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कविता

लगी है आग चारों तरफ

राजकुमार कुंभज


लगी है आग चारों तरफ
झुलसना ही रचना है किंतु हर तरफ
फिर-फिर आती है मुखरता और अधबीच
खामोशी नहीं है चीज वह जो सीधी कार्रवाई
मचलते हैं शब्द जैसे लहरें समुद्री
तो क्या मचलते समुद्र की
मचलती लहरों पर होकर सवार
तय किया जा सकता है सफर कोई ?
नैराश्‍य किसलिए ?
जादूगरी किसलिए ?
शब्द-बाण किसलिए ?
आत्म-सम्मान के विरुद्ध
आत्म-समर्पण किसलिए ?
इससे तो बेहतर है मर जाना
और सीने पर गोली खाना
झुलसना ही रचना है, किंतु हर तरफ
लगी है आग चारों तरफ

 


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