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ब्रह्म गरमा गया
बाड़ खाती खेत, फाइल को
प्रशासक,
ठाकुर का खटोला पंडित
भूमि को खा रहा सैनिक।
इतिहास मथ कर निकाल रहे विष
अतीत से अंधकार वर्तमान नर्काकार
जो भविष्य वाणी कहे कलाहीन कलिकाल।
भय के व्यवसायीगण घृणा के छान लगाने वाले
अनिच्छुक यात्रियों की नाव की पतवार थाम
हमें हम से दूर ले गए हैं
जिन्हें हम दिशा पूछ लेते
वे उन्हें दिवंगत घोषणा कर
मूर्ति बना चुके।
हम चाहते थे रामचंद्र
मिली अनफूली अयोध्या
हम चाहते थे प्राण
मिला भी नहीं प्रिय प्रयाण।
सोचा था जो नींद से जगा
फूल बनने ले रहे वे
हमारे सहृदय सतीर्थ हैं,
वास्तव में वे थे भयंकर
समय समाप्त।
अब और होगा नहीं
क्रोध शाश्वत हो गया
कुछ तो करना होगा
जगत न हुआ न सही
अपना तो उद्धार कर सकेंगे!
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