जो नहीं था अपना-सा लगा एक दिन बेहद अपना-अपना-सा फिर दे गया दगा एक दिन हजार-हजार टुकड़े करके दर्पण के सोचा नहीं था कभी किसी ने कि होगा यह भी कि मारा जाएगा भरोसे में भरोसा और भस्म हो जाएगी कागज की नाव।
हिंदी समय में राजकुमार कुंभज की रचनाएँ