कुछ ऐसी कृतियाँ होती हैं जिन्हें देख या पढ़कर अपनी किसी पुरानी और दबी ढकी बात की याद स्वाभाविक रूप से आ जाती है। शायद जो स्मृतियाँ हमारे मनोलोक में स्थायी रूप से बस जाती हैं, वे कुछ रिफ्लेक्शंस के सामने आते ही एक नई दुनिया से ऐसे संश्लिष्ट हो जाती हैं, जैसे हम विचारों के एक विशाल कैनवास पर कोई अनवरत छवि-चित्र देख रहे हों।
'शिप ऑफ थेसस' ने मुझे पोलिश निर्देशक क्रिस्तॉफ किज्लोव्स्की की मास्टरपीस श्रृंखला 'द डिकेलॉग' (The Decalogue) की याद दिला दी, जिसके हर एपिसोड में दस धर्मादेशों (Ten Commandments) में से एक एक मनोभाव को नैतिक परिप्रेक्ष्य से, विषय बनाया गया है और उसे रोजमर्रा की सामान्य जिंदगी में ढाल कर दरशाया गया है। यह फिल्म भी उसी तरह चरित्रों के नैतिक अंतर्विरोधों से भिड़ती है। दोनों फिल्मों की खासियत और समानता यह है वे बिना किसी आग्रह और उपदेश के जिंदगी से जुड़े कुछ सवालों को बहुत खूबसूरती से उठाती हैं। आप अगर अपने आसपास को बेहतर बनाने के बारे में सोचते हैं तो उन सवालों से उलझे बिना नहीं रह सकते।
'शिप ऑफ थीसियस' ने मुझे अनेक स्तरों पर झंकृत कर दिया जिसके कारण मैं तुरंत कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर पाई। कुछ ऐसे सवाल जिनका सरल निष्कर्ष या जवाब आपके पास नहीं होता। जिसके लिए आप ठहर कर सोचने लग जाते हैं। यह फिल्म आपके भीतर पैठने के लिए समय की माँग करती है क्योंकि विचलित करने वाले सवालों के जवाब आसान नहीं होते। कुछ मित्रों ने फिल्म देखी और अपनी आपत्तियाँ दर्ज कीं... फिल्म बहुत ही स्लो पेस में चलती है। एडीटिंग बेहतर हो सकती थी। कुछ कहानियाँ अवास्तविक हैं आदि-आदि। मैं इन आपत्तियों और आकलनों से सहमत हूँ। लेकिन ये आकलन सिनेमा को मनोरंजन के तौर पर देखने और वैसी ही अपेक्षाएँ रखने के कारण हैं। अगर कैमरा कुछ सेकेंड देर तक किसी चीज पर ठहर जाता है तो हम कुलबुलाने लगते हैं। हमारी आँखें मुख्यधारा की 'साफ-सुथरी' तेज गति वाली बॉलीवुड फिल्मों की आदी हैं जिसकी 'फास्ट पेस' हमें जरा भी नहीं चुभतीं। लेकिन इस तरह की गैर-मुख्यधारा वाली फिल्में हमारी आदतों के विपरीत होती हैं और हमारी उदासीनता, अविश्वास और उपेक्षा का सहज शिकार बन जाती हैं। इस मामले में, यही कहना चाहूँगी कि ऐसे दर्शक, फिल्म की बारीकी, उसके प्रभाव और संदेश से, महरूम ही रह जाते हैं।
फिल्म में तीन अलग अलग कहानियाँ हैं जो हमारी संवेदना को जगाती हैं। पहली कहानी में एक दृष्टिहीन फोटोग्राफर आलिया है जो अपने स्पर्श और आवाज के संवेदनों के जरिए अपना काम करती है (इसमें उसका मित्र भी पूरी तरह सहयोग देता है) वह विस्मयकारी प्रतिबिंबों की सर्जना करती है। एक प्रेस रिपोर्टर उसका साक्षात्कार लेती है तो कलाकार के भीतर यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से सिर उठाने लगता है कि उसे उसकी प्रतिभा के कारण सराहा जाता है या उसकी विकलांगता के कारण रियायत दी जा रही है। लंबे समय से प्रतीक्षित कॉर्निया ट्रांसप्लांट पूरा होता है लेकिन दृष्टि पाते ही, यह बदलाव एक लंबे समय में ध्वनि और स्पर्श के जरिए बनी उसकी दुनिया, अपने पर्यावरण के साथ उसके जुड़ाव और एकात्मकता को छिन्न-भिन्न कर देता है। दृष्टि पाने की प्रक्रिया में वह अपनी अंतर्दृष्टि, अपना विजन, खो देती है। मिस्री अभिनेत्री आयेदा अल-काशेफ ने अपने कमाल के अभिनय से इसे यादगार बना दिया है। फिल्म के अंतिम दृश्य में आलिया दृश्यमान जीवन जगत से जुड़ी और मुब्तिला दिखती है पर कॉर्निया प्रत्यारोपण के बाद की सभी गतिविधियाँ गायब हैं। कैमरा इसे ऐसे दिखाता है गोया फोटोग्राफर वहाँ आउटसाइडर है। हाँ, देखने की नियामत मिल जाने के बाद जब वह उछाल मारते पानी और मोहक प्रकृति को निहार रही है, अचानक उसके कैमरे का लेंस जब पानी में गिर जाता है, वह बिना विचलित हुए स्थितप्रज्ञ भाव से कैमरे को अपने बैग में बंद कर रख देती है। अब उसके जीवन में बिना दृष्टि के कैप्चर की हुई तस्वीरें आँखों के जरिए उसके सामने हैं।
दूसरी कहानी संभवतः सबसे प्रभावशाली है। फिल्म समीक्षकों से इसे काफी सराहना मिल चुकी है। इस कहानी में कई आयाम इतनी खूबसूरती से उठाए गए हैं कि उन्हें विस्तार देते हुए सिर्फ इसी थीम पर एक मुकम्मल फीचर फिल्म बनाई जा सकती थी। अपनी आस्थाओं से संचालित एक बेहद आत्मीय और गैर उपदेशक के रूप में श्वेतांबर जैन भिक्षु मैत्रेय सामने आते हैं जो अपने नजरिए में तर्कसंगत और हँसोड़ भी हैं। इस कहानी का मूल तत्व निश्चित रूप से किसी भी प्राणी पर हिंसा की वर्जना है - वीगन होने से लेकर दवा और कॉस्मेटिक्स कंपनियों द्वारा जीव जंतुओं पर किए गए त्रासद परीक्षण का प्रतिकार ही इसका मूल है। इसे बेहद खूबसूरती से फिल्माया गया है। इस सधी हुई और परतदार कहानी में हिंसा के प्रतिकार के मूल तंतु के साथ साथ कई उपकथाएँ और समानांतर विचार चलते हैं।
आज के आधुनिक माहौल में हम अक्सर ऐसा जीवन जीते हैं जो हमारी मान्यताओं से मेल नहीं खाता पर हमें इसका एहसास तक नहीं होता। हम ग्लोबल वार्मिंग और बढ़ते तापमान के लिए परेशान होते हैं पर हवाई जहाज से यात्रा करने या महज शगल के लिए कार को लंबी डाइव पर ले जाने से पहले दो बार नहीं सोचते। हम दूसरों से उम्मीद करते हैं कि वे कार्बन एमिशन कम करें पर अपनी जिंदगी में कोई समझौता करने को तैयार नहीं होते। लोग शहरों में बढ़ते ट्रैफिक जैम की शिकायत करते हैं पर शोफर चालित एक बड़ी कार में अकेले बैठ कर इत्मीनान से दफ्तर तक की यात्रा करते हैं। हम अपने शहर को साफ-सुथरा देखना चाहते हैं पर अपने घर का कचरा बाहर फेंकने में पर्याप्त लापरवाही बरतते हैं जिससे हमारे शहर से बाहर ग्रामीण क्षेत्रों के गड्ढे अँटे पड़े हैं। यह सूची अंतहीन है। अक्सर हम बिखरे हुए बिंदुओं को जोड़ पाने में असमर्थ रहते हैं क्योंकि हम इस समस्या को उसकी समग्रता में नहीं देख पाते कि कैसे हमारी रोजमर्रा की गतिविधियाँ एक बड़ी समस्या का हिस्सा हैं और हम उस समस्या के कारक हैं और जब तक हम इसे बदलेंगे नहीं, समस्याएँ बनी रहेंगी। फिर भी बहुत से ऐसे लोग हैं जो लगातार इस कोशिश में हैं कि जैसी दुनिया वे चाहते हैं और जैसा जीवन वे जीते हैं, के बीच की खाई को पाटा जा सके। इस विचार के चरम पर जैन साधु मैत्रेय खड़े दिखते हैं जो अपनी आस्था से जरा भी डिगते नहीं। अपनी आस्था के लिए जीवन का उत्सर्ग करने को तैयार हैं पर समझौता नहीं। समझौता अंततः वह भी करते हैं पर अपनी अंतरात्मा के साथ एक बीहड़ संघर्ष के बाद ही।
युवा वकील (चार्वाक या हेडोनिज्म का प्रतिनिधि) मैत्रेय की आस्थाओं के विलोम या पूरक के रूप में सामने आता है और दोनों के संवाद उस अंतर्द्वंद्व को सामने लाते हैं जो हममें से हरेक अपनी आस्थाओं और क्रियाओं के बीच देखता है। आज के समय में मैत्रेय की तरह रहना असंभव है और समझौता हमें करना पड़ता है। हम अपने चुनाव को तार्किक ठहरा सकते हैं मुनि के शिष्य की तरह कि एक व्यक्ति के करने से इतना बड़ा जगत कैसे बदलेगा। अपनी निष्क्रियता के औचित्य को सही ठहराने के लिए हम अपने आप से यही कहते भी हैं।
हम अपने घर का कूड़ा कचरा अलगा कर फेंके तो भी क्या, हमारा पड़ोसी तो ऐसा नहीं करता। पानी की एक एक बूँद बचाकर हम क्या कर लेंगे जब पूरा का पूरा मोहल्ला पानी की बेकद्री करता है। हम भूल जाते हैं कि आखिरकार समूह, छोटे छोटे कणों से ही तैयार होता है और हमारी हर क्रिया का गहरा निहितार्थ है।
जैन साधु मैत्रेय के रूप में नीरज कबि आश्वस्त करता है। गहरे और अर्थपूर्ण संवाद बोलते हुए उसकी आँखों में चमक देखी जा सकती है। जैन मुनि और उसके शिष्य के बीच बोले गए संवाद निश्चित रूप से फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है। इस कहानी में कुछ बेहद बारीक किस्म के ऑब्जर्वेशन हैं। मुनि मैत्रेय का एक साथी जब श्रोताओं को दान के औचित्य पर उपदेश देता है, मैत्रेय अपना असंतोष और विरक्ति जाहिर करते हैं। इस कहानी की खूबसूरत परिणति इसके अंतिम दृश्य में है जब विशाल पवनचक्कियों और विद्युत संचरण वाले टावरों से घिरे भूखंड में साधुओं का जत्था धीरे धीरे आगे बढ़ा जा रहा है। यह दृश्य बहुत धीमा और निस्तेज है - दर्शक को मुनि और शिष्य के बीच पिछले दृश्य में हुए गहन संवादों से बाहर निकालने के लिए पर्याप्त अवकाश देता हुआ।
मुनियों का जत्था अपने गंतव्य पर पहुँच जाता है, दूरदराज स्थित एक मठ में। अपने आराम करने के लिए मुनि जमीन पर कपड़े का एक टुकडा फैला देता है और उस पर लेट जाता है। दर्शकों के सामने यह सवाल छोड़ता हुआ कि वास्तव में हमें आखिर कितना ज्यादा या कितना कम चाहिए - एक अर्थपूर्ण सार्थक जिंदगी जीने के लिए। सवाल बहुत बड़ा है पर अनकहे में कहा गया है इसलिए शायद बहुत से दर्शकों तक संप्रेषित नहीं हो पाता।
पहली दो कहानियाँ कुछ विशिष्ट चरित्रों की विशिष्टताओं के साथ एक 'लार्जर दैन लाइफ' इमेज का खाका बुनती हैं पर इसके विपरीत तीसरी कहानी का चरित्र नवीन 'रन ऑफ द मिल' के तहत एक आम मध्यवर्गीय शेअर दलाली करने वाला व्यवसायी है जो अपनी दादी की निगाह में, आज की भौतिकवादी दुनिया में, बस पैसे कमाने की दौड़ में लगा है। समाज को कुछ लौटाने में जिसका कोई योगदान नहीं है। दोनों की दो दुनिया हैं। दादी ने अपने तईं समाज के लिए जो किया है, उस तरह के सामाजिक कार्यों से दादी की पीढ़ी के कई लोग अपने को रिलेट कर सकते हैं पर नवीन, जिसे सोहम शाह ने बखूबी निभाया है, अपने भौतिकवाद पर उठी उँगली को वापस दादी की ओर यह कह कर लौटा देता है कि अपने समय में अपने तथाकथित सामाजिक कार्यों के चलते वे ऐसा कौन सा बदलाव ले आईं। यह चोट वाकई तीखी है।
अस्पताल में अपनी दादी की सेवा करते हुए अचानक उसकी मुठभेड किडनी चोरी की भयावह घटना से होती है जो उसे अपने सुरक्षित जोन से बाहर आने और सोचने पर मजबूर करती है। वह इस चोरी की तह तक पहुँचने के लिए ग्लोब के दूसरी ओर पहुँच जाता है, जो काफी हद तक एक अवास्तविक और बुना हुआ सिनेरियो लगता है। कुछ अनचाहे मोड़ों और दोराहों के बाद वह फिर अस्पताल में अपनी दादी के सिरहाने है जो अंततः इस धारणा को पुख्ता करता है कि हर व्यक्ति की छोटी सी कोशिश भी मायने रखती है और चाहे कितना भी मामूली दिखे, हर छोटा कदम एक बदलाव सामने लाता है। दुनिया रहने के लिए एक बेहतर जगह बन जाती है अगर आप समस्याओं से मुँह चुराकर दूसरी तरफ देखने की जगह उसे बदलने की एक छोटी सी कोशिश में अपने को खपा देते हैं। हर आम आदमी की यह कोशिश आशा का नन्हा सा संदेश दे जाती है।
तीनों कहानियाँ अंत में एक छत के नीचे आकर जुड़ जाती हैं। यह फिल्म अपने अंगदान के संदेश से बहुत आगे जाती है। फिल्म के नाम के माध्यम से जबरन एक पहेली रच दी गई है जो न जरूरी है, न उपयुक्त। थीसियस के पैराडॉक्स में कहानियाँ बहुत ढीले रूप में ही जुडती है। मैं इस जहाज को एक साँस लेते, जिंदा प्लैनेट, धरती के रूप में ही देखती हूँ जिसका एक अणु हमारा घर है जहाँ हम रहते हैं और जिसकी हर इकाई के छोटे छोटे क्रियाकलापों का इस समग्र प्लैनेट पर भरपूर प्रभाव डालता है।
फिल्म की सफलता इसी में है कि तीनों कहानियों को हर दर्शक अपनी तरह से आविष्कृत और विश्लेषित करता है - बिल्कुल वैसे ही जैसे एक अच्छी किताब आपके भीतर की कल्पना को आपकी अपनी कूवत और कल्पनाशक्ति जितना ही वितान रचने के लिए आकाश और अवकाश देती है। यही एक बड़े सिनेमा का मानक है कि हर दर्शक अपने व्यक्गित अनुभवों के रंग में इसे गुने और अपनी भूमिका को चुने। निर्देशक आनंद गांधी ने इसे खूबसूरती से बुना है।