चट्टानों को चीरते हुए आती है नदी, स्मृति और कविता लाख हों पहरे तो क्या हुआ ? टूट ही जातीं हैं सलाखें सब नाचने लगता है मन।
हिंदी समय में राजकुमार कुंभज की रचनाएँ