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सिनेमा

धूसर दुनिया के अलस भोर का फिल्मकार : मणि कौल

अमरेन्द्र कुमार शर्मा


मणि कौल (25 दिसंबर 1944 - 6 जुलाई 2011) के बारे में लिखते हुए और अभी-अभी दुबारा 'सतह से उठता आदमी' देखते हुए मुझे पुर्तगाली कवि अल्बेर्तो काइरो (1889-1915) की 'यदि मेरे मरने के बाद' कविता की पंक्तियाँ बार-बार याद आ रही हैं -

'मेरे बारे में बड़ी आसानी से लिखा जा सकता है,
मैं पागलों की तरह जिया
मैंने बिना भावुकता के चीजों को प्यार किया
मुझे कभी भी ऐसी कोई लालसा नहीं रही
जिसे मैं पूरा न कर पाया
क्योंकि मैं कभी अंधा नहीं हुआ'

मणि कौल का जीवन और फिल्में बहुत जटिल या संश्लिष्ट नहीं रही हैं, उनकी फिल्मों को जटिल, कठिन और संश्लिष्ट बताए जाने की रवायत जरूर रही है। यह रवायत बहुत फायदेमंद रही है उन व्यापारियों (फिल्मकारों) के लिए जिन्होंने सेलुलाइड की रोशनी में ही दुनिया को जाना और पूँजी को अपना ईश्वर समझा। मणि कौल के समूची फिल्मी सफर को ध्यान से देखने पर यह पता चलता है कि मणि कौल साहित्य, समाज और सिनेमा के संवादधर्मी चेतना के फिल्मकार हैं, जहाँ पूँजी का बाजार अपने सड़ते और वीभत्स रूप में हमारे सामने कई-कई अर्थ छवियों के साथ सामने आता है। दरअसल, सिनेमा दो तरह से बनाया जा सकता है; एक तो वह जो अपने समय के प्रचलित तरीके से, दौड़ में शामिल होते हुए बनाया जाए और दूसरा वह जिसमे अपनी राह खुद बनाए और नए-नए रास्ते ढूँढ़े, नए बिंबों और सिनेमा के नए मुहावरों को सृजित करे। मणि कौल दूसरे रास्ते के सृजनकर्ता रहे हैं। इसे अतिशयोक्ति कि तरह मैं नहीं कह रहा हूँ कि मणि कौल की फिल्में ऊँघते समाज को झकझोरने और जगाने वाली फिल्में हैं जिनमें पुनर्जागरणकालीन रोशनी की लौ है। इसलिए मणि कौल के बारे में लिखना एक रोशनी के बारे में लिखना है।

मणि कौल के पैदा होने के ठीक पचास बरस पहले 1896 में जब दुनिया की पहली फिल्म 'एराइवल ऑफ ए ट्रेन एट कोवैत्ल स्टेशन' लुइमेर ब्रदर्स द्वारा बनाई गई तो कौन जानता था की भारत में मणि कौल जैसे फिल्मकार 'पर्दे पर चलती हुई ट्रेन को देखकर' एक दिन सिनेमा का 'नया और पारदर्शी पर्दा' का इतिहास रचेंगे जो सिने-इतिहास के प्रचलित अर्थों से भिन्न होगा और जहाँ कला की खूबसूरती से पहले कला की सच्चाई पर ध्यान दिया जाएगा। 1907 में जे.एफ. मदान द्वारा कलकता में देश का पहला सिनेमा हॉल 'एलिफिस्टन पिक्चर पैलेस' जब खोला गया तो कौन जानता था कि इक्कीसवीं सदी में बड़े-बड़े मल्टीप्लेक्स खुल जाने के बाद भी छोटी और गंभीर फिल्मों को प्रदर्शन के लिए अंतहीन इंतजार में रहना होगा। जब 1937 में भारत की पहली रंगीन फिल्म 'किसान कन्या' जिसकी पटकथा और संवाद अपने समय के मशहूर लेखक सआदत हसन मंटो ने लिखी थी तब यह कौन जानता था कि आने वाले समय में भारतीय सिनेमा का रजत पट्ट श्वेत-श्याम की पारिभाषिकी से अलग इक्कीसवीं सदी तक आते-आते रंगीन दुनिया का एक नया पूँजीवादी इतिहास रचेगा, और मणि कौल जैसे फिल्मकारों के लिए यह इतिहास और धूसर होता जाएगा। मणि कौल की पहली फिल्म 'उसकी रोटी' ( 1969) थी। इस फिल्म को भारतीय फिल्म की तकनीक में परिवर्तन के लिहाज से एक 'डिपार्चर' माना गया, इस फिल्म के लंबे-लंबे शॉट एक दूसरी किस्म के लय का निर्माण करते हैं जिसकी तुलना आज की पापुलर फिल्म से नहीं की जा सकती। इसी फिल्म के लिए पहली बार मणि कौल को फिल्मफेयर क्रिटिक एवार्ड भी दिया गया। (वर्तमान दौर में जब कि पुरस्कारों और सम्मानों के लिए रोज आक्टोपसीय दाँव-पेंच और स्वयं को प्रायोजित करने के लिए 'बहुअर्थी निवेश' किए जा रहे हों ऐसे में मणि कौल के लिए किसी भी तरह के पुरस्कारों का उल्लेख करते हुए हिचकिचाहट होती है।) मणि कौल द्वारा मोहन राकेश के नाटक 'आषाढ़ का एक दिन' ( 1971) पर बनाई फिल्म एक अविस्मरणीय फिल्म है, विजयदान देथा कि कहानी पर 'दुविधा' ( 1973) स्त्री मनोविज्ञान की छानबीन करता है, विजय तेंदुलकर के नाटक पर 'घासीराम कोतवाल' पर इसी नाम से बनी फिल्म (1974) समाज की सड़ांध को उकेरती है, मुक्तिबोध की कविता 'सतह से उठता आदमी' पर इसी नाम से बनी फिल्म (1980), 'ध्रुपद' ( 1982), 'माटी मानस' (1984), 'नजर' ( 1989), ठुमरी गायिका सिद्धेश्वरी के जीवन पर एक बेहतरीन डाक्यूमेंट्री 'सिद्धेश्वरी' (1989), 'इडियट' (1992 ), विनोद कुमार शुक्ल के चर्चित उपन्यास 'नौकर की कमीज' (1999 ) नए रंग-ढंग कि फिल्म जिसमें मध्यवर्गीय जीवन पद्धतियाँ और स्थितियाँ सृजित हुई है, 'भोज' ( 2000) और अपने जीवन के आखिरी दिनों में विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ' दीवार में एक खिड़की रहती है' पर सोचते हुए अपनी फिल्मी यात्रा पूरी की, जबकि मणि कौल मानते थे कि यात्रा कभी पूरी नहीं होती, होनी भी नहीं चाहिए।

मणि कौल और उनकी फिल्मों के बारे में बात करने और उनकी फिल्मों को देखने के तरीके का संदर्भ हमे मणि कौल की विचार-यात्रा में मिलता है। यह बेहतर होगा की हम मणि कौल की विचार-यात्रा को समझने की कोशिश करें, उनकी सिनेमा की तरफ जाने के रास्ते इन्ही विचारों से होकर गुजरते हैं, मणि कौल की फिल्मों को देखने, समझने वाली नई पीढ़ी के लिए यह विचार-यात्रा बेहद महत्वपूर्ण है। हम यहाँ संक्षिप्त रूप में उसे उल्लिखित कर रहे हैं -

"जिंदगी में भी और फिल्म में भी, कि जैसे हमारी अपनी सृष्टि है, किसी और की भी अपनी सृष्टि है, लेकिन हमारी सृष्टि में वे सब मौजूद हैं, वे सारी सृष्टि। उनकी सृष्टि में हमारी सृष्टि भी है। ये एक दूसरे को काटती हैं। दुनियाएँ इंटरसेक्ट करती है। मतलब सारी दुनियाएँ मेरी दुनिया में हैं। मैं सारी दुनियाओं में हूँ, जिन-जिन का मुझमें संयोग है, कम से कम उनकी सृष्टि में तो हूँ ही। हमने समझौता करके एक औसत सृष्टि बना ली, और उस सृष्टि का आधार नैतिकी रही है। पवित्र और अपवित्र। उसके अंदर सभी पवित्र और अपवित्र के आधार पर चलते हैं।"

"एक शॉट लेते समय यह संभव नहीं है कि उस स्पेस के अंदर हम समय को इस तरह से जोड़ दें या समय में ऐसा कुछ कर दें कि वह स्वप्न लगने लगे... अक्सर जो फिल्में बनती हैं उनके लिए स्क्रिप्ट लिखी जाती है, स्क्रिप्ट के अनुसार शूटिंग की जाती है। शूटिंग के अनुसार उसकी एडिटिंग की जाती है। एडिटिंग के अनुसार उसकी रिकोर्डिंग और री-रिकार्डिंग की जाती है, और फिर प्रिंट बन जाता है। इसमें एक भारी फेलिसी (हेत्वाभास) है। जितनी फिल्में बनती है और अगर मेरी फिल्म उनसे अलग है तो उसका एक मुख्य कारण यही हो सकता है कि मेरी जो स्क्रिप्ट है उसका ताल्लुक शूटिंग से बिलकुल नहीं है, जो शॉट मेटीरियल है, उसका ताल्लुक एडिटिंग से बिलकुल नहीं है, जो एडिटेड मटेरियल है उसका साउंड से कोई ताल्लुक नहीं है।"

"मैं जो भी शूट करता हूँ सारा का सारा प्रिंट करता हूँ और वह बड़ा महँगा पड़ता है क्योंकि लोग आमतौर पर ओ.के. और एन.जी. (नॉट गुड) टेक्स्ट को अलग-अलग कर लेते हैं। वो सिर्फ उसे ही प्रिंट कराते हैं जो ठीक है, जो ठीक नहीं उसको नहीं करवाते... यह जो एन.जी. शॉट्स है जिन्हें हम नॉट गुड कहते हैं (इंग्लैंड में शायद उन्हें आउट टेक्स्ट कहते हैं) उन्हें भी मैं एन.जी. नहीं मानता क्योंकि जो भी मैंने शूट किया है, जब भी हमने कैमरा चलाया, जो भी सामने आया, सारा मटेरियल काम का है। उसमें ऐसा कुछ नहीं है जो ओ.के. हो या एन.जी. हो।"

"मैं समझता हूँ कि मेरा एक संबंध है ब्रेसों से और ऋत्विक घटक से भी। लेकिन दोनों में बहुत फर्क है। यह एक अजीब बात है कि मेरा इन दो आदमियों से कैसे संबंध है जो एक दूसरे से बिलकुल विपरीत हैं और कैसे मैं अक्सर कोशिश करता हूँ कि इन दोनों के बीच कोई संगति बिठाई जाय। इन दोनों को मैंने भीतर बैठा रखा है। भीतर दोनों ही मौजूद हैं। अब जाकर मुझे लगता है कि हल्के-हल्के 'इडियट' में यह हो रहा है कि कई सालों से भिड़े दरवाजे से ऋत्विक घटक भी आ गए हैं और ब्रेसों भी मौजूद हैं। संयम और ऐंद्रिकता दोनों को एक साथ लाना बड़ा मुश्किल काम है।"

"मुझे लगता है अब एक ऐसा समय आ गया है कि हम एक ऐसी फिल्म बनाएँ जिसके अंदर बहुत सी फिल्में हों। जैसे आप 'एट एंड हाफ' को देखें।"

"...शुरू से लेकर आज तक मेरी फिल्मों में एक बड़ा अंतर आया है। मैंने अपनी ओर से काफी कुछ नियंत्रण छोड़ दिया है। जितना नियंत्रण मैं पहले करता था, अब मैंने वह छोड़ दिया है। लेकिन आश्चर्य यह है कि नियंत्रण न करने पर भी चीज आकर अपने आप ही ऐसी जम जाती है कि लोगों को लगता है कि मैंने बहुत सोचकर ऐसे जमाया है।"

"जहाँ तक हो सके मैं री-टेक नहीं करता। अगर करना भी पड़ता है तो उसे बदल देता हूँ क्योंकि मैं वही री-टेक करना नहीं चाहता। संवाद बदल देता हूँ या कुछ और बदल देता हूँ।"

"सिनेमा क्या है? यह मालूम नहीं है लेकिन हमें मालूम है कि यह नाटकीय है। हमें यह मालूम है कि ये चित्रकलात्मक है, यह सांगीतिक है, यह साहित्यिक है। तो ये चीजें बाहर रखो। शायद जो बचा-खुचा है, वह सिनेमा है।"

"सिनेमा का सबसे बड़ा श्राप एकरैखिक नेरेटिव है। एक नेरेटिव जो यहाँ से चलकर यहाँ होता हुआ एक क्लाइमेक्स पर जाकर खत्म हो जाता है। यह जो एकरैखिक नेरेटिव है, आप समझ लीजिए, यह फिल्म के लिए सबसे बड़ा बंधन है जो साहित्य की देन है बल्कि कहिए खराब साहित्य की देन है। साहित्य भी अब बढ़ चुका है। सोलहवीं शताब्दी के बाद।" ( अभेद आकाश - मध्यप्रदेश फिल्म विकास निगम मर्यादित, संस्कृति भवन, वाणगंगा, भोपाल द्वारा प्रकाशित, से उल्लिखित।)

मणि कौल के ये विचार भारतीय सिनेमा के प्रति हमारी प्रचलित समझ को चुनौती देते हैं। यह चुनौती हमे एक ऐसी दुनिया को समझने के लिए मनसा तैयार करती हैं जहाँ सब कुछ 'ठीक और चमकीला' नहीं है। भारतीय सिनेमा का पर्दा अपने प्रचलित अर्थों में चमकीला, साफ-सुथरा, प्रदूषणमुक्त और धब्बा रहित है, सब कुछ ठीक-ठाक अपनी जगह पर। पर्दे के बाहर की दुनिया राजनीति के जुमलों से बाहर खून, कीचड़, जख्म और अंतहीन पीड़ा की धूसर दुनिया है। यह दुनिया 'आने वाले सौ सालों के दरम्यान रोटी और पानी के लिए गृहयुद्ध के लिए तैयार होती दुनिया' है। मणि कौल और उनके समकालीन फिल्मकारों के सामने की दुनिया इसी तरह की रही है। विश्वयुद्धों, गृहयुद्धों के अनुभवों को जानने, समझने और अपनी ज्ञानेंद्रियों से अनुभूत कर लेने वाली पीढ़ी की दुनिया त्रासदी भरी रही है। मणि कौल को 'न्यू वेब सिनेमा' की मानसिकता वाले फिल्मकार की श्रेणी में रखा जाता है। यूरोप में 1960-1970 के दशक में 'न्यू वेब सिनेमा' का उभार माना जाता है। त्रुफो, लुइमान, रिवेत, गोदार आदि के विचार 'न्यू वेब सिनेमा' के मूल में है। इस प्रकार की फिल्म के मूल में 'लो बजट' सिनेमा की अवधारणा काम करती है। दरअसल, इस दौर की यह प्रमुख विशेषता थी कि कैमरा को कलम के रूप में इस्तेमाल किया गया। सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख औजार के रूप में कैमरा उपस्थित हो रहा था। तत्कालीन यूरोप में 'न्यू वेब सिनेमा' एक आंदोलन कि तरह प्रचलित हुआ। इस तरह के आंदोलन ने प्रबुद्ध फिल्माकर और प्रबुद्ध दर्शक वर्ग कि चेतना को उभारा, दरअसल 'न्यू वेब सिनेमा' कि यह विशेषता रही है कि वह रचनाकार की निजी विशिष्टताओं पर यकीन करती है और उसे उभारने के नए 'स्थान' का विधान रचती है। इस विधान में साहित्य को सिनेमा के समानांतर रखा गया और यह माना गया कि समकालीन 'समय' और 'सामाजिक स्थिति' के यथार्थ चित्रण के लिए इन दोनों में संतुलन होना अनिवार्य है। भारत में 'न्यू वेब सिनेमा' आंदोलन की भूमिका इसी संदर्भ में रही है। मणि कौल, मृणाल सेन (मृणाल सेन की 'भुवन शोम' इसकी शुरुआत है), कुमार साहनी, ऋत्विक घटक जैसे फिल्मकार इसी पृष्टभूमि के फिल्मकार माने गए। 'थर्ड वर्ल्ड सिनेमा' की अभिरुचि का विकास भी दरअसल विकासशील देशों में 'लो बजट' की अवधारणा को लेकर था, यह असल में 'न्यू वेब सिनेमा' का विस्तार था जिसकी परिधि में यथार्थवादी वर्गीय चिंताएँ होती थीं और जो पूँजीवादी व्यवस्था के बरक्स एक बेहतर विकल्प की तलाश और उस तलाश के आसान रास्तों को बताती थी। 'थर्ड वर्ल्ड सिनेमा' अपने विस्तार में व्यक्ति के स्वभाव और बाजार के स्वभाव के बीच के फर्क को पूरी समग्रता और सचाई के साथ ग्रहण करती है। मणि कौल की फिल्में हमें यह भूलने नहीं देती कि जनता में' क्रिटिकल सेन्स' का होना पूँजीवादी व्यवस्था के शोषण को समझने के लिए कितना जरूरी है। मणि कौल बड़े ही सधे ढंग से अपनी फिल्म में ध्वनि, संगीत और संवाद के माध्यम से यह करने में सफल रहे हैं।

यह तथ्य बार-बार दुहराया जाता रहा है कि कान ज्यादा संवेदनशील है या आँख। सुना जाना असरकारी है या देखा जाना। दरअसल सुना जाना हमारे भीतर कही ज्यादा गहराई और असरकारी तरीके से उतरता है यह कारण रहा है कि तमाम कला माध्यमों में संगीत का विशेष स्थान है। मणि कौल कि फिल्मों में संगीत का दिलचस्प और प्रभावी प्रयोग है। संगीत मणि कौल के यहाँ पर्दों पर कई-कई बिंबों को उत्पन्न करती है। मणि कौल की फिल्मों के लंबे-लंबे शॉट में विन्यस्त संगीत इसका प्रमाण है। मणि कौल की फिल्मों में संगीत का कोई निश्चित आरोह-अवरोह नहीं है ये कभी तेज और कभी अचानक कम और फिर अचानक मध्यम हो जाता है। असल में, मणि कौल एक ऐसे फिल्मकार हैं जिसे पहले से कुछ बाधित नहीं करता। वे पूरी आजादी के साथ फिल्म बनाते हैं। 'उसकी रोटी' और 'नौकर की कमीज' के संवादों और उसकी ध्वनियों को अगर गौर से देखा जाए तो यह फर्क हमे साफ दिखलाई देगा, इनमें कभी हमें विलंबित तो कभी द्रुत राग विभिन्न बिंबों में लगातार दिखलाई देता है। मणि कौल में ध्वनि की यह विविधता समकालीन सिनेमा आंदोलनों की उपज मानी जा सकती है जो उनके अपने अनुभवों से होकर गुजरी है। 'फेलनी' की तरह यह एक 'पोयटिक तकनीक' है, जो निरंतर एक 'मेंटल एक्टिविटी' की तरह हमारे जेहन में चलती रहती है; और यही वह वजह है जिससे मणि कौल की फिल्मों को दुरूह कहा जाता है। जबकि वह दुरूह नहीं हैं बल्कि एक जिम्मेदार दर्शक की माँग करने वाली फिल्में हैं। दुर्भाग्य से भारत में चकाचौंध वाली फिल्मों ने दर्शकों की रुचियों को इस कदर बदला है कि पर्दे की बेहतरीन दुनिया की छवि उसके सपनों में बार-बार दस्तक देती है और वही वास्तविक दुनिया भी लगती है। यह बेहद खतरनाक है कि कैमरे में कैद की छवियों की अवास्तविक और मायावी दुनिया ने हमारे समय में वास्तविक दुखों, तकलीफों के अनुभव-संसार को एक हद तक भावशून्य कर दिया है। एक खास तरह के भुलावे और अपने ही समाज से काट कर भारतीय फिल्मों की चकाचौंध ने आंदोलनकारी फिल्मों के स्थान को सीमित कर दिया है।

दरअसल मणि कौल की फिल्मों को एक संश्लिष्ट विधान में सिनेमा के व्याकरणिक मुहावरों को गढ़ने वाली परिधि में रख कर समझने की परिपाटी बनाई गई है, जिसे गलत नहीं कहा जा सकता लेकिन इस कारण से इसे दुरूह कह कर खारिज नहीं किया जा सकता। मणि कौल की फिल्मों की एक सीमा यह जरूर है कि वह प्रबुद्ध दर्शक की माँग करती हैं। भारत जैसे देश में जहाँ चालीस फीसदी आबादी अब भी शिक्षित नहीं है और शिक्षा को लेकर अब भी जागरूक समाज निर्मित नहीं हो पाया है, ऐसे में जागरूक दर्शक की उम्मीद करना बेमानी हो जाता है। मुक्तिबोध के समस्त कृतित्व पर आधारित फिल्म 'सतह से उठता आदमी' कारखानों, चिमनियों से उठते धुओं के सामने 'जीवन क्या जिया' पर विचार करता हुआ कितना वास्तविक लगता है, वह मशीनों से निकलने वाली कर्कश ध्वनि को एक आदिम राग की तरह सुनता है। हालाँकि यह उल्लेखनीय है कि यह फिल्म मुक्तिबोध के लेखन और चिंतन को पूर्णतया से हमारे सामने नहीं ला पाती है; वैसे भी किसी फिल्म से पूर्णता की माँग करना भी अपने आप में एक गलत प्रश्न की शुरुआत मानी जा सकती है।

बीसवीं सदी के सिनेमा के इतिहास में ऋत्विक घटक, मणि कौल, कुमार साहनी, मृणाल सेन ने सिनेमा के जिस विन्यास को रचा है उसे देखकर हमें कई बार 'गोदार', 'तारकोव्स्की', 'कुरासोवा', 'दे सिका', 'फेलिनी' आदि याद आते हैं। मणि कौल के जाने के बाद फैज अहमद फैज कि यह पंक्ति बार-बार याद आती है - 'वीरां है मयकदा, खुम-ओ-सागर उदास है'।


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