ढांचागत सुविधाएं जुटाने में नाकामयाब रही है। हिंदी फिल्मों की तरह भोजपुरी फिल्मों का निर्माण भी मूल
रूप से मुंबई में ही होता है। उनके सारे तकनीशियन्स, कलाकार आदि हिंदी फिल्मों से ही आते हैं। इन कलाकारों, तकनीशियन्स को भोजपुरी से कोई भावनात्मक लगाव तो होता
नहीं, इसलिए वे भाषा की शलीलता और उसके गौरव को स्थापित करने का कोई प्रयास भी नहीं करते। भाषा का संबंध भावना से है, लेकिन अब भोजपुरी फिल्मों से जुड़े लोगों
का भावना से दूर-दूर तक का रिश्ता भी नहीं है, उनके लिए वह महज एक कमाई का जरिया है। ऐसे में भाषा के साथ खिलवाड़ करने से भी उन्हें कोई गुरेज नहीं रहता। भाषा
की शुचिता ही भावों की शुचिता का निर्माण करती है। इसमें कोई बुराई नहीं कि आज भोजपुरी में बड़ी मात्रा में फिल्में बन रही हैं, लेकिन इसके साथ ही यह देखना भी
जरूरी है कि सफलता की आँ धी में कहीं भोजपुरी का शामियाना ही न उखड़ जाए। इस शामियाने को सुरक्षित रखने के लिए उसके पाए भोजपुरी की पुख्ता जमीन में ही गड़े होने
चाहिए। दुर्भाग्य है कि ऐसा नहीं हो रहा है। सफलता उत्कृष्टता की गारंटी नहीं होती, लेकिन यदि उत्कृष्टता का खयाल रखा जाए, तो सफलता की गारंटी अवश्य मिल जाती
है। क्या भोजपुरी फिल्मों के हमारे निर्माता, निर्देशक और कलाकार ऐसा करने के लिए तैयार हैं सबसे बड़ी बात यह है कि समुदाय विशेष की छवि बनाने में भाषा की बहुत
बड़ी भूमिका होती है। जिस तरह की आप भाषा बोलेंगे, देश-दुनिया में आपकी छवि भी वैसी ही बनेगी। यदि भोजपुरी फिल्में अश्लीलता और फूहड़ता परोसेगी, तो दुनिया में
भोजपुरी भाषा-भाषियों की छवि भी अश्लील ही बनेगी। उम्मीद है कि निर्माता, निर्देशकों और कलाकारों की आनेवाली पीढ़ियाँ इस बात को लेकर सचेत होंगी और भोजपुरी के
दामन पर लगा अश्लीलता का दाग धो डालेंगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और 'लोकस्वामी' पाक्षिक के कार्यकारी संपादक हैं)